आखिर सुख है कहां?
आदमी के अस्तित्व की सबसे बड़ी असलियत संसार
में उसका अकेलापन है। हमारा क्या होता है, हम
जीते हैं या मरते हैं, खुशियाँ मनाते है या पीड़ा से कराहते
हैं, इसका कोई प्रभाव सृष्टि पर नहीं पड़ता।
सूरज, तारे, चाँद, धरती या हमारे आंगन में उगी घास या
खिले फूल हमारी स्थिति से असंपृक्त अपने निर्दिष्ट जीवन-पथ पर बढ़ते चले जाते हैं।
इस बात के एहसास ने पश्चिम में अस्तित्ववादी दर्शन की ओर झुकाव पैदा किया, जिसमें ऊब और अनास्था का दारुण स्वर सुनाई
पड़ता है। आदमी ने कला, विज्ञान आदि के ज़रिए इस दुनिया को अर्थवान
बनाकर एक सीमा तक अपने जीवन को भी अर्थवान यानी एक वृहत् डिजाइन का हिस्सा बनाने
की कोशिश की है। लेकिन आदमी चाहे जो कल्पना कर ले, कभी भी प्रकृति के साथ संप्रेषण नहीं स्थापित कर सकता। उसके अकेलेपन
को कोई सचमुच में अगर तोड़ सकता है, तो
दूसरा आदमी ही। अपनी संपूर्ण अनुभूति में आदमी फिर भी अकेला है और कोई उपाय नहीं, जिससे वह अपनी पूरी अनुभूति को दूसरों को
संप्रेषित कर सके। लेकिन एक सीमा के भीतर भावों से, शब्दों से, संगीत से वह अपनी आंतरिक पीड़ा या खुशी
दूसरे मनुष्यों तक पहुँचा सकता है। इस संप्रेषण से उसकी ऊब और उसका अकेलापन टूटता
है। स्वभाव से आदमी अपने सुख और अपनी पीड़ा में अधिक से अधिक लोगों को शामिल करने
में गहरे संतोष का अनुभव करता है। इसलिए उसे विस्तृत मानव समुदाय की चाह होती है।
कोई भी वस्तु जो उन्मुक्त संप्रेषण में रुकावट डालती है, वह आदमी के अकेलेपन को बढ़ाती है।
उपभोक्तावादी संस्कृति वस्तुओं के आधार पर
अलग-अलग घेरों में मनुष्यों को बाँटकर संप्रेषण की संभावना को खत्म करती है
क्योंकि इससे उनके अनुभव के दायरे अलग हो जाते हैं, जबकि संप्रेषण के लिए अनुभव के बीच सामंजस्य का होना आवश्यक है। इस
तरह उपभोक्तावाद के कारण एक-दूसरे से कटे आदमी की ऊब और गहरी होती जाती है। इस ऊब
से वस्तुओं की भूख और भी बढ़ती है। इस दुश्चक्र के कारण जीवन में सार्थकता की तलाश
मृग-मरीचिका बन जाती है। इस दृष्टि से उपभोक्तावादी संस्कृति समतावादी संस्कृति के
ठीक विपरीत स्थिति बनाती है।
यह कोई आकस्मिक बात नहीं है कि उपभोक्तावादी
समाज में मनोरंजन के साधन उत्तरोत्तर ऐसे बनते जा रहे हैं, जिनमें सामूहिक आनंद का स्थान एकाकी सुख ले रहा
है। पहले सामूहिक नृत्य-गान आदि में एक मिली-जुली खुशी का अनुभव होता था।
उपभोक्तावादी संस्कृति में मनोरंजन का प्रतीक और उसका सबसे विकसित साधन टेलीविजन
है, जिसमें कहीं किसी सामूहिक हिस्सेदारी
की गुंजाइश नहीं होती। हर दर्शक अकेला, एक
निर्जीव मशीन पर आँखें चिपकाए अपने तात्कालिक परिवेश से कटा बैठा रहता है। दर्शक
टेलीवज़न पर विभिन्न भूमिकाओं में आनेवालों से बिलकुल कटा होता है। दर्शक की खुशी
या दुख की अभिव्यक्ति उसी तक सीमित रहती है। उसका कोई समुदाय नहीं बन पाता। अगर
उसका कोई भावनात्मक लगाव बन पाता है, तो
उनके साथ जिनकी कोई भूमिका टेलीविज़न पर होती है और जो स्वयं इस भावना से निर्लिप्त
मात्र छाया हैं। फिर टेलीविजन के संचालकों द्वारा इस भावना का व्यावसायिक या
राजनीतिक उपयोग दर्शकों को अपनी मरज़ी के अनुसार किसी दिशा में हाँकने के लिए किया
जा सकता है। यह बिलकुल एकतरफा व्यापार है, जिसमें
दर्शकों की अभिव्यक्ति की कोई संभावना नहीं बनती। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में
देवताओं की आकाशवाणी की तरह इसमें द्रष्टा-श्रोता के लिए सिर्फ संदेश-आदेश ही होते
हैं, जो निर्मम रूप से श्रोता-दर्शक की
