Monday, 28 March 2022

सहानुभूति या समानुभूति-क्या अंतर है इनमें?

 

सहानुभूति या समानुभूति-क्या अंतर है इनमें?



 

 सहानुभूति में हम दूसरे के दुख को पहचानकर उसे दूर करने के बारे में सोचते हैं, लेकिन खुद दुखी नहीं होते। इसमें दया करने से अपनी श्रेष्ठता का अहंकार पनपता है। समानुभूति यानी दूसरा जैसा महसूस कर रहा है, वैसा महूसस करना। इसमें संवेदना का व्यवहार नहीं, व्यवहार में संवेदना झलकती है। दोनों में संवेदना की गहराई का फर्क है। अतिशय व्यक्तिवादिता से पीड़ित जिस हिंसक समाज में हम आज जी रहे हैं, वह आक्रामक स्पर्धा को बढ़ावा देकर व्यक्ति को व्यक्ति के खिलाफ़ टकराव की स्थिति में खड़ा कर देता है। आज हम ऐसे संवेदनहीन समूह में बदलते जा रहे हैं, जहां हर ‘दूसरा’ हमारा प्रतिद्वंद्वी है, उसका सुख-दुःख हमें नहीं व्यापता। मानवीय संबंधों में बिखराव के पीछे तो यह है ही, राष्ट्रों के बीच टकराव के पीछे भी कुछ हद तक यह ज़िम्मेदार है।

समानुभूति का मतलब है-‘दूसरा जैसा महसूस कर रहा है, वैसा ही महसूस करना’। इसके लिए स्वयं को दूसरे के स्थान पर रखकर सोचना होता है। सहानुभूति में हम दूसरे के दुख को पहचानकर उसकी मदद करने की सोचते हैं। हमारा स्वयं दुखी होना ज़रूरी नहीं है। सहानुभूति में एक दूरी है, जबकि समानुभूति में स्वयं वही भाव महसूस करने के कारण बराबरी है। सहानुभूति में अक्सर दया करने से अपनी श्रेष्ठता का अहंकार पनपता है। सहानुभूति से आप किसी गरीब की मदद कर सकते हैं, किंतु जिसने अकेला बेटा खो दिया हो, उसके सामने अपने बेटे की उपलब्धियों और वैभव की चर्चा न करना समानुभूति का उदाहरण है। इसके लिए हृदय की विशालता चाहिए, मुंह का बड़बोलापन नहीं। इसमें ‘अन्य’ का बोध तिरोहित हो जाता है और करुणा का जन्म होता है।

दूसरे की भावनाएं समझने और बांटने का मानवीय संबंधों को मधुर और स्थायी बनाए रखने में अपनी भूमिका से कौन इनकार कर सकता है? मित्रता की शुरुआत भी अक्सर इसी विश्वास के साथ होती है कि अगला व्यक्ति हमारी भावनाओं को, विचारों को, बिना निर्णायक बने बांट-समझ सकेगा। किसी आध्यात्मिक गुरु या मनोविश्लेषक की सफलता का राज़ भी यही है कि साधक-बीमार को यह पूरा विश्वास हो जाता है कि गुरु या मनोविश्लेषक उसे पूरी तरह समझता है और उसके सामने दिल खोला जा सकता है। सामाजिक जीवन में भी जहां टकराव है, वहां भी बातचीत की सफलता की संभावना तभी ज़्यादा होती है जब दोनों पक्ष एक दूसरे के दृष्टिकोण को ठीक से समझते हों और उसके प्रति संवेदनशील हों। महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग का सत्याग्रह इसका अच्छा उदाहरण है।

