Friday, 22 April 2022

चिर परिचित संगिनी हूँ

 

 

चिर परिचित संगिनी हूँ




 यात्रा पर जाने की सारी तैयारी कर चुकी थी । सामान उठाकर मुख्य द्वार तक जाने ही वाली थी कि घर के कोने से एक आवाज़ आयी,“चिर परिचित संगिनी हूँ, मुझे भी साथ ले लो”.कदम यंत्रवत से उस कोने की ओर मुड गए, जहां अनुभव का अथाह सागर, ज्ञान, मनोरंजन, अध्यात्म, संस्कृति, सभ्यता,आचार-विचार आदि कई लहरों को समेटे मुझे पुकार रहा था। जी हाँ, यह मेरी पुस्तकों की दुनिया है । मैंने आलमारी खोल एक पुस्तक को बैग में रख लिया । चार पंक्तियाँ यूँ ही गुनगुना गई………………………………………….

टी.वी.कंप्यूटर के युग में क्यों बिसराएँ

गुज़रते वक्त की हर आवाज़ इनमें सुनें

हर पल कौन हमारे साथ चल सकता है ?

इसलिए बेहतर है कि हम पुस्तक को चुनें !

सच है मनुष्य ज़िन्दगी भर सीखता है और इस प्रक्रिया में पुस्तकें अहम् भूमिका निभाती हैं । पुस्तकों की परम्परा अत्यंत प्राचीन है । सबसे पहली पुस्तक वेद थे । वेद ‘विद’ धातु से उद्धृत है जिसका अर्थ ही है ‘ज्ञान’ ऋग्वेद में उल्लिखित गायत्री मंत्र आज भी घर-घर में उच्चारित होते हैं, उपनिषद में से ही हमारे राष्ट्रीय प्रतीक का पवित्र वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ लिया गया । पहले विद्यार्थी गुरुओं से सुन कर ही पाठ याद कर लेते थे जिसे ‘श्रुति’ कहा जाता था पर ज्ञान के इस अथाह सागर को याद रखना और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी संवाहित करने की आवश्यकता ने पुस्तकों को जन्म दिया । पुस्तकें मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र होती हैं । बड़े-बड़े विद्वान,महापुरुष अच्छे पाठक भी रहे हैं  । कहा जाता है कि बादशाह अकबर महान, साक्षर नहीं था पर उसे पुस्तकों का बहुत शौक था उसने एक विशाल पुस्कालय बनवाया और विद्वानों से पुस्तकें पढ़वा कर ज्ञान अर्जित करता था।

आज इस कंप्यूटर, टी.वी के युग में पुस्तकों के पाठक ज़्यादा नहीं हैं ये कहना पूर्णतः सही नहीं है क्योंकि आज भी पढ़ने के शौक़ीन लोगों के घरों को पुस्तकों से सजा देखा जा सकता है । पढ़ने की आदत अगर बचपन से ही विकसित की जाए तो यह उम्र भर साथ रहती है । इसके लिए सही उम्र में अच्छी पुस्तकों का चयन आवश्यक है । इससे बच्चों में ज्ञान वृद्धि के साथ कल्पनाशीलता , रचनात्मकता ,बौद्धिक क्षमता, भाषा ज्ञान ,शब्द भंडार वृद्धि, वर्तनी की शुद्धता, एकाग्रता, धैर्य जैसे कई गुणों का विकास होता है । वैज्ञानिक शोधों से यह स्पष्ट हो गया है कि जिन बच्चों में पुस्तकें पढ़ने की आदत है उनका I .Q . उन बच्चों से अधिक होता है जो अपना समय टी.वी.या वीडियो गेम खेलने में व्यतीत करते हैं । किशोरावस्था में अच्छी पुस्तकें पढ़ने से मार्गदर्शन मिलता है और भविष्य की योजना बनाना आसान हो जाता है । एक उक्ति है ‘एक अच्छी पुस्तक वह है जो आशा के साथ खोली जाए और विश्वास के साथ बंद की जाए”.

