महिलाओं के लिए आज़ादी के असल
मायने
जिनके पंखों को कतरा है, आम रिवाज़ों ने
आज़ादी की कीमत, उन लफ़्ज़ों से पूछो
जो ज़ब्तशुदा साबित हैं सब आवाज़ों में
आज़ादी की क़ीमत, उन ज़हनों से पूछो
जिनको कुचला मसला है, महज़ गुलामी के लिए,
आज़ादी की क़ीमत, उस धड़कन से पूछो॥
आज़ादी, स्वतंत्रता, फ्रीडम...कानों
में इन शब्दों के पड़ते ही एक सुखद, प्यारा-सा
अहसास मन को हर्षाने लगता है। ये शब्द उस अनुभूति को परिलक्षित करते हैं जो संसार
के हर इंसान को प्यारी है। क्या है यह आज़ादी, क्यों
है यह इतनी प्रिय हर किसी को? और
आज़ादी में भी अगर हम ख़ास तौर औरतों की आज़ादी की बात करें, तो क्या इसके मायने बदल जाते हैं? आज़ादी अपने-आप में एक संपूर्णता लिए हुए है, तो फिर स्त्रियों की आज़ादी की बात कहां से
निकलकर आई? क्या है स्त्रियों की आज़ादी? क्या ज़रूरी है स्त्रियों की आज़ादी? और है तो, कितनी
ज़रूरी है यह आज़ादी?
उन्मुक्त आकाश
में किसी आज़ाद परिंदे की परवाज़ देखिए... उससे पूछिए आज़ादी के मायने। या पिंजरे
में बंद पंछी से मिलिए, उसके पंखों का संकुचन देखिए... और उससे
पूछिए आज़ादी के मायने। स्वतंत्रता का अर्थ, इसकी
परिभाषा सबके लिए समान नहीं है। हर इंसान के लिए स्वतंत्रता की विवेचना अलग है, उसकी प्राथमिकताएं अलग हैं। एक बच्चे के लिए
आज़ादी का मतलब दिन भर खेलना-कूदना है, किसी
युवा के लिए जीवन का हर फ़ैसला ख़ुद लेना आज़ादी हो सकता है तो प्रौढ़ के लिए
आत्मनिर्भर बने रहना आज़ादी है।
उठो, जागो और समझो
ओ स्त्री ..........स्वाभिमानी बन कर जीना सीखो
अपनी सोच को अब तुम बदलो
स्वयं को इतना सक्षम कर लो
जो भी कहो, वो इतना विश्वस्त हो
हर दृष्टि में तुम्हारे लिए आदर हो
तुम्हारी उत्कृष्ट सोच तुम्हारी पहचान का परिचायक हो
जिस दिन स्त्री स्वयं के निर्णय को सक्षम पाएगी
वही पूर्ण रूप में स्त्री मुक्ति कहलाएगी
और बिना किसी दबाव के अपने निर्णय पर
अटल रह पाएगी
तभी उसकी मुक्ति वास्तव में मुक्ति कहलाएगी।
इसी तरह पुरुष
और स्त्री के लिए भी स्वतंत्रता के अर्थ भिन्न भिन्न हैं। अर्थों में यह अंतर किसी
व्यक्ति विशेष सोच, हालात और परवरिश के आधार पर तो है ही, कुदरती तौर पर भी है। हमारे हॉरमोन्स यह तय
करते हैं कि हम क्या सोचते हैं, किस
स्थिति में कैसे रिएक्ट करते हैं। महिलाओं के विशिष्ट हॉरमोन्स उन्हें भावुक बनाते
हैं और यह भावुकता उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी, क्रियाकलापों
और फ़ैसलों में साफ़ झलकती है। वहीं पुरुष-विशेष हॉरमोन उन्हें ज़्यादा व्यावहारिक
तथा भावनात्मक रूप से कड़ा बनाते हैं और उन्हें अपने फ़ैसलों के हर असर को तार्किक
ढंग से झेलने में ज़्यादा सक्षम बनाते हैं। तो क्या दोनों के बीच यह प्राकृतिक भेद
ही उनकी स्वतंत्रता की सीमाएं तय करता रहा है? क्या
चिर-पुरातन समय से चला आ रहा यह विभेद असल में परिवारों के सहज अस्तित्व को और
महिलाओं को भावनात्मक ठेस से बचाए रखने के लिए था, जो कालांतर में पुरुषों की वर्चस्ववादी मानसिकता के चलते भौंडी शक़्ल
अख़्तियार करता गया और महिलाओं के लिए पिंजरे में बंद पंछी के जैसी छटपटाहट का सबब
बनता गया? क्या यह फर्क़ धीरे-धीरे महिलाओं को
दोयम दर्जे का समझकर उनकी उपेक्षा का आधार बनता चला गया?