भावनाओं से असंपृक्त होते हैं क्योंकि टेलीविज़न या रेडियो पर अभिनय करने वाले, असली नहीं, काल्पनिक
लोगों के लिए अभिनय करते हैं। कहीं अभिनेता-वक्ता और दर्शक-श्रोता के बीच कोई
‘फीडबैक’ (प्रतिक्रिया और परिणाम की जानकारी) नहीं होता, जिससे कि अभिनेता-वक्ता अपनी भूमिका में लोगों
की भावना के अनुरूप कोई रुझान लाने की ज़रूरत महसूस करे। कोई आश्चर्य नहीं कि सबसे
पहले हिटलर ने रेडियो का लोगों को मानसिक रूप से बंदी बनाने के लिए उपयोग किया था।
समाज में बढ़ती अशांति और आक्रोश का मूल कारण
उपभोक्तावादी संस्कृति को अपनाना है। पश्चिमी जीवन शैली को बढाने वाली तथा दिखावा
प्रधान होने के कारण विशिष्ट जन इसे अपनाते हैं और महँगी वस्तुओं के उपयोग को
प्रतिष्ठा का प्रतीक मानते हैं, जबकि
कमजोर वर्ग इसे ललचाई नजरों से देखता है।उपभोक्ता संस्कृति से हमारी सांस्कृतिक
अस्मिता का ह्रास हो रहा है। इसके कारण हमारी सामाजिक नींव खतरे में है। मनुष्य की
इच्छाएँ बढ़ती जा रही है,
मनुष्य आत्मकेंद्रित होता जा रहा है।
सामाजिक दृष्टिकोण से यह एक बड़ा खतरा है। आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे
दैनिक जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। अब हम किसी भी वस्तु का इस्तेमाल
सिर्फ इसलिए नहीं करते हैं कि वह हमारी किसी जरूरत को पूरा करती है बल्कि इसलिए
करते हैं कि उससे हम कितना अधिक दिखावा कर सकते हैं। बहुत सी चीजें हम ऐसी खरीद
लेते हैं जिनका हम कभी भी इस्तेमाल नहीं करते। हम उन्हें सिर्फ इसलिए खरीदते हैं
कि उनके विज्ञापन ने हमें यह मानने को मजबूर कर दिया कि उनके बगैर समाज में हमारी
कोई प्रतिष्ठा ही नहीं रहेगी। इसी तरह से हम पाँच सितारा होटलों में शादी का
कार्यक्रम इसलिए रखते हैं ताकि समाज में हमारी झूठी प्रतिष्ठा में इजाफा हो। ऐसा
करते समय हमें अक्सर फिजूलखर्ची करनी पड़ती है।जीवन में 'सुख' का
अभिप्राय केवल उपभोग-सुख नहीं है। परन्तु आजकल लोग केवल उपभोग के साधनों को भोगने
को ही 'सुख' कहने लगे है। विभिन्न प्रकार के मानसिक, शारीरिक तथा सूक्ष्म आराम भी 'सुख' कहलाते
हैं।
इस विकास का एक प्रभाव यह पड़ा है कि विकसित
पश्चिमी देशों में धीरे-धीरे यह अवधारणा बढ़ रही है कि मानव-बोध के वे सारे
क्षेत्र जिनमें कल्पना का संबंध किसी प्रयोग से नहीं बन पाता, कला का संबंध किसी निजी या सामूहिक सजावट या
उत्तेजना से नहीं बन पाता,
वे सब अप्रासंगिक हैं। एक उपभोक्तावादी
समाज हर वस्तु को उपभोग की कसौटी पर कसता है। ऐसा चिंतन जो प्रयोग के दायरे में
नहीं आता कभी उपभोग के दायरे में भी नहीं आ सकता भले ही संप्रेषित होकर वह दूसरे
मानव मस्तिष्क में एक नया बोध या सपनों का एक सिलसिला उत्प्रेरित करे, उपभोक्तावादी समाज के लिए निरर्थक हैं क्योंकि
वह सपनों या कल्पना स बचना चाहता है। उसके लिए कल्पना की सीमा वे ठोस वस्तुएँ हैं
जिन्हें वह छू सकता है, खरीद सकता है और जिनसे अपने घरों को
सजा सकता है। इस तरह उपभोक्तावादी संस्कृति धीरे-धीरे मानव-बोध की उस विशिष्टता को
नष्ट कर देती है जो मनुष्यों को अन्य जीवों से अलग करती है – यानी ठोस वस्तुओं से
ऊपर उठकर कल्पना, अनुमान, प्रतीक आदि के स्तरों पर जीने की विशिष्टता। इस तरह उपभोक्तावादी
संस्कृति एक तरफ थोक मशीनी उत्पादन के जरिए वस्तुओं से सृजन का तत्व निकाल देती है
तो दूसरी ओर मानव-बोध से कल्पना की संभावना को।
जब मार्क्स ने यही बात कही थी तो उस समय यह कुछ
चौकानेंवाली बात लगी थी। लेकिन आज सभी लोग इस सच्चाई को मानने लगे हैं। इस कारण उन