               पुस्तकें यात्रा के दौरान, प्रतीक्षारत वक्त में , ऊब के क्षणों में , शौक के रूप में, कई लम्हों में साथी बन जाती हैं । नयी-नयी सभ्यता और विभिन्न संस्कृति से हमारा परिचय कराती हैं, एकरसता और बोझिलता दूर करती हैं, हमारे आत्मिक, सामाजिक, मानसिक विकास में सहायक होती हैं, मस्तिष्क को सोचने की नयी दिशा देती हैं

पुस्तक की सदा उसकी ज़ुबां में ……………………

मैं विश्व की हर आवाज़ को शब्दों की स्याही में डुबोती हूँ.

दिल को छूती, ज्ञान से भरपूर कई विधाओं को संजोती हूँ

मैं पुस्तक हूँ, तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

शैशव, युवावस्था, प्रौढ़ जीवन के विविध रंग उकेरती हूँ

हर तबके, हर संस्कृति, सभ्यता के अनुभव को समेटती हूँ

मैं पुस्तक हूँ, तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

मानव, पशु-पक्षी, पर्वत नदियों संग अठखेलियाँ करती हूँ

मुखौटे लगे चेहरों की भी शराफत बन रंगरेलियां रचती हूँ

मैं पुस्तक हूँ, तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

उत्थान पतन की लहरें,ऐतिहासिक स्मृति से उठाती गिराती हूँ

गीले रेत पर पड़े अपने ही निशाँ बनाती और फिर मिटाती हूँ

मैं पुस्तक हूँ, तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

आज की, कल की, हर पल की गाथा बन जुबां में सजती हूँ

सार्वभौमिक सत्य, वैज्ञानिक रहस्य का हर लम्हा बुनती हूँ

मैं पुस्तक हूँ, तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

गंगोत्री से निकली यात्रा को, मैं ही गंगासागर ले चलती हूँ

राजा रानी के किस्सों में समा बच्चों के सपनों में पलती हूँ

मैं पुस्तक हूँ, तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

कभी सौंदर्य कुदरत का, कभी ज्ञान के सागर में डुबोती हूँ

शब्दों के बादल पर बिठा, भावों की बारिश से भी भिगोती हूँ

मैं पुस्तक हूँ, तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

कभी हंसाती ,कभी रुलाती, कभी संजीदा, विचारमग्न करती हूँ

मस्तिष्क के बंद पट को, चुपके-चुपके अहिस्ता से खोलती हूँ

मैं पुस्तक हूँ, तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

भूल जाना ना मुझे कभी, दुःख सुख हर लम्हे में साथ देती हूँ

जहां कोई नहीं तुम्हारा, सिवा तन्हाई के,अपना हाथ देती हूँ

मैं पुस्तक हूँ, तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

इस कंप्यूटर युग में तो जैसे, बनती जा रही मैं डूबती कश्ती हूँ

फट जाऊं, गल जाऊं फिर भी, रहूँ स्मृति में, एक ऐसी हस्ती हूँ

मैं पुस्तक हूँ, तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

कहा गया है कि ‘पुस्तकें इनसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं।’ साथ ही ये ज्ञान का खजाना होती हैं, दिमाग का खाद्य होती हैं। एक विचारक ने तो यहां तक कहा है कि  ‘अन्य चीजें बल से छीनी या धन से खरीदी जा सकती हैं मगर ज्ञान सिर्फ अध्ययन से ही प्राप्त किया जा सकता है।" कुछ मां-बाप पढ़ाई के  नाम पर सिर्फ पाठ्य पुस्तकों को ही महत्व देते हैं और अन्य पुस्तकों, पत्रिकाओं या दैनिक समाचार पत्र आदि यदि बच्चे  पढ़ें तो उन्हें रोकते हैं । मगर सच यह है कि ऐसा करके वे बच्चे के विकास की गति को ही अवरुद्ध  करते हैं। बच्चा तो कच्ची मिट्टी के घड़े के सामान है उसे जो रूप हम देंगे वह उसी में  ढल जायेगा।

 पठन-पाठन के कुछ लाभ निम्न प्रकार हैं :