समानुभूति के अभाव में लोग गलत फ़ैसले लेते हैं, जो उनको और आस-पास के लोगों को हानि पहुंचाते हैं। अच्छी बात यह है कि समानुभूति को हम सीख भी सकते हैं और जीवन को अधिक प्रसन्न और कम जटिल बना सकते हैं। ध्यान से सुनने की आदत, दूसरे के भले की वास्तविक चिंता, लेकिन निर्णायक बनने से बचना और उनकी भावनाओं को औचित्य प्रदान करना आदि ऐसे तरीके हैं, जिनसे हम समानुभूति विकसित कर सकते हैं। सच्ची मुस्कराहट के साथ पूछा गया एक वाक्य, ‘कहो, कैसा चल रहा है,’ इसकी अच्छी शुरुआत हो सकती है। समानुभूति, सहनशीलता और सहानुभूति से आगे का उपक्रम है जहां संवेदना का व्यवहार नहीं, व्यवहार में संवेदना झलकती है। तभी तो कोई बुद्ध और गांधी बनता है। संसार को करुणा, अहिंसा और प्रेम का प्रेरक संदेश दे पाता है। आइए, हम सब नरसी मेहता की तरह इसे अपने में जगाएं-वैष्णव जन तो तेणने कहिए जे पीड़ परायी जाणे रे ........।

समानुभूति की निश्चित परिभाषा देना संभव नहीं है क्योंकि विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने इसे अलग-अलग स्तर पर परिभाषित किया है। इसकी एक सामान्य परिभाषा यह हो सकती है कि “किसी व्यक्ति में किसी अन्य व्यक्ति, अन्य प्राणी, या किसी काल्पनिक चरित्र की मनःस्थिति को सटीक रूप में समझने की क्षमता समानुभूति कहलाती है।”

कुछ अन्य मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि समानुभूति सिर्फ़ दूसरों की मनःस्थिति को समझने तक ही सीमित नहीं है बल्कि उन्हीं भावनाओं को उस स्तर पर महसूस करने का नाम है जिस स्तर पर उन भावनाओं को मूल व्यक्ति ने महसूस किया था। इसका चरम रूप वहाँ दिखाई देता है जहाँ व्यक्ति की चेतना में ‘स्व’ तथा ‘पर’ का अंतर मिटने लगता है। समानुभूति के प्रकार: समानुभूति को ‘संज्ञानात्मक समानुभूति’ तथा ‘भावनात्मक समानुभूति’ में बाँटा गया है। संज्ञानात्मक समानुभूति को पुनः ‘परिप्रेक्ष्य ग्रहण’ तथा ‘कल्पना’ में विभाजित किया गया है। परिप्रेक्ष्य ग्रहण किसी अन्य व्यक्ति के व्यवहार को समझने की क्षमता है, जबकि कल्पना किसी काल्पनिक चरित्र की परिस्थितियों को समझने की क्षमता है। भावनात्मक समानुभूति को भी दो भागों यथा- ‘समानुभूतिक चिंता’ और ‘समानुभूतिक तनाव’ में बाँटा जाता है। समानुभूतिक चिंता में व्यक्ति की भावनाएँ उत्तेजित होती हैं। वह चाहने लगता है कि पीड़ित व्यक्ति की स्थिति में सुधार हो और अगर वह किसी तरह का सहयोग करने की स्थिति में होता है तो पीड़ित व्यक्ति को सहयोग भी करता है। समानुभूतिक तनाव में तीव्रता का स्तर और भी अधिक होता है। यह तीव्रता इतनी अधिक होती है कि व्यक्ति का सामान्य जीवन-यापन भी कठिन हो जाता है। समानुभूतिक तनाव के लाभ कम और हानियाँ ज़्यादा हैं।

समानुभूति और सहानुभूति में अंतर: समानुभूति और सहानुभूति में अंतर इस बात से तय होता है कि हम समानुभूति का क्या अर्थ लेते हैं? अगर समानुभूति को सिर्फ संज्ञानात्मक स्तर पर लें तो सहानुभूति उससे अगला स्तर है जहाँ व्यक्ति दूसरे की पीड़ा को देखकर दुखी हो जाता है और चाहता है कि उस व्यक्ति की पीड़ा दूर हो जाए। दूसरी ओर अगर समानुभूति का अर्थ यह लिया जाए कि इसमें दूसरे व्यक्ति की मनःस्थिति को उस स्तर पर अनुभव किया जाता है जहाँ ‘स्व’ तथा ‘पर’ का अंतर मिट जाता है तो समानुभूति, सहानुभूति का अगला स्तर होता है क्योंकि सहानुभूति में ‘स्व’ और ‘पर’ का अंतर निश्चित तौर पर बना रहता है। आजकल यह धारणा अधिक प्रचलित है कि समानुभूति एक व्यापक अवधारणा है जिसकी एक विशेष अवस्था को सहानुभूति कहा जाना चाहिए।

अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अगर समानुभूति सिर्फ संज्ञानात्मक स्तर पर है, तो उसे सहानुभूति नहीं कहा जाएगा| किंतु, अगर उसमें भावनात्मक तत्त्व भी शामिल हो गया हो तो वह सहानुभूति बन जाएगी और फिर कोई यह नहीं कह पाएगा कि.. जाके पैर न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई...!!

 

 

 

मीता गुप्ता

 

Thursday, 24 March 2022

सागर और मैं

 

सागर और मैं



विश्व महासागर दिवस (8 जून) के अवसर पर विशेष....


सागर और मैं

रेतीले तट पर खड़ी  हुई ,

मैं हतप्रभ सम्‍मुख देखती रही ।

है दृष्‍टि जहाँ तक जाती,

दिखता

नीली लहरों का राज वहाँ।

उस पार उमड़ती लहरों का

आलिंगन करता नभ झुक झुक कर।

रवि बना साक्षी देख रहा

करता किरणों को न्‍योछावर।

सागर की गहराई कितनी,

कितने मोतीमाणिकजलचर

कितनी लहरें बनतीमिटतीं,

तीर से टकरा-टकरा कर।

 लहरों की गोदी में खेले,

नौकाएँ मछुआरों की।

आती-जाती लहरें तट का

पद प्रक्षालन करती जातीं।

सिंधु लहरें

क्‍यूँ विकल हैं?

सिंधु लहरें,

क्या खोज में अपने किनारों की?

 नीली नीली,

वेग़वती,

लहरें उठतीं गिरतीं,

उन्‍मादग्रस्‍त हो

दौड़ लगातीं,

तट की ओर।

करती विलास,

उन्‍मुक्‍त हास,

गुंजायमान चहुँ ओर।

 दूर कर

सब विकार,

श्‍वेत फेनिल,

चरण धोक़र

समा जातीं

हैं किनारों में,

हो जातीं एकाकार ।

संसार सागर की

लहरें  हम

काशहम भी

खोज पाते,

अपने किनारे को,

और मेरी कल्पना के

सागर में उठती-गिरती भावनाओं की लहरों को,

मिल पाता

विश्राम।

सागर की लहरों पर चलकर

एक किरण नभ को किरणों से भरके  

बैठ क्षितिज पर सूरज के संग

धरा पृष्ठ उज्ज्वल कर के,

नभ के दैदीप्यमान तारों में,

खुद को शामिल कर के,

उद्विग्न हृदय की प्रतिध्वनि से ,

कर पाती सत्यनाद,

बन पाती

सागर-सी अथाह-गंभीर-दृढ़-अतल-विशाल-विस्तृत,

हे रत्नाकर! दो ऐसा आशीर्वाद……

दो ऐसा आशीर्वाद......

दो ऐसा आशीर्वाद॥

मीता गुप्ता

 


श्रद्धांजलि

 श्रद्धांजलि



एक अजीब भयभीत,

डरावना-सा माहौल.....

मन में एक अप्रत्याशित-सा भय,

अनहोनी का डर.......

आशंकाओं से ओत-प्रोत,

वैचारिक लहरों का उद्वेग......

नकारात्मक विचारों पर,

विराम की असफल कोशिश.....

अपनों की बहुतायत अस्वस्थता,

जीवन के लिए संघर्षरत,

पल-पल विचलित करने वाली,

अनचाही सूचनाओं का दौर....

और निरंतर, अपनों का,

अपने बीच से दूर जाने का,

अनवरत,हृदयविदारक क्रम......

अपने दिवंगत सहकर्मियों का सतत कर्तव्यबोध,

उज्ज्वल चरित्र,

कर्मशील, अनवरत निष्ठा,

हँसमुख, राष्ट्र-निर्माता,

जिनका मृत्यु ने किया निष्ठुर आकलन....

