कागज़ के कलाकार
समय बहुत बदल गया है। आशा है आप खेतों में खटते
मजदूरों से पूछें, या बड़ी गाड़ियों में विचरण करने वालों से, सभी पैसों का ही रोना रोते मिलेंगे।
धन संचय ही आज हमारा सबसे बड़ा लक्ष्य और सबसे बड़ी चिंता है पर हमारा बचपन ऐसा
नहीं था। बचपन में हम बच्चे बड़े अमीर होते थे। आज दुनिया कागज़ की रंगीन टुकड़ों
पर कितनी भी रईसी कर ले, पर बचपन में हम लोग कागज़ के कोरे टुकड़ों पर जैसी नवाबी करते थे, वह अप्रतिम था। यह वह समय था, जब बड़े लोग पैसों से खुशियां खरीदा
करते थे और हम बच्चे बिना पैसों के खुशियां ढूंढ लाया करते थे। बड़ों के पास यदि
सबसे बड़ा साधन पैसे थे, तो हमारे पास सबसे बड़ा साधन था कागज़ और हम थे कागज़ के कलाकार।
क्या नहीं था तब हमारे पास? चाहे किसी बच्चे के पॉकेट के अंदर
वाला पर्स नहीं था, पर जब दिल करता था, कॉपी के बीच वाले दोहरे कागज़ को निकाल लिया
करते और आड़े-तिरछे मोड़कर उससे बटुआ बना डालते। उसमें कागज़ की छोटी सी पट्टी
चिपकाकर ‘सेफ्टी
लॉक’ भी
लगा देते। उस बटुए में रखते भी तो क्या? कागज़ों के ही आयताकार टुकड़े! क्या तब हम कागज़
के इन कोरे टुकड़ों के बूते अरबपति नहीं थे? ज़रा जवाब ढूंढिए...!
तब घर का कोई भी सदस्य बाहर जाता, तो हम रो-रो कर आसमान सर पर उठा लेते
थे,
लेकिन हमें रोता छोड़कर हमारे बड़े काम पर निकल जाते थे और मां आसमान में उड़ता
जहाज़ दिखा कर हमें बहला लिया करती थी। मानती हूं कि हमारा ज़िद करना गैर ज़रूरी होता
था और बड़ों के लिए हमें हर बार साथ ले जाना कठिन, पर क्या इससे हमारी कल्पनाओं की उड़ान रुकती
थी?
नहीं......! हमारे बालपन में दूर जाते पापा और उन्हें लेकर उड़ता जहाज़ ही घूमता
रहता,
शायद मैंने इसे समझ लिया था। मां थी ना...तभी तो हमें एक दिन उसने हमें कागज़ के
हवाई जहाज बनाना सिखा दिया। फिर क्या था? अब तो सारा आसमान हमारी मुट्ठी में था। न जाने
कॉपियों के कितने ही पन्ने हमारी बाल सुलभ कल्पनाओं की आहुति में स्वाहा हो गए
होंगे। कागज़ का हवाई जहाज़ बनाना सीखना बचपन की सभी कहानियों में मील का पत्थर
साबित हुआ।
इनोवेटिव दिमाग के डैनों को एक-दो बार और
मोड़कर हवाई जहाज के डिज़ाइन को नया आयाम देना आ गया। हम इसे जेठा रोकेट कहते थे।
क्या जेट के बलबूते हम सब बिल गेट्स नहीं थे? सोचिए ज़रा.....! तब बारिश का मतलब था खेल का
बंद होना। आसमान में बादल घिरता देख सभी, हे भगवान! बारिश नहीं देना,हम बताशे चढ़ाएंगे, की इच्छा रखने लग जाते थे। पर बरसात
में भी कहीं बारिश रूकती है। ऐसा नहीं था कि हमें बारिश में खेलने से परहेज था। वह
तो घर के बड़ों की डांट का डर था, वरना हम तो सब तो कंठ तक कीचड़ में भी खेलने की इच्छा रखने वाले
जीवट बच्चे थे। बारिश होती रहती और हम इंद्रदेव को कोसा करते। सोचिए, ऐसे में कागज़ की नाव बनाना सीखना
कितना बड़ा वरदान साबित हुआ होगा? बच्चों के लिए...क्या कहा? ना वह भी कागज़ की नाव? अरे, कागज़ तो गल जाएगा? खेलने दो? खेलने जाने दो? आदि पर खूब बहस हुई होगी? ऐसे में मां से जब हमने नाव बनाना
सिखाने की पेशकश की, तो चांद-सितारे ज़मीन पर आ गए। और सीखने के बाद तो यह किस-किस तरह से
मज़ेदार साबित हुई, बात इतनी बड़ी है कि शब्द कम पड़ जाएंगे। एक बार फिर कागज़ ही हमारी
उड़ान की बाधा में मददगार बना, जिसे एक बार हमने तैरकर पार कर लिया ये कागज़ की नाव थीं या क्रूज़
शिप,
हमारा बचपन गरीब रहा होगा, खुशियों का मोहताज रहा होगा, पर हम थे कागज़ के कलाकार ! स्वयं से सवाल
कीजिए और उत्तर भी मिल ही जाएगा।
कागज़ से क्या-क्या नहीं बनाया हमने? कागज़ की झोंपड़ी बनाकर जैसा आनंद आता
था, अब
बंगला खरीद लो, पर
वैसा आनंद नहीं आने वाला। हालांकि कागज़ की असली कलाकार तो मां ही होती थी, क्योंकि सिखाया तो सब उन्होंने ही था।
क्या तब कागज़ की इन खुशियों के आगे कागज़ के नोट की कोई बिसात थी? क्या कोई जरूरत थी?
चलो ठीक है, समय बदल गया है, हम बड़े हो गए हैं, अब बचपना करने की उम्र नहीं रही, यह भी मान लेती हूं कि अब ज़िम्मेदारियां
आन पड़ी हैं,
बचपन जैसी बेफिक्री नहीं रही, पर........पर इतना आपको भी मानना पड़ेगा कि यह जो उम्र ना रही....बेफिक्री
नहीं रही.....समस्याएं हैं....जिम्मेदारियां हैं....जैसे बहाने हमने ही पैदा किए
हैं......अपने अंदर के बच्चे का दम खुद अपने ही हाथों से घोटा है हमने....बेवजह
इतना दबाव ले लिया है हमने कि वह जो छोटा सा बच्चा हुआ करता था हमारे अंदर....वह
बाहर आने से अब घबराने लगा है। यकीन मानिए अंदर के उस बच्चे को पता है कि चुनाव
किस कागज़ का करना है?
मीता गुप्ता
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