·       पुस्तकों से ज्ञान बढ़ता है : पुस्तकें ज्ञान का भंडार होती हैं । अच्छी व ज्ञानवर्धक पुस्तकें पीढिय़ों से संचित ज्ञान एवं अनुभव को अगली पीढिय़ों तक पहुंचाती हैं। ज्ञान बांटने से बढ़ता है, बच्चे पुस्तक में जो पढ़ते हैं उसे अपने अन्य साथियों के साथ बांटते हैं, जिससे ज्ञान का आदान-प्रदान होकर उनके ज्ञान कोष में वृद्धि होती है। पुस्तकें जिज्ञासा को बढ़ाती भी हैं और उसे शांत भी करती हैं।

·       विचार क्षमता बढ़ती है : जो कुछ पढ़ा जाता है उस पर चिंतन-मनन स्वाभाविक प्रक्रिया है तथा इससे मस्तिष्क की वैचारिक क्षमता में वृद्धि होती है। कहा भी गया है कि विचारों से ही मनुष्य के जीवन की राह बनती है। बच्चा किस दिशा में बढ़ रहा है यह उसके विचारों से ही संचालित होता है।

·       तर्क क्षमता बढ़ती है । बच्चे पढ़ते हैं तो उस विषय पर अपने साथियों के साथ या अपने बड़ों के साथ विचार-विनिमय करते हैं, जिससे उनकी तर्क क्षमता का विकास होता है।

·       आत्मविश्वास बढ़ता है : कहा जाता है कि पंखों की उड़ान से भी बढ़कर हौसलों की उड़ान होती है। अच्छी किताबें बच्चों में आत्मविश्वास जगाती हैं, उनका हौसला बढ़ाती हैं।

·       अकेलापन अनुभव नहीं होता : पुस्तकों को सबसे अच्छी मित्र माना गया है। आज जब परिवार छोटे-छोटे होने लगे हैं अकेलेपन का संकट बचपन से ही झेलना पड़ रहा है। ऐसे में अच्छी पुस्तकों से बढिय़ा साथी कोई नहीं मिल सकता। अत: अपने बच्चों को पुस्तकों से दोस्ती करने की आदत डालिये।

·       सही मार्गदर्शन मिलता है : पुस्तकों में असीमित शक्ति छिपी होती है जो प्रेरणा एवं मार्गदर्शन दोनों देती हैं। यही कारण है कि आम भारतीय घरों में भी रामायण, गीता आदि ग्रंथों का नित पाठ करने की परंपरा है। धार्मिक उत्सवों पर भी पाठ रखे जाते हैं। इनका अभिप्राय: यही है कि सद् शिक्षाओं को ग्रहण कर अच्छे रास्ते पर चलकर सच्चे इनसान बना जाए । महापुरुषों की जीवनियां बच्चों के लिए प्रेरणा स्रोत बनती हैं। बच्चे अत्यधिक टीवी देखने एवं कंप्यूटर प्रयोग से होने वाली हानियों से बच जाते हैं।

·       अभिरुचियों का विकास होता है : हर बच्चे की प्रकृति अलग-अलग होती है जब बच्चा किताबें पढ़ता है तो उसके पात्र विभिन्न प्रकार की रुचियों के स्वामी होते हैं। बच्चे उनसे प्रभावित होकर अपने भीतर छिपी प्रतिभा को बाहर लाने में सहज रूप से सफल होते हैं, जिससे उनके कौशल  उन्नयन में माता-पिता को भी सहायता मिलती है।

·       सस्ता साधन है : पुस्तकें मनोरंजन और ज्ञानवर्धन का सस्ता एवं सहज सुलभ साधन हैं। अपने आस-पास स्थित पुस्तकालय के सदस्य बनकर नि:शुल्क या नाममात्र शुल्क पर पुस्तकें पढऩे के लिए प्राप्त की जा सकती हैं।

अनुशासन आता है : किताबें पढ़ते हुए एकाग्रता बढ़ती है, जिससे शोर एवं उछल-कूद जैसी शरारतों से बचकर बच्चा अनुशासन में ढलता  चला जाता है। हम जानते हैं कि अनुशासन सफलता की प्रथम सीढ़ी है।

सफदर हाशमी ने कहा है :

किताबें करती हैं बातें

बीते जमाने की, दुनिया की, इंसानों की

आज की, कल की, एक-एक पल की

खुशियों की, गमों की, फूलों की, बमों की

जीत की, हार की, प्यार की, मार की,

क्या तुम नहीं सुनोगे इन किताबों की बातें?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