कर्तव्यपरायणता और उनकी स्मृतियों के बीच,

उहापोह में फँसा मेरा व्यथित अंतर्मन .......

और इन सबसे व्युत्पन्न,

मर्मस्पर्शी,असीम वेदना...

इन तमाम झंझावातों के थपेड़ों की,

उधेड़बुन में बरबस व्यस्त,

उद्विग्न मन की व्यथा......

क्या कहूँ, किससे कहूँ,

वह ओजस्वी वाणी,

अचानक हो गई शांत....

बस फिर यही सोचा.......कि

जो निश्चित है,उससे घबराहट कैसी?

जो अवश्यंभावी है,उससे भय कैसा?

तुमसे मिली जो सीख,

तुम हो प्रकाश-पुंज,

असीम प्रकाश....

हर हाल में स्थिर-प्रज्ञ,सम व तटस्थ रहना है

जाने वालों को अलविदा कहना है..

कहना है कि दोस्त..जहाँ रहो, 

हमें न भुलाना,

जैसे हम न तुम्हें भुला पाएँगे,

जीने की प्रेरणा तुम हो.....

इस अटल यथार्थ को भी सह लेंगे,

तुम्हारे बिना भी रह लेंगे !

तुमने जो दायित्व दिया,

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का,

विश्व में तुम्हारा प्रकाश फैलाएँगे,

जीते जी न तुम्हें भुला पाएँगे,

जीते जी न तुम्हें भुला पाएँगे,

इस अटल यथार्थ को कैसे अपनाएँगे ?

जीते जी न तुम्हें भुला पाएँगे ।।

Monday, 21 March 2022

आखिर सुख है कहां?

 

आखिर सुख है कहां?





आदमी के अस्तित्व की सबसे बड़ी असलियत संसार में उसका अकेलापन है। हमारा क्या होता है, हम जीते हैं या मरते हैं, खुशियाँ मनाते है या पीड़ा से कराहते हैं, इसका कोई प्रभाव सृष्टि पर नहीं पड़ता। सूरज, तारे, चाँद, धरती या हमारे आंगन में उगी घास या खिले फूल हमारी स्थिति से असंपृक्त अपने निर्दिष्ट जीवन-पथ पर बढ़ते चले जाते हैं। इस बात के एहसास ने पश्चिम में अस्तित्ववादी दर्शन की ओर झुकाव पैदा किया, जिसमें ऊब और अनास्था का दारुण स्वर सुनाई पड़ता है। आदमी ने कला, विज्ञान आदि के ज़रिए इस दुनिया को अर्थवान बनाकर एक सीमा तक अपने जीवन को भी अर्थवान यानी एक वृहत् डिजाइन का हिस्सा बनाने की कोशिश की है। लेकिन आदमी चाहे जो कल्पना कर ले, कभी भी प्रकृति के साथ संप्रेषण नहीं स्थापित कर सकता। उसके अकेलेपन को कोई सचमुच में अगर तोड़ सकता है, तो दूसरा आदमी ही। अपनी संपूर्ण अनुभूति में आदमी फिर भी अकेला है और कोई उपाय नहीं, जिससे वह अपनी पूरी अनुभूति को दूसरों को संप्रेषित कर सके। लेकिन एक सीमा के भीतर भावों से, शब्दों से, संगीत से वह अपनी आंतरिक पीड़ा या खुशी दूसरे मनुष्यों तक पहुँचा सकता है। इस संप्रेषण से उसकी ऊब और उसका अकेलापन टूटता है। स्वभाव से आदमी अपने सुख और अपनी पीड़ा में अधिक से अधिक लोगों को शामिल करने में गहरे संतोष का अनुभव करता है। इसलिए उसे विस्तृत मानव समुदाय की चाह होती है। कोई भी वस्तु जो उन्मुक्त संप्रेषण में रुकावट डालती है, वह आदमी के अकेलेपन को बढ़ाती है।