कह सकोगे कि आज़ाद हैं हम ??
यदि अब भी अपनी सोच ना बदली,
तो लड़का पैदा करने से भी कतराओगे तुम ।
पाल पोस कर उसे बड़ा तो कर लोगे,
पर शादी के लिए लड़की कहां से लाओगे तुम ?
फिर गर्व से सीना चौड़ा करके,
कैसे कह पाओगे कि आज़ाद हैं हम ??
इसलिए फिर से कहती हूं,
नज़रिया खराब है, नज़र नहीं ।
जो नज़रें खराब हो गई,
तो फिर बड़ा पछताओगे तुम ।
फिर गर्व से सीना चौड़ा करके,
कभी ना कह पाओगे कि आज़ाद हैं हम ।
आइए झारखंड के
उदाहरण से बात की शुरुआत करते हैं । यहाँ गांव की महिलाओं, जिन्हें स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद अबला माना
गया, वे अब सबला बन कर सामने आ रही हैं। शहर
की तुलना में गांव की महिलाएं अपेक्षाकृत ज़्यादा संख्या में व्यवस्था की कमान
संभाल रही है। स्वयं सहायता समूह से जुड़कर एक ओर वे अपने परिवार की ‘आजीविका’ को
सशक्त बना रही हैं, वहीं ग्राम संगठन से जुड़कर सामुदायिक
विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं। ये महिलाएँ दिखती तो साधारण हैं, लेकिन धारा के विपरीत तैरने की अपनी अदम्य
इच्छाशक्ति के कारण सचमुच असाधारण हैं। ये वो महिलाएं हैं जिन्होंने अपने दम पर
अपने ख्वाबों को पूरा किया और अब अपने गांव के विकास और राज्य से गरीबी खत्म करने
के लिए प्रयासरत है। ये वो महिलाएं हैं जिन्होंने तमाम प्रतिरोधों और बाधाओं के बावजूद, अपने संघर्ष पथ पर चलना निरंतर जारी रखा। इन्होंने न सिर्फ़ खुद को एक सशक्त
मुकाम दिया बल्कि आज वे दूसरी गरीब, शोषित
और अभावों से ग्रस्त महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए भी काम कर रही हैं और उनकी
प्रेरणा स्रोत बनी हुई हैं। अपने संगठन के माध्यम से ये महिलाएं आज झारखंड
के ग्रामीण इलाकों के विकास की नई रेखा खींच रही है। ग्रामीण महिलाओं के लिए आज़ादी
के कई मायने है। आज़ादी पर्दा प्रथा से! छुटकारा बाल विवाह से! मुक्ति बाल एवं
महिला तस्करी से! आज़ादी डायन प्रथा से! नशाखोरी से!!अशिक्षा से !!! ग्रामीण
महिलाओं के आज़ादी के प्राथमिक मायने यही है!
