सागर और मैं
विश्व महासागर दिवस (8 जून) के अवसर पर विशेष....
सागर और मैं
रेतीले तट पर खड़ी हुई ,
मैं हतप्रभ सम्मुख देखती रही ।
है दृष्टि जहाँ तक जाती,
दिखता
नीली लहरों का राज वहाँ।
उस पार उमड़ती लहरों का
आलिंगन करता नभ झुक झुक कर।
रवि बना साक्षी देख रहा
करता किरणों को न्योछावर।
सागर की गहराई कितनी,
कितने मोती, माणिक, जलचर
कितनी लहरें बनती, मिटतीं,
तीर से टकरा-टकरा कर।
लहरों की गोदी में
खेले,
नौकाएँ मछुआरों की।
आती-जाती लहरें तट का
पद प्रक्षालन करती जातीं।
सिंधु लहरें
क्यूँ विकल हैं?
सिंधु लहरें,
क्या खोज में अपने किनारों की?
नीली नीली,
वेग़वती,
लहरें उठतीं गिरतीं,
उन्मादग्रस्त हो
दौड़ लगातीं,
तट की ओर।
करती विलास,
उन्मुक्त हास,
गुंजायमान चहुँ ओर।
दूर कर
सब विकार,
श्वेत फेनिल,
चरण धोक़र
समा जातीं
हैं किनारों में,
हो जातीं एकाकार ।
संसार सागर की
लहरें हम
काश, हम भी
खोज पाते,
अपने किनारे को,
और मेरी कल्पना के
सागर में उठती-गिरती भावनाओं की लहरों को,
मिल पाता
विश्राम।
सागर की लहरों पर चलकर
एक किरण नभ को किरणों से भरके ।
बैठ क्षितिज पर सूरज के संग
धरा पृष्ठ उज्ज्वल कर के,
नभ के दैदीप्यमान तारों में,
खुद को शामिल कर के,
उद्विग्न हृदय की प्रतिध्वनि से ,
कर पाती सत्यनाद,
बन पाती
सागर-सी
अथाह-गंभीर-दृढ़-अतल-विशाल-विस्तृत,
हे रत्नाकर! दो ऐसा आशीर्वाद……
दो ऐसा आशीर्वाद......
दो ऐसा आशीर्वाद॥
मीता गुप्ता
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