उपभोक्तावादी संस्कृति वस्तुओं के आधार पर अलग-अलग घेरों में मनुष्यों को बाँटकर संप्रेषण की संभावना को खत्म करती है क्योंकि इससे उनके अनुभव के दायरे अलग हो जाते हैं, जबकि संप्रेषण के लिए अनुभव के बीच सामंजस्य का होना आवश्यक है। इस तरह उपभोक्तावाद के कारण एक-दूसरे से कटे आदमी की ऊब और गहरी होती जाती है। इस ऊब से वस्तुओं की भूख और भी बढ़ती है। इस दुश्चक्र के कारण जीवन में सार्थकता की तलाश मृग-मरीचिका बन जाती है। इस दृष्टि से उपभोक्तावादी संस्कृति समतावादी संस्कृति के ठीक विपरीत स्थिति बनाती है।

यह कोई आकस्मिक बात नहीं है कि उपभोक्तावादी समाज में मनोरंजन के साधन उत्तरोत्तर ऐसे बनते जा रहे हैं, जिनमें सामूहिक आनंद का स्थान एकाकी सुख ले रहा है। पहले सामूहिक नृत्य-गान आदि में एक मिली-जुली खुशी का अनुभव होता था। उपभोक्तावादी संस्कृति में मनोरंजन का प्रतीक और उसका सबसे विकसित साधन टेलीविजन है, जिसमें कहीं किसी सामूहिक हिस्सेदारी की गुंजाइश नहीं होती। हर दर्शक अकेला, एक निर्जीव मशीन पर आँखें चिपकाए अपने तात्कालिक परिवेश से कटा बैठा रहता है। दर्शक टेलीवज़न पर विभिन्न भूमिकाओं में आनेवालों से बिलकुल कटा होता है। दर्शक की खुशी या दुख की अभिव्यक्ति उसी तक सीमित रहती है। उसका कोई समुदाय नहीं बन पाता। अगर उसका कोई भावनात्मक लगाव बन पाता है, तो उनके साथ जिनकी कोई भूमिका टेलीविज़न पर होती है और जो स्वयं इस भावना से निर्लिप्त मात्र छाया हैं। फिर टेलीविजन के संचालकों द्वारा इस भावना का व्यावसायिक या राजनीतिक उपयोग दर्शकों को अपनी मरज़ी के अनुसार किसी दिशा में हाँकने के लिए किया जा सकता है। यह बिलकुल एकतरफा व्यापार है, जिसमें दर्शकों की अभिव्यक्ति की कोई संभावना नहीं बनती। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में देवताओं की आकाशवाणी की तरह इसमें द्रष्टा-श्रोता के लिए सिर्फ संदेश-आदेश ही होते हैं, जो निर्मम रूप से श्रोता-दर्शक की भावनाओं से असंपृक्त होते हैं क्योंकि टेलीविज़न या रेडियो पर अभिनय करने वाले, असली नहीं, काल्पनिक लोगों के लिए अभिनय करते हैं। कहीं अभिनेता-वक्ता और दर्शक-श्रोता के बीच कोई ‘फीडबैक’ (प्रतिक्रिया और परिणाम की जानकारी) नहीं होता, जिससे कि अभिनेता-वक्ता अपनी भूमिका में लोगों की भावना के अनुरूप कोई रुझान लाने की ज़रूरत महसूस करे। कोई आश्चर्य नहीं कि सबसे पहले हिटलर ने रेडियो का लोगों को मानसिक रूप से बंदी बनाने के लिए उपयोग किया था।

