Tuesday, 1 March 2022

नारी सशक्तिकरण: भूत, वर्तमान और भविष्य

 

नारी सशक्तिकरण: भूत, वर्तमान और भविष्य







मैंने उसको

जब-जब देखा,
लोहा देखा,
लोहे जैसा--
तपते देखा,
गलते देखा,
ढलते देखा,
मैंने उसको

गोली जैसा
चलते देखा!

भारत   में   नारियों   की   स्थिति   ने   पिछली   कुछ   सदियों   में   कई   बड़े   बदलावों   का   सामना   किया   है।  प्राचीन  काल में  पुरुषों  के   साथ   बराबरी   की   स्थिति   से   लेकर   मध्ययुगीन   काल के   निम्न   स्तरीय   जीवन   और   साथ   ही   कई   सुधारकों   द्वारा   समान   अधिकारों   को   बढ़ावा   दिए   जाने   तक ,  भारत   में   नारियों   का   इतिहास   काफी   गतिशील   रहा   है।   आधुनिक   भारत   में   नारियां   राष्ट्रपति ,  प्रधानमंत्री ,  लोक   सभा   अध्यक्ष ,  प्रतिपक्ष   की   नेता   आदि   जैसे   शीर्ष   पदों   पर   आसीन   हुई   हैं।

भारत   में   नारियों   की   स्थिति   सदैव   एक   समान   नहीं   रही   है।   इसमें   युगानुरूप   परिवर्तन   होते   रहे   हैं।   उनकी   स्थिति   में   वैदिक   युग   से   लेकर   आधुनिक   काल   तक   अनेक   उतार - चढ़ाव   आते   रहे   हैं   तथा   उनके   अधिकारों   में   तदनुरूप   बदलाव   भी   होते   रहे   हैं।   वैदिक   युग   में   नारियों   की   स्थिति   सुदृढ़   थी ,  परिवार   तथा   समाज   में   उन्हें   सम्मान   प्राप्त   था।   उनको   शिक्षा   का   अधिकार   प्राप्त   था।   संपत्ति   में   उनको   बराबरी   का   हक   था।   सभा      समितियों   में   से   स्वतंत्रतापूर्वक   भाग   लेती   थीं, उदाहरणतः गार्गी, मैत्रेयी और लोपामुद्रा वैदिक युग की प्रमुख नारी दार्शनिक थीं। गार्गी, ऋषि वाचकन्वी की बेटी थी और वह वैदिक समय की एक महान विद्वान थी।   वैदिक   काल   में  सामाजिक  जीवन   के   प्रत्येक   क्षेत्र   में   वे   समान   रूप   से   आदरणीय   और   प्रतिष्ठित   थीं।   शिक्षा ,  धर्म ,  व्यक्तित्व   और   सामाजिक   विकास   में   उसका   महान   योगदान   था।   सांस्थानिक   रूप   से   नारियों   की   अवनति   उत्तर   वैदिककाल   से   शुरू   हुई।   उन   पर   अनेक   प्रकार   के   निर्योग्यताओं   का   आरोपण   कर   दिया   गया।     उनकी   स्वतंत्रता   और   उन्मुक्तता   पर   अनेक   प्रकार   के   अंकुश   लगाए   जाने   लगे।   मध्यकाल   में   उनकी   स्थिति   और   भी   दयनीय   हो   गयी।   पर्दा   प्रथा   इस   सीमा   तक   बढ़   गया   कि   नारियों   के   लिए   कठोर   एकांत   नियम   बना   दिए   गए और   शिक्षण   की   सुविधा   पूर्णरूपेण   समाप्त   हो   गई। नारी   के   संबंध   में   मनु   का   कथन   और भारतीय   मनीषा   समानाधिकार , समानता,  प्रतियोगिता   की   बात   नहीं   करती,   वह   सहयोगिता   सहधर्मिती ,  सहचारिता   की   बात   करती   है, जिससे   परस्पर   संतुलन   स्थापित   हो   सकता   है।