लोगों के सामने जिन्होंने नए तरह के समाज के निर्माण की कल्पना की थी, नक्शा ऐसे ‘आर्थिक-मनुष्यों’ का समाज बनाने का
नहीं था। इस निरंतर चलनेवाले संपत्ति के बँटवारे की ऊहापोह को लेकर कोई मनीषी
क्यों अपना पूरा जीवन लगाता? समाजवाद
की कल्पना के पीछे असली भावना आदमी के जीवन को संपत्ति और उसके उन प्रतीकों से
मुक्त करना था, जो उसे गुलाम बनाते हैं तथा उसके
समुदायभाव को नष्ट करते हैं। इससे एक पूर्ण उन्मुक्त मानव की कल्पना जुड़ी थी।
उपभोक्तावाद असंख्य नई कड़ियाँ जोड़कर मनुष्य पर संपत्ति की जकड़न को मजबूत करता
है।
योग शास्त्र के उपदेष्टा महर्षि ने तो स्पष्ट
ही अपने शास्त्र में लिख दिया है कि सुखानुशायी रागः अर्थात
राग नामक क्लेश की उत्पति का कारण सुख ही है। यही कारण है कि सब सुविधा-वैभव को पा
कर भी पूर्ण शांत नहीं होता, पूर्ण काम नहीं हो सकता। मनुष्य उन व्यक्तियों और वस्तुयों के पीछे
अर्ह्निश पागलों की तरह भाग रहा है, जो स्थायी रूप से उसके पास रहने वाली नहीं हैं।
दुःख इस बात का है कि इसे समझते-बूझते भी वह इससे आंखें मूंदे हुए है। सब जानते
हैं कि एक न एक दिन मरना है, किंतु उस मरण को सुधारने का प्रयत्न नहीं करते। मनुष्य अच्छी-बुरी हर
परिस्थति में सत्य पथ पर अविचलित चलता रहे, तो उसे जीवन में अपने-पराए का बोध और दुःख कभी
भी अनुभव नहीं होगा। इच्छाओं के पूर्ण न होने पर भी मनुष्य दुःख पूर्ण जीवन व्यतीत
करता है। यदि हम हर क्षण के अनुभव को उपहार की तरह स्वीकार करें तो सुख-दुःख से
ऊपर उठ सकते हैं। तथा जीवन यात्रा असीम आनंद के साथ पूर्ण कर लेंगे। यही तो मुक्ति
है। इसके लिए जितना हो सके, परोपकार में समय लगाएं। मात्र अपने परिवार के लिए ही करते रहना बंधन
है। जब यह बंधन टूटेगा, तभी मुक्ति के द्वार खुलेंगे। जीवन में शाश्वत सुख सब कुछ अपने लिए
संग्रहित या अपने में ही समेटे रखने में नहीं है। शाश्वत सुख तो अपने अतिरिक्त औरों
के बारे में सोचने और उन्हें सुखी देखने तथा उनकी पीड़ा दूर करने में मददगार बनने
में है। केवल अपना या अपने परिवार का हित सोचना ही सामाजिक कटुता का कारण बनता है।
यदि लक्ष्य भौतिक सुख- वैभव की प्राप्ति तक ही सीमित है, तो हमारा जीवन ही तुच्छ है। मनुष्यों की स्वाभाविक इच्छा है कि हम
दुःखों से पूर्णतः छूट कर स्थाई और पूर्ण सुख की प्राप्ति कर सकें। इस की पूर्ति
के लिए हमें ईश्वर और आत्मा के बारे भी अवश्य ही जानना होगा।
अतः संसार का कोई सुख आत्मा को संतुष्ट नहीं कर
सकता है। आत्मा उत्तम से उत्तम सुख को पाना चाहता है और लम्बी अवधि तक चाहता है।
उत्तम सुख का स्तर कम न हो। सुख से उबना नहीं चाहता। जिस ऊंचे सुख को प्राप्त किया, उस सुख में कमी न आ जाए अर्थात
शारीरिक, बौद्धिक
हानि न हो। जिस सुख को प्राप्त करना चाहता है,वो है परमात्मा का आनन्द और वो परमात्मा से
स्वयं को समर्पित करने से ही मिलता है। परमात्मा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रार्थना करनी चाहिए अर्थात
सत्य व न्याय का आचरण करना , धर्म से पदार्थों की प्राप्ति करना, धर्म और अर्थ से प्राप्त इष्ट पदार्थों का सेवन
करना और सब दुःखों से छूट कर पूर्ण आनंद में रहना। इस प्रकार मनुष्य सब अभीष्ट
वस्तुओं को प्राप्त करके, सब काल में सर्वदा सुखी रह सकता है। सुखी रहने का और कोई मार्ग नहीं
हैं।
धियो यो न: प्रचोदयात् ——हे ईश्वर !
आप मेरी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित कीजिए।
मीता गुप्ता
No comments:
Post a Comment