समाज में बढ़ती अशांति और आक्रोश का मूल कारण उपभोक्तावादी संस्कृति को अपनाना है। पश्चिमी जीवन शैली को बढाने वाली तथा दिखावा प्रधान होने के कारण विशिष्ट जन इसे अपनाते हैं और महँगी वस्तुओं के उपयोग को प्रतिष्ठा का प्रतीक मानते हैं, जबकि कमजोर वर्ग इसे ललचाई नजरों से देखता है।उपभोक्ता संस्कृति से हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो रहा है। इसके कारण हमारी सामाजिक नींव खतरे में है। मनुष्य की इच्छाएँ बढ़ती जा रही है, मनुष्य आत्मकेंद्रित होता जा रहा है। सामाजिक दृष्टिकोण से यह एक बड़ा खतरा है। आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। अब हम किसी भी वस्तु का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए नहीं करते हैं कि वह हमारी किसी जरूरत को पूरा करती है बल्कि इसलिए करते हैं कि उससे हम कितना अधिक दिखावा कर सकते हैं। बहुत सी चीजें हम ऐसी खरीद लेते हैं जिनका हम कभी भी इस्तेमाल नहीं करते। हम उन्हें सिर्फ इसलिए खरीदते हैं कि उनके विज्ञापन ने हमें यह मानने को मजबूर कर दिया कि उनके बगैर समाज में हमारी कोई प्रतिष्ठा ही नहीं रहेगी। इसी तरह से हम पाँच सितारा होटलों में शादी का कार्यक्रम इसलिए रखते हैं ताकि समाज में हमारी झूठी प्रतिष्ठा में इजाफा हो। ऐसा करते समय हमें अक्सर फिजूलखर्ची करनी पड़ती है।जीवन में 'सुख' का अभिप्राय केवल उपभोग-सुख नहीं है। परन्तु आजकल लोग केवल उपभोग के साधनों को भोगने को ही 'सुख' कहने लगे है। विभिन्न प्रकार के मानसिक, शारीरिक तथा सूक्ष्म आराम भी 'सुख' कहलाते हैं।

इस विकास का एक प्रभाव यह पड़ा है कि विकसित पश्चिमी देशों में धीरे-धीरे यह अवधारणा बढ़ रही है कि मानव-बोध के वे सारे क्षेत्र जिनमें कल्पना का संबंध किसी प्रयोग से नहीं बन पाता, कला का संबंध किसी निजी या सामूहिक सजावट या उत्तेजना से नहीं बन पाता, वे सब अप्रासंगिक हैं। एक उपभोक्तावादी समाज हर वस्तु को उपभोग की कसौटी पर कसता है। ऐसा चिंतन जो प्रयोग के दायरे में नहीं आता कभी उपभोग के दायरे में भी नहीं आ सकता भले ही संप्रेषित होकर वह दूसरे मानव मस्तिष्क में एक नया बोध या सपनों का एक सिलसिला उत्प्रेरित करे, उपभोक्तावादी समाज के लिए निरर्थक हैं क्योंकि वह सपनों या कल्पना स बचना चाहता है। उसके लिए कल्पना की सीमा वे ठोस वस्तुएँ हैं जिन्हें वह छू सकता है, खरीद सकता है और जिनसे अपने घरों को सजा सकता है। इस तरह उपभोक्तावादी संस्कृति धीरे-धीरे मानव-बोध की उस विशिष्टता को नष्ट कर देती है जो मनुष्यों को अन्य जीवों से अलग करती है – यानी ठोस वस्तुओं से ऊपर उठकर कल्पना, अनुमान, प्रतीक आदि के स्तरों पर जीने की विशिष्टता। इस तरह उपभोक्तावादी संस्कृति एक तरफ थोक मशीनी उत्पादन के जरिए वस्तुओं से सृजन का तत्व निकाल देती है तो दूसरी ओर मानव-बोध से कल्पना की संभावना को।

जब मार्क्स ने यही बात कही थी तो उस समय यह कुछ चौकानेंवाली बात लगी थी। लेकिन आज सभी लोग इस सच्चाई को मानने लगे हैं। इस कारण उन लोगों के सामने जिन्होंने नए तरह के समाज के निर्माण की कल्पना की थी, नक्शा ऐसे ‘आर्थिक-मनुष्यों’ का समाज बनाने का नहीं था। इस निरंतर चलनेवाले संपत्ति के बँटवारे की ऊहापोह को लेकर कोई मनीषी क्यों अपना पूरा जीवन लगाता? समाजवाद की कल्पना के पीछे असली भावना आदमी के जीवन को संपत्ति और उसके उन प्रतीकों से मुक्त करना था, जो उसे गुलाम बनाते हैं तथा उसके समुदायभाव को नष्ट करते हैं। इससे एक पूर्ण उन्मुक्त मानव की कल्पना जुड़ी थी। उपभोक्तावाद असंख्य नई कड़ियाँ जोड़कर मनुष्य पर संपत्ति की जकड़न को मजबूत करता है।