वैदिक   एवं   उत्तर   वैदिक   काल   में   नारियों   को   गरिमामय   स्थान   प्राप्त   था।   उसे   देवी ,  सहधर्मिणी   अर्द्धांगिनी ,  सहचरी   माना   जाता   था।   स्मृतिकाल   में   भी   '' यत्र   नार्यस्तु   पूज्यन्ते   रमन्ते   तत्र   देवता ''  कहकर   उसे   सम्मानित   स्थान   प्रदान   किया   गया   है।   पौराणिक   काल   में   शक्ति   का   स्वरूप   मानकर   उसकी   आराधना   की   जाती   रही   है।   धर्मशास्त्र   का   यह   कथन   नारी   स्वतंत्रता   का   अपहरण   नहीं   है,   अपितु   नारी   के   निर्बाध   रूप   से   स्वधर्म   पालन   कर   सकने   के   लिए   बाह्य   आपत्तियों   से   उसकी   रक्षा   हेतु   पुरूष   समाज   पर   डाला   गया   उत्तरदायित्व   है। धर्मनिष्ठ   पुरूष   इसे   भार      मानकर   , धर्मरूप   में   स्वीकार   अपना   कल्याणकारी   कर्त्तव्य   समझता   है।   पौराणिक   युग   में   नारी   वैदिक   युग   के   दैवी   पद   से   उतरकर   सहधर्मिणी   के   स्थान   पर      गई   थी।   धार्मिक   अनुष्ठानों   और   याज्ञिक   कर्मो   में   उसकी   स्थिति   पुरूष   के   बराबर   थी।   कोई   भी   धार्मिक   कार्य   बिना   पत्नी   नहीं   किया   जाता   था।   श्रीरामचंद्र   ने   अश्वमेध   के   समय   सीता   की   हिरण्यमयी   प्रतिमा   बनाकर   यज्ञ   किया   था।   यद्यपि   उस   समय   भी   अरुंधती  ( महर्षि   वशिष्ठ   की   पत्नी ) ,  लोपामुद्रा ,  (महर्षि   अगस्त्य   की   पत्नी ) , अनुसूया  (  महर्षि   अ़त्रि   की   पत्नी )  आदि   नारियाँ   देवी   रूप   की   प्रतिष्ठा   के   अनुरूप   थी,   तथापि   ये   सभी   अपने   पतियों   की   सहधर्मिणी   ही   थीं।

किंतु   11   वीं   शताब्दी   से   19   वीं   शताब्दी   के   बीच   भारत   में   नारियों   की   स्थिति   दयनीय   होती   गई।   एक   तरह   से   यह   नारियों   के   सम्मान ,  विकास  और   सशक्तिकरण   का   अंधकार   युग   था।   मुगल   शासन ,  सामंती   व्यवस्था ,  केंद्रीय   सत्ता   का   विनष्ट   होना ,  विदेशी   आक्रमण   और   शासकों   की   विलासितापूर्ण   प्रवृत्ति   ने   नारियों   को   उपभोग   की   वस्तु   बना   दिया   था   और   उसके   कारण   बाल   विवाह ,  पर्दा   प्रथा ,  अशिक्षा   आदि   विभिन्न   सामाजिक   कुरीतियों   का   समाज   में   प्रवेश   हुआ ,  जिसने   नारियों   की   स्थिति   को   हीन   बना   दिया   तथा   उनके   निजी      सामाजिक   जीवन   को   कलुषित   कर   दिया। भारतीय   उपमहाद्वीप   में   मध्य एशिया से पधारे मुसलमानों   की   जीत   ने   परदा   प्रथा   को   भारतीय   समाज   में   ला   दिया।   राजस्थान   के   राजपूतों   में   जौहर   की   प्रथा   थी।   भारत   के   कुछ   हिस्सों   में   देवदासियां   या   मंदिर   की   नारियों   को   यौन   शोषण   का   शिकार   होना   पड़ा   था।   बहुविवाह   की   प्रथा   हिंदू   क्षत्रिय   शासकों   में   व्यापक   रूप   से   प्रचलित   थी।   कई   मुस्लिम   परिवारों   में   नारियों   को   जनाना   क्षेत्रों   तक   ही   सीमित   रखा   गया   था। इन   परिस्थितियों   के   बावजूद   भी   कुछ   नारियों   ने   राजनीति ,  साहित्य ,  शिक्षा   और   धर्म   के   क्षेत्रों   में   सफलता   हासिल   की।   रज़िया   सुल्तान   दिल्ली   पर   शासन   करने   वाली   एकमात्र   नारी   सम्राज्ञी   बनीं।   गोंड   की   महारानी   दुर्गावती   ने   1564   में   मुगल   सम्राट   अकबर   के   सेनापति   आसफ़   खान   से   लड़कर   अपनी   जान   गंवाने   से   पहले   पंद्रह   वर्षों   तक   शासन   किया   था।   चांद   बीबी   ने   1590   के   दशक   में   अकबर   की   शक्तिशाली   मुगल   सेना   के   खिलाफ़   अहमदनगर   की   रक्षा   की।   जहांगीर   की   पत्नी   नूरजहाँ   ने   राजशाही   शक्ति   का   प्रभावशाली   ढंग   से   इस्तेमाल   किया   और   मुगल   राजगद्दी   के   पीछे   वास्तविक   शक्ति   के   रूप   में   पहचान   हासिल   की।   मुगल   राजकुमारी   जहाँआरा   और   जेबुन्निसा   सुप्रसिद्ध   कवयित्रियाँ   थीं   और   उन्होंने   सत्तारूढ़   प्रशासन   को   भी   प्रभावित   किया।   शिवाजी   की   माँ   जीजाबाई   को   एक   योद्धा   और   एक   प्रशासक   के   रूप   में   उनकी   क्षमता   के   कारण   क्वीन   रीजेंट   के   रूप   में   पदस्थापित   किया   गया   था।   दक्षिण   भारत   में   कई   नारियों   ने   गाँवों ,  शहरों   और   जिलों   पर   शासन   किया   और   सामाजिक   एवं   धार्मिक   संस्थानों   की   शुरुआत   की। 