अभिप्राय: यही है कि अपने बच्चों को अच्छी पुस्तकों से मिलवाकर उन्हें जीवन में कुछ बनने को प्रेरित किया जा सकता है। महात्मा गांधी हों या अब्राहम लिंकन जिस रूप में हम उन्हें याद करते हैं इसमें अच्छी पुस्तकों का योगदान सर्वाधिक है।

मीता गुप्ता

'आज' 23.04.2023

 

 

 

 

Wednesday, 20 April 2022

मांगी तपिश, तो ठंडक कैसे मिले?

 

मांगी तपिश, तो ठंडक कैसे मिले?



 रेत उड़ाते घूम रहे हैं हम,

पत्तों पर खड़े होकर शाखें काट रहे हैं हम,

रेगिस्तान की तैयारी है,

और अब सपनों में बागों को देख रहे हैं हम॥

गौर कीजिएगा ज़्यादा पुरानी यादें नहीं है ये......

 पेड़ों के पीछे छुपना...डालियों की मज़बूती का जायज़ा लेते हुए पेड़ों पर चढ़ जाना...लंबे मैदानों में भी बेखौफ दौड़ना...मुर्गियों के पीछे भागना...राह चलते मवेशियों के झुंड को हाथों से खेलते हुए उनके बीच में से निकल जाना... नदी के घाटों से पानी में छलांग लगाना...किसी छोटे तालाब पर पानी की सतह के नीचे पत्थर को यूं चलाने की होड़ लगाना कि छपाकों के अंतराल बनें...नहर की पुलिया पर बैठकर घंटों बिताना...अमराई और अमरूद के बगीचों में खेलना..अंगूर की बेल के तले खड़े होकर कच्चे अंगूरों के गुच्छोंके लिए ललचाना...नदी किनारे से ककड़ी लेकर नदी के पानी में धोकर खाना...सड़क किनारे के खेतों से हरे चने तोड़कर खाना...खेत से गन्ने लेकर चूसते हुए घूमना... रहट की आवाज़ें पहचानना...अहाते और आंगन का फ़र्क समझना...पेड़ों के नीचे बने चबूतरो पर वृक्ष-से बुजुर्गों के साए में बैठना...बारिश में बजते रास्तों को सुनना...बौछारों की आहट से पानी की तेज़ी का बिन देखे अंदाज़ लगाना... टपरे, फूस, छत और गली पर गिरते पानी की आवाजों के अंतर को समझना......।

 याद है ना?

कुछ बचा है अब?

हमें यह सब मिला था।

लेकिन हमने इसे चाहा नहीं।

हमारी पुरज़ोर ख्वाहिशों की तामीर को पूरी कायनात की साजिश की ताकत हासिल है। यह केवल खूबसूरत, दिलफ़रेब जुमला नहीं है। सोलह आने सच है। यकीन करने के लिए हमारी आबोहवा, हमारी जिंदगियों के मौजूदा खस्त- बेदम हालात इस की निशानी देने के लिए काफ़ी हैं।

हमने चाहे चौड़े तेज़तर्रार रास्ते...हमेशा ही जल्दी से गंतव्य तक पहुंचा देने वाली गाड़ियां...हमने चाहे ऊंचे मकान... सो मिले ना। चौड़े रास्ते पेड़ खा गए...खेत निगल गए...तो अब छांह की चाहत क्यों?...इनकी तलाश क्यों? और शिकायत भी क्यों?

चार-चार सड़कों यानी फोरलेन पर दौड़ती तेज़ गाड़ियां हैं। जल्दी थी हमें, तो तेज़ रास्ते उस इच्छा को पूरा कर रहे हैं... अब राह के सुकून की तलाश क्यों?