योग शास्त्र के उपदेष्टा महर्षि ने तो स्पष्ट ही अपने शास्त्र में लिख दिया है कि सुखानुशायी रागः अर्थात राग नामक क्लेश की उत्पति का कारण सुख ही है। यही कारण है कि सब सुविधा-वैभव को पा कर भी पूर्ण शांत नहीं होता, पूर्ण काम नहीं हो सकता। मनुष्य उन व्यक्तियों और वस्तुयों के पीछे अर्ह्निश पागलों की तरह भाग रहा है, जो स्थायी रूप से उसके पास रहने वाली नहीं हैं। दुःख इस बात का है कि इसे समझते-बूझते भी वह इससे आंखें मूंदे हुए है। सब जानते हैं कि एक न एक दिन मरना है, किंतु उस मरण को सुधारने का प्रयत्न नहीं करते। मनुष्य अच्छी-बुरी हर परिस्थति में सत्य पथ पर अविचलित चलता रहे, तो उसे जीवन में अपने-पराए का बोध और दुःख कभी भी अनुभव नहीं होगा। इच्छाओं के पूर्ण न होने पर भी मनुष्य दुःख पूर्ण जीवन व्यतीत करता है। यदि हम हर क्षण के अनुभव को उपहार की तरह स्वीकार करें तो सुख-दुःख से ऊपर उठ सकते हैं। तथा जीवन यात्रा असीम आनंद के साथ पूर्ण कर लेंगे। यही तो मुक्ति है। इसके लिए जितना हो सके, परोपकार में समय लगाएं। मात्र अपने परिवार के लिए ही करते रहना बंधन है। जब यह बंधन टूटेगा, तभी मुक्ति के द्वार खुलेंगे। जीवन में शाश्वत सुख सब कुछ अपने लिए संग्रहित या अपने में ही समेटे रखने में नहीं है। शाश्वत सुख तो अपने अतिरिक्त औरों के बारे में सोचने और उन्हें सुखी देखने तथा उनकी पीड़ा दूर करने में मददगार बनने में है। केवल अपना या अपने परिवार का हित सोचना ही सामाजिक कटुता का कारण बनता है। यदि लक्ष्य भौतिक सुख- वैभव की प्राप्ति तक ही सीमित है, तो हमारा जीवन ही तुच्छ है। मनुष्यों की स्वाभाविक इच्छा है कि हम दुःखों से पूर्णतः छूट कर स्थाई और पूर्ण सुख की प्राप्ति कर सकें। इस की पूर्ति के लिए हमें ईश्वर और आत्मा के बारे भी अवश्य ही जानना होगा।

अतः संसार का कोई सुख आत्मा को संतुष्ट नहीं कर सकता है। आत्मा उत्तम से उत्तम सुख को पाना चाहता है और लम्बी अवधि तक चाहता है। उत्तम सुख का स्तर कम न हो। सुख से उबना नहीं चाहता। जिस ऊंचे सुख को प्राप्त किया, उस सुख में कमी न आ जाए अर्थात शारीरिक, बौद्धिक हानि न हो। जिस सुख को प्राप्त करना चाहता है,वो है परमात्मा का आनन्द और वो परमात्मा से स्वयं को समर्पित करने से ही मिलता है। परमात्मा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रार्थना करनी चाहिए अर्थात सत्य व न्याय का आचरण करना , धर्म से पदार्थों की प्राप्ति करना, धर्म और अर्थ से प्राप्त इष्ट पदार्थों का सेवन करना और सब दुःखों से छूट कर पूर्ण आनंद में रहना। इस प्रकार मनुष्य सब अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त करके, सब काल में सर्वदा सुखी रह सकता है। सुखी रहने का और कोई मार्ग नहीं हैं। 

धियो यो न: प्रचोदयात् ——हे ईश्वर ! आप मेरी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित कीजिए। 

 

मीता गुप्ता

 

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...