भक्ति   आंदोलन   ने   नारियों   की   बेहतर   स्थिति   को   वापस   हासिल   करने   की   कोशिश   की   और   प्रभुत्व   के   स्वरूपों   पर   सवाल   उठाया।  संत - कवयित्री   मीराबाई   भक्ति   आंदोलन   के   सबसे   महत्वपूर्ण   चेहरों   में   से   एक   थीं।   इस   अवधि   की   कुछ   अन्य   संत - कवयित्रियों   में   अक्क   महादेवी ,  रामी   जानाबाई   और   ललद्दद   शामिल   हैं।   हिंदुत्व   के   अंदर   महानुभाव ,  वरकारी   और   कई   अन्य   जैसे   भक्ति   संप्रदाय ,  हिंदू   समुदाय   में   पुरुषों   और   नारियों   के   बीच   सामाजिक   न्याय   और   समानता   की   खुले   तौर   पर   वकालत   करने   वाले   प्रमुख   आंदोलन   थे। भक्ति   आंदोलन   के   कुछ   ही   समय   बाद   सिक्खों   के   पहले   गुरु ,  गुरु   नानक   ने   भी   पुरुषों   और   नारियों   के   बीच   समानता   के   संदेश   को   प्रचारित   किया।   उन्होंने   नारियों   को   धार्मिक   संस्थानों   का   नेतृत्व   करने ;  सामूहिक   प्रार्थना   के   रूप   में   गाए   जाने   वाले   वाले   कीर्तन   या   भजन   को   गाने   और   इनकी   अगुआई   करने, धार्मिक   प्रबंधन   समितियों   के   सदस्य   बनने, युद्ध   के   मैदान   में   सेना   का   नेतृत्व   करने, विवाह   में   बराबरी   का   हक   और   अमृत  ( दीक्षा )  में   समानता   की   अनुमति   देने   की   वकालत   की।   अन्य   सिख   गुरुओं   ने   भी   नारियों   के   प्रति   भेदभाव   के   खिलाफ़  उपदेश   दिए।

उन्नीसवीं   सदीं   के   पूर्वार्द्ध   में   भारत   के   कुछ   समाजसेवियों   जैसे   राजाराम   मोहन   राय ,  दयानंद   सरस्वती ,  ईश्वरचंद्र   विद्यासागर   तथा   केशवचंद्र  सेन   ने   अत्याचारी   सामाजिक   व्यवस्था   के   विरूद्ध   आवाज़   उठाई।   इन्होंने   तत्कालीन   अंग्रेजी   शासकों   के   समक्ष   स्त्री   पुरूष   समानता ,  स्त्री   शिक्षा ,  सती   प्रथा   पर   रोक   तथा   बहु   विवाह   पर   रोक   की   आवाज़   उठाई।   इसी   का   परिणाम   था   सती   प्रथा   निषेध   अधिनियम   ,1829,1856   में   हिंदू  विधवा   पुनर्विवाह   अधिनियम ,1891   में   एज   आफ   कन्सटेन्ट   बिल   ,1891 ,  बहु   विवाह   रोकने   के   लिये   वेटिव   मैरिज   एक्ट   पास   कराया।   इन   सभी   कानूनों   का   समाज   पर   दूरगामी   परिणाम   हुआ।   वर्षों   के   नारी   स्थिति   में   आई   गिरावट   पर   रोक   लगी।   आने   वाले   समय   में   स्त्री   जागरूकता   में   वृद्धि   हुई   ओैर   नये   नारी   संगठनों   का   सूत्रपात   हुआ,   जिनकी   मुख्य   मांग   स्त्री   शिक्षा ,  दहेज ,  बाल   विवाह   जैसी   कुरीतियों   पर   रोक ,  नारी   अधिकार ,  नारी   शिक्षा   का   माँग   की   गई।

नारियों   के   पुनरुत्थान   का   काल   ब्रिटिश   काल   से   शुरू   होता   है।   ब्रिटिश   शासन   की   अवधि   में   हमारे   समाज   की   सामाजिक      आर्थिक   संरचनाओं   में   अनेक   परिवर्तन   किए   गए।   ब्रिटिश   शासन   के   200   वर्षों   की   अवधि   में   नारियों   के   जीवन   में   प्रत्यक्ष      अप्रत्यक्ष   अनेक   सुधार   आए।   औद्योगीकरण ,  शिक्षा   का   विस्तार ,  सामाजिक   आंदोलन      नारी   संगठनों   का   उदय      सामाजिक   विधानों   ने   नारियों   की   दशा   में   बड़ी   सीमा   तक   सुधार   की   ठोस   शुरूआत   की। स्वतंत्रता   प्राप्ति   के   पूर्व   तक   नारियों   की   निम्न   दशा   के   प्रमुख   कारण   अशिक्षा ,  आर्थिक   निर्भरता ,  धार्मिक   निषेध ,  जाति   बंधन ,  स्त्री   नेतृत्व   का   अभाव   तथा   पुरूषों   का   उनके   प्रति   अनुचित   दृष्टिकोण   आदि   थे।   मेटसन   ने   हिंदू   संस्कृति   में   नारियों   की   एकांतता   तथा   उनके   निम्न   स्तर   के   लिए   पांच   कारकों   को   उत्तरदायी   ठहराया   है ,  यह   है -    धर्म ,  जाति   व्यवस्था ,  संयुक्त   परिवार ,  इस्लामी   शासन   तथा   ब्रिटिश   उपनिवेशवाद।   हिंदूवाद   के   आदर्शों   के   अनुसार   पुरूष   नारियों   से   श्रेष्ठ   होते   हैं   और   नारियों      पुरूषों   को   भिन्न - भिन्न   भूमिकाएं   निभानी   चाहिए।   नारियों   से   माता      गृहिणी   की   भूमिकाओं   की   और   पुरूषों   से   राजनीतिक      आर्थिक   भूमिकाओं   की   आशा   की   जाती   है।