शहर सिमट गए...गांव मिटने लगे... सड़कों के किनारे ठहरने के ठौरों के बीच जो मीठे पानी के ठंडे सोते खोए, तो दुख क्यों है? पहाड़ काटकर...नदियां बांधकर अपने आप को बसा लिया है हमने। कमजोर हो चुके पहाड़ों के हिस्से भारी बारिश नहीं सह पाते, गिरने लगते हैं, तो तकलीफ क्यों? लैंडस्लाइड से इतनी शिकायत क्यों? खुद-ब-खुद थोड़े ही अपनी जड़े हिला लीं उन्होंने? इसमें हमने भी तो काम किया है...।

बारिश तो धरा के लिए आती है...शहरों में उसके और धरती के बीच सीमेंट के अवरोध हैं। हमें पानी चाहिए था तो बारिश का रास्ता क्यों नहीं साफ रखा? बादल तो पेड़ों पर चलकर आते हैं...उन्हें बुलाना था, तो पेड़ क्यों नहीं मांगे? महामार्ग..महातीव्र...महाव्यस्त और महागर्म है। यहां तो पानी भी रुकना नहीं चाहता। छांह काटकर ठंडक की बाट क्यों जोह रहे हैं हम?

इतनी विविधता वाले हमारे देश में अनाज की किस्में खो रही हैं...भोजन की थाली विदेशी लगने लगी है...जानवर खतरे में हैं...पेड़-पौधे सिमटे जा रहे हैं। बढ़ रहा है, तो केवल इंसानों का आंकड़ा।

आसमान के पार...धरती के तल में...हवाओं के परों पर...केवल कविताएं घर बनाती हैं, इंसान नहीं।

 पृथ्वी का जो हाल है, वह किसी और ग्रह के प्राणियों की कारस्तानी नहीं है। मुंह छुपा कर धूप से बच सकते हैं,सच से नहीं। सीधी सी बात है प्राकृतिक जीवन शैली ही उत्तम है, जो धरा ने दिया, उसे फिर उपयोग के लिए लौटा दिया जाए। यही सही क्रम है। कम से कम ऊर्जा खर्च करके गुजर बसर करें, तो प्रकृति पर बोझ कम होगा। अपने ग्रह को उसकी प्राकृतिक सेहत लौटएंउसके लिए दुआएं करें...उसके लिए काम करें।

जो चाह बूंदों की हो,

तो पेड़ों की डाली पहले तैयार करें,

फिर बादलों को न्योता भेजें॥

 जो यह मांगा तो यह मिलेगा...जो यह मिल गया, तो फिर सारे सुख सुकून मिल जाएंगे...जो अब हमारी सुनहरी यादों का हिस्सा बनने लगे हैं।

 सबसे अहम बात हमारा घर...यह धरती...हमारा ग्रह बच जाएगा आने वाली पीढ़ियों के सुख भरे बात के लिए।

आइए, ठंडक ढूंढने का प्रयास करने के लिए कुछ करें-

स्वच्छता बढ़ाएं, कचरे को उसके स्रोत पर निपटाएं- स्वच्छता का मतलब सिर्फ शौचालय नहीं होता। स्वच्छता का मतलब होता है, कचरा उत्पन्न होने की मात्रा शून्य पर आकर टिक जाए। इसके लिए उपभोग घटाएं, हर चीज का अधिकतम संभव पुनः उपयोग हो। जो शेष बचे, उसका उत्पन्न होने के स्रोत से न्यूनतम दूरी पर न्यूनतम समय में न्यूनतम खर्च में सर्वश्रेष्ठ तरीके से निष्पादन हो। अभी भारत  कचरे को उसके स्रोत से दूर ले जाकर निष्पादित करने वाली प्रणालियों को बढ़ावा देने में लगा हुआ है। लोग भी सीवेज पाइपों को ही विकास मान रहे हैं। गंदगी जहां है, उसे वही मिटाएं, निपटाएं।

नदियां बहाएं, समुद्र बचाएं- सबसे ज्यादा सतही जल नदियों और समुद्रों के पास है। नदियों का काम अपना मीठा जल लेकर समुद्र के खारे जल में मिला देना है ताकि समुद्र का पानी इतना खारा न पड़ने पाए कि समुद्री जीवन संकट में आ जाए अथवा समुद्र के किनारे रहने वालों का पेयजल नमकीन विष से भर जाए। नदियों का जल समुद्र में जाकर उनके ज़रिए तापमान को भी नियंत्रित करता है। समुद्र कचरे से ना भरे, उनकी जैविकी बचे और उसको बचाने में आप प्रयास करें। नदियों को बांधें नहीं, बहने दें..... नदी को नदी से नहीं, लोगों को नदियों से जोड़ें।