आज़ादी को अपना
ब्रांड मंत्र मानने वाली ये ग्रामीण महिलाएं आज विकास दूत की तरह गांव की तरक्की
के लिए काम कर रही हैं ।गांव के विकास के पथ को महिला शक्ति से मजबूत कर रही इन
हजारों महिलाओं की टोली के लिए आज़ादी के असल मायने है विकसित गांव, खुशहाल समाज, समृद्ध महिला,
समृद्ध किसान ……इसी कड़ी में एक और
दरवाज़ा है-आत्म निर्भरता यानी आर्थिक आत्म निर्भरता का। महिलाओं को बचपन से सिखाया जाता है कि
खाना बनाना ज़रुरी है। जरुरत है कि सिखाया जाए कि कमाना भी ज़रुरी है। आर्थिक रूप
से सक्षम होना भी ज़रुरी है। परिवार के लिए नहीं, वरन अपने लिए। पैसे से खुशियाँ नहीं आती, पर बहुत कुछ आता है, जो साथ खुशियाँ लाता है। अगर शिक्षा में कुछ अंश जोड़े जाएँ, जो उन्हें किताबी ज्ञान के साथ व्यावहारिक
ज्ञान भी दे। उनके कौशल को धार दे । उन्हें इस लायक बनाए कि वे अपना खर्च तो वहन
कर ही सकें। तभी शिक्षा के मायने सार्थक होंगे। ऐसे मायने,जो उन्हें आर्थिक रूप से समर्थ और
सक्षम बनाएं।
ये एक सोच है।
ज़रुरत है इस सोच को आगे बढ़ाने की। उनके कौशल को उनकी जीवन-रेखा बनाने की। ताकि
समय आने पर वे व्यवसाय कर सकें, अपना
परिवार चला सकें, यह सोच उन्हें गति देगी, दिशा देगी, आत्माभिमान
देगी, आत्मविश्वास देगी । वे दबेगी नहीं।
डरेगी नहीं। ये एक खुशहाल भविष्य की कामना है। इस पर अमल करें और अभी से करें।
महिलाओं के बदले हुए रूप को अगर आज़ादी का नाम
दिया जा रहा है तो इसके भी कुछ अपने ही तर्क हैं। इनमें सबसे पहले आती है महिलाओं
की विकसित होती तर्क-क्षमता। यानी वैचारिक आज़ादी का विकास ।
उठो तुम नारी
युग निर्माण तुम्हें करना है
आज़ादी की खुदी नींव में
तुम्हें प्रगति पत्थर भरना है
दुर्गा हो तुम
लक्ष्मी हो तुम
सरस्वती हो सीता हो तुम
सत्य मार्ग
दिखलाने वाली
रामायण हो गीता हो तुम
रूढ़ि विवशताओं के बन्धन
तोड़ तुम्हें आगे बढ़ना है
उठो तुम नारी
युग निर्माण तुम्हें करना है।
आज सबसे बड़ी
आवश्यकता है महिलाओं के निर्णय का सम्मान करने की, उन्हें निर्णय लेने की आज़ादी देने की, उनके निर्णय को मानने की.जब महिला शिक्षित और आर्थिक रूप से स्वावलंबी
हो सिर्फ़ तभी उसे निर्णय लेने का अधिकार हो ऐसा नहीं होना चाहिए.वरन गृहणियों को
भी उनके जीवन के निर्णय लेने की पूरी आज़ादी होनी चाहिए। साथ ही परिवार के मुख्य
निर्णयों में भी उनकी सक्रिय भूमिका होनी चाहिए।
एक महिला पूरी
तरह आज़ाद तभी मानी जाएगी,
जब उसे अपनी इच्छाओं को पूरा करने के
लिए सार्वजनिक एवं सहज अनुमति हो। परिवार की देखभाल महत्वपूर्ण है, इस तथ्य से न तो इनकार किया जा सकता है, न ही इसकी अवहेलना की जा सकती है. लेकिन परिवार
की देखभाल की ज़िम्मेदारी परिवार के सभी सदस्यों की बराबर होनी चाहिए। योग्यता और
क्षमता के अनुसार कार्य का निर्वाह किया जाना चाहिए। परिवार के सभी सदस्य मिलजुल
कर परिवार के कर्तव्यों का निर्वाह करें, ऐसी
धारणा समाज में विकसित होनी चाहिए।जिस दिन यह सोच हमारे समाज में परिलक्षित होगी
वह महिलाओं की आज़ादी का पहला और सबसे बड़ा कदम होगा।
अगर हमने आज़ादी के सही मायने ना ढूंढे, तो जहाँ हमारी महिलाओं की आबादी का बड़ा हिस्सा
कभी खुद के कमाए पैसों की गर्मी महसूस नहीं कर पाएगा ।दुनिया को तथाकथित आज़ाद
स्त्री की जितनी ज़रूरत हैं उससे ज़्यादा ज़रूरत है, एक सशक्त इंसान की। सच ही कहा गया है-
ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम उठो,
तुम उठो, तुम उठो
तुम उठो, उठो कि उठ पड़ें असंख्य हाथ
चल पड़ो कि चल पड़ें असंख्य पैर साथ
मुस्करा उठे क्षितिज पे भोर की किरन
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम रचो,
तुम रचो, तुम रचो
तुम रचो हवा, पहाड़, रौशनी नई
ज़िंदगी नयी, महान आत्मा नई
सांस-सांस भर उठे अमिट सुगंधम से
और फिर,
प्यार के गीत गा उठें सभी
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
उड़ चलें असीम आसमान चीरते।
अंत में.....यही है मेरी दृष्टि में महिलाओं के लिए आज़ादी के असल
मायने.....
जय हिंद ! जय भारत !
मीता गुप्ता
No comments:
Post a Comment