स्वतंत्रता   प्राप्ति   के   बाद   से   सरकार   द्वारा   नारियों की   आर्थिक ,  सामाजिक ,  शैक्षणिक   और   राजनीतिक   स्थिति   में   सुधार   लाने   तथा   उन्हें   विकास   की   मुख्य   धारा   में   समाहित   करने   हेतु   अनेक   कल्याणकारी   योजनाओं   और   विकासात्मक   कार्यक्रमों   का   संचालन   किया   गया   है।   नारियों   को   विकास   की   अखिल   धारा   में   प्रवाहित   करने ,  शिक्षा   के   समुचित   अवसर   उपलब्ध   कराकर   उन्हें   अपने   अधिकारों   और   दायित्वों   के   प्रति   सजग   करते   हुए   उनकी   सोच   में   मूलभूत   परिवर्तन   लाने ,  आर्थिक   गतिविधियों   में   उनकी   अभिरूचि   उत्पन्न   कर   उन्हें   आर्थिक - सामाजिक   दृष्टि   से   आत्मनिर्भरता   और   स्वावलंबन   की   ओर   अग्रसारित   करने   जैसे   अहम   उद्देश्यों   की   पूर्ति   हेतु   पिछले   कुछ   दशकों   में   विशेष   प्रयास   किए   गए   हैं। इक्कीसवीं   सदी   तक   आते - आते   नारियों   की   स्थिति   में   सुधार   हुआ   और   नारियों   ने   शैक्षिक ,  राजनीतिक   सामाजिक ,  आर्थिक ,  धार्मिक ,  प्रशासनिक ,  खेलकूद   आदि   विविध   क्षेत्रों   में   उपलब्धियों   के   नए   आयाम   तय   किए।   आज   नारीएँ   आत्मनिर्भर ,  स्वनिर्मित ,  आत्मविश्वासी   हैं ,  जिसने   पुरूष   प्रधान   चुनौतीपूर्ण   क्षेत्रों   में   भी   अपनी   योग्यता   प्रदर्शित   की   है।   वह   केवल   शिक्षिका ,  नर्स ,  स्त्री   रोग   की   डाक्टर      बनकर   इंजीनियर ,  पायलट ,  वैज्ञानिक ,  तकनीशियन ,  सेना ,  पत्रकारिता   जैसे   नए   क्षेत्रों   को   अपना   रही   है।   राजनीति   के   क्षेत्रों   में   नारियों   ने   नए   कीर्तिमान   स्थापित   किए   हैं।   देश   के   सर्वोच्च   राष्ट्रपति   पद   पर   श्रीमती   प्रतिभा   पाटिल ,  लोकसभा   स्पीकर   के   पद   पर   मीरा   कुमार ,  कांग्रेस   अध्यक्ष   सोनिया   गांधी ,  उत्तर   प्रदेश   की   मुख्यमंत्री   मायावती ,  वसुंधरा   राजे ,  सुषमा   स्वराज ,  जयललिता ,  ममता   बनर्जी ,  शीला   दीक्षित   आदि   नारीएँ   राजनीति   के   क्षेत्र   में   शीर्ष   पर  रही  हैं।   सामाजिक   क्षेत्र   में   भी   मेधा   पाटकर ,  श्रीमती   किरण   मजूमदार,  इलाभट्ट ,  सुधा   मूर्ति   आदि   नारीएँ   ख्यातिलब्ध   हैं।   खेल   जगत   में   पी . टी .  उषा ,  अंजू   बाबी   जार्ज ,  सुनीता   जैन ,  सानिया   मिर्जा ,  अंजू   चोपड़ा, कर्णम मल्लेश्वरी   आदि   ने   नए   कीर्तिमान   स्थापित   किए   हैं।   आई . पी . एस .  किरण   बेदी ,  अंतरिक्ष   यात्री   सुनीता   विलियम्स   आदि   ने   उच्च   शिक्षा   प्राप्त   करके   विविध   क्षेत्रों   में   अपने   बुद्धि   कौशल   का   परिचय   दिया   है। आज ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहां नारियों ने अपनी श्रेष्ठता साबित न की हो।

21   वीं   सदी   में नारी   स्वात्तता   में   अर्थशास्त्र   का   योगदान   अद्भुत   है।   आर्थिक   दृष्टि   से   नारी   अर्थचक्र   के   केंद्र   की   ओर   बढ़   रही   है।   फ़ौज, विज्ञापन, सिनेमा, पत्रकारिता, स्वनिर्मित स्वरोज़गार  की   दुनियां   में   नारियां   बहुत   आगे   हैं।   आज   की   नारी   राजनीति ,  कारोबार ,  कला   तथा   नौकरियों   में   नित्य   नए   आयाम   गढ़   रही   हैं।  भारत   के   अग्रणी   साफ्टवेयर   उद्योग   में   21   प्रतिशत   पेशेवर   नारीएं   हैं।  