दिमाग चलाएं उत्सर्जन घटाएं- कंप्यूटर को हाइबरनेट और या स्क्रीन सेवर मोड में रखने से ऊर्जा की बचत नहीं होती, बल्कि कार्बन उत्सर्जन और बढ़ जाता है। अगर अगले कुछ घंटे काम ना करना हो, तो कंप्यूटर बंद कर दें। उत्सर्जन घटाने के लिए कंप्यूटर चलाने की ही नहीं, भवनों में ऊर्जा संरक्षण और हरीतिमा की भी आचार संहिता बनानी होगी। घर में एयर कंडीशनर नहीं, हरियाली लागाएं। हरियाली बढ़ेगी, गर्मियों में खिड़कियां व पर्दे खुलेंगे और हम पहनावे में हल्के व कम रंगीन कपड़े चुनेंगे, तो एयर कंडीशनर लगाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी या कम से कम  एयर कंडीशनर चलाना पड़ेगा।

खटारा को कहें अलविदा मेरे दोस्त!- लगभग खटारा हो गए स्कूटर, कार, जीप, पंखे अथवा पुरानी हो गई डीज़ल मोटर, सामान्य से  बहुत अधिक बिजली या ईंधन को खाती है, कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ाती है, इन्हें जल्दी से जल्दी कबाड़ी को  सौंप दें, ताकि वे किसी फैक्ट्री में जा कर पुनः हमारे काम की कोई चीज बना सकें। अब हाइब्रिड वाहनों का ज़माना है, तो कम इंधन खाएं...काले जहरीले धुएं का उत्सर्जन न करें और लाल बत्ती देखकर स्वतः गाड़ी बंद कर दें, अच्छा हो कि बैटरी से चलने वाली कार ले आएं या फिर साइकिल को ही अपना प्रिय वाहन बनाएं।

आशा है कि अब हम पृथ्वी को ठंडक पहुंचाने का प्रयत्न करते हुए कह सकेंगे-

पेड़ों की शाखों पर झूल रहे हैं हम,

पत्तों, फूलों, कलियों को चूम रहे हैं हम,

हरीतिमा की तैयारी है,

और अब प्रत्यक्ष में बागों की तितलियों को देख रहे हैं हम॥

मीता गुप्ता

 

 

 

 

नया सीखने-सोचने की ज़रूरत आखिर क्यों?

 

अंतर्राष्ट्रीय नवाचार दिवस पर विशेष...

नया सीखने-सोचने की ज़रूरत आखिर क्यों?



प्रत्येक वस्तु या क्रिया में परिवर्तन, प्रकृति का नियम है। परिवर्तन से ही विकास के चरण आगे बढ़ते हैं। परिवर्तन एक जीवंत, गतिशील और आवश्यक क्रिया है, जो समाज को वर्तमान व्यवस्था के अनुकूल बनाती है। परिवर्तन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होते हैं। इन्हीं परिवर्तनों से व्यक्ति और समाज को स्फूर्ति, चेतना, ऊर्जा एवं नवीनता की उपलब्धि होती है। परिवर्तन युक्त वे सब साधन एवं माध्यम जिन्होंने व्यक्तियों के व्यवहार में नवीनता युक्त तथ्यों, मान्यताओं, विचारों का बीजारोपण करके नवीन प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख किया, वे नवाचार कहलाते हैं।

इस प्रकार परिवर्तन की प्रक्रिया विकासवादी, संतुलनात्मक एवं नवगत्यात्मक परिवर्तन से जुड़ी होती है। परिवर्तन एवं नवाचार एक दूसरे के अन्योन्याश्रित हैं। परिवर्तन समाज की मांग की स्वाभाविक प्रक्रिया से जुड़ा तथ्य है। इसलिए परिवर्तन, नवाचार और शिक्षा का आपसी संबंध इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि नवाचार कोई नया कार्य करना ही मात्र नहीं है, वरन् किसी भी कार्य को नए तरीके से करना भी नवाचार है।

व्यक्ति एवं समाज में