यदि   आपको   विकास   करना   है   तो   नारियों   का   उत्थान   करना   होगा     नारियों   का   विकास   होने   पर   समाज   का   विकास   स्वतः   हो   जाएगा। - जवाहर   लाल   नेहरू नारियों   को   शिक्षा   देने   तथा   सामाजिक   कुरीतियों   को   दूर   करने   के   लिए   जो   सुधार   आंदोलन   प्रारंभ   हुआ,  उससे   समाज   में   एक   नई   जागरूकता   उत्पन्न   हुई   है।   बाल - विवाह ,  भ्रूण - हत्या   पर   सरकार   द्वारा   रोक   लगाने   का   अथक   प्रयास   हुआ   है ।   शैक्षणिक   गतिशीलता   से   पारिवारिक   जीवन   में   परिवर्तन   हुआ   है      गाीधीजी   ने   कहा   था-  एक   लड़की   की   शिक्षा   एक   लड़के   की   शिक्षा   की   उपेक्षा   अधिक   महत्वपूर्ण   है   क्यों   लड़के   को   शिक्षित   करने   पर   वह   अकेला   शिक्षित   होता   है   किन्तु   एक   लड़की   की   शिक्षा   से   पूरा   परिवार   शिक्षित   हो   जाता   है।   शिक्षा   ही   वह   कुंजी   है,   जो   जीवन   के   वह   सभी   द्वार   खोल   देती   है   जो   कि   आवश्यक   रूप   से   सामाजिक   है ।   शिक्षित   नारियों   को   राष्ट्रीय      अन्तर्राष्ट्रीय   स्तर   पर   सक्रिय   होने   में   बहुत   मदद   मिली      नारीएं   अपनी   स्थिति      अपने   अधिकारों   के   विषय   में   सचेत   होने   लगी हैं     शिक्षा   ने   उन्हें   आर्थिक ,  राजनैतिक      सामाजिक   न्याय   तथा   पुरूष   के   साथ   समानता   के   अधिकारों   की   माीग   करने   को   प्रेरित   किया  

संवैधानिक   अधिकारों   में   विभिन्न   कानूनों   के   द्वारा   नारियों   को   पुरूषों   के   समान   अधिकार   मिलने   से   उनकी   स्थिति   में   परिवर्तन   हुआ।   नारियों   की   विवाह   विच्छेद   परिवार   की   संपत्ति   में   पुरूषों   के   समान   अधिकार   दिए   गए      दहेज   पर   कानूनी   प्रतिबंध   लगा   तथा   उन   व्यक्तियों   के   लिये   कठोर   दंड   की   व्यवस्था   की   गई,   जो   दहेज   की   मांग   को   लेकर   नारियों   का   उत्पीड़न   करते   हैं।   संयुक्त   परिवारों   के   विघटन   होने   से   जैसे - जैसे   एकाकी   परिवार   की   संख्या   बढ़ी है,   इनमें      केवल   नारियों   को   सम्मानित   स्थान   मिलने   लगा,   बल्कि   लड़कियों   की   शिक्षा   को   भी   एक   प्रमुख   आवश्यकता   के   रूप   में   देखा   जाने   लगा । 

नारी   शिक्षा   समाज   का   आधार   है      समाज   द्वारा   पुरूष   को   शिक्षित   करने   का   लाभ   केवल   मात्र   पुरूष   को   होता   है   जबकि   नारी   शिक्षा   का   स्पष्ट   लाभ   परिवार ,  समाज   एवं   सम्पूर्ण   राष्ट्र   को   होता   है     नारी   शिक्षा   एवं   संस्कृति   को   सभी   क्षेत्रों   में   पर्याप्त   समर्थन   मिला।   यद्यपि   कुछ   समय   तक   नारी   शिक्षा   के   समर्थक   कम थे,  किंतु   आज   समय   एवं   परिस्थितियों   ने   नारी   शिक्षा   को   अनिवार्य   बना   दिया   है  

वस्तुतः   इक्कीसवीं   सदी   नारी   सदी   है।   वर्ष   2001   नारी   सशक्तिकरण   वर्ष   के   रूप   में   मनाया   गया।   इसमें   नारियों   की   क्षमताओं   और   कौशल   का   विकास   करके   उन्हें   अधिक   सशक्त   बनाने   तथा   समग्र   समाज   को   नारियों   की   स्थिति   और   भूमिका   के   संबंध   में   जागरूक   बनाने   के   प्रयास   किये   गए।   इसमें   आर्थिक   सामाजिक ,  सांस्कृतिक   सभी   क्षेत्रों   में   पुरूषों   के   साथ   समान   आधार   पर   नारियों   द्वारा   समस्त   मानवाधिकारों   तथा   मौलिक   स्वतंत्रताओं   का   सैद्धान्तिक   तथा   वस्तुतः   उपभोग   पर   तथा   इन   क्षेत्रों   में   नारियों   की   भागीदारी      निर्णय   स्तर   तक   समान   पहुँच   पर   बल   दिया   गया   है।

आज   देखने   में   आया   है   कि   नारियों   ने   स्वयं   के   अनुभव   के   आधार   पर ,  अपनी   मेहनत   और   आत्मविश्वास   के   आधार   पर   अपने   लिए   नई   मंजिलें ,  नये   रास्तों   का   निर्माण   किया   है। 

नारियों   की   स्थिति   में   सुधार   ने   देश   के   आर्थिक   और   सामाजिक   सुधार   के   मायने   भी   बदल   कर   रख   दिए   हैं।   दूसरे   विकासशील   देशों   की   तुलना   में   हमारे   देश   में   नारियों   की   स्थिति   काफी   बेहतर   है।   यद्यपि   हम   यह   तो   नहीं   कह   सकते   कि   नारियों   के   हालात   पूरी   तरह   बदल   गए   है   पर   पहले   की   तुलना   में   इस   क्षेत्र   में   बहुत   तरक्की   हुई   है।   आज   के   इस   प्रतिस्पर्धात्मक   युग   में   नारियां   अपने   अधिकारों   के   प्रति   पहले   से   अधिक   सचेत   है।   नारियां   अब   अपनी   पेशेवर   ज़िंदगी  ( सामाजिक ,  राजनीतिक,  आर्थिक )  को   लेकर   बहुत   अधिक   जागरूक   हैं,   जिससे   वे   अपने   परिवार   तथा  दिनचर्या   से   संबंधित   खर्चों   का   निर्वाह   आसानी   से   कर   सकें।

वर्तमान   समय   में   भारतीय   सरकार   द्वारा   नारियों   के   उत्थान   के   लिए   अनेक   कार्यक्रम   एवं   योजनाओं   का   संचालन   तो   की   जा   रहीं   हैं ।   वर्तमान   समय   में   नारियों   की   स्थिति   में   काफी   बदलाव   आए   हैं।   इस  संदर्भ   में   युगनायक   एवं   राष्ट्रनिर्माता   स्वामी   विवेकानंद   का   यह   कथन   उल्लेखनीय   है -  '' किसी   भी   राष्ट्र   की   प्रगति   का   सर्वोत्तम   थर्मामीटर   है ,  वहाँ   की   नारियों   की   स्थिति।   हमें   नारियों   को   ऐसी   स्थिति   में   पहुँचा   देना   चाहिए ,  जहाँ   वे   अपनी   समस्याओं   को   अपने   ढंग   से   स्वयं   सुलझा   सकें।   हमें   नारीशक्ति   के   उद्धारक   नहीं ,  वरन्   उनके   सेवक   और   सहायक   बनना   चाहिए।   भारतीय   नारियाँ   संसार   की   अन्य   किन्हीं   भी   नारियों   की   भाँति   अपनी   समस्याओं   को   सुलझाने   की   क्षमता   रखती   हैं।   आवश्यकता   है   उन्हें   उपयुक्त   अवसर   देने   की।   इसी   आधार   पर   भारत   के   उज्ज्वल   भविष्य   की   संभावनाएँ   सन्निहित   हैं। ''

मीता गुप्ता

No comments:

Post a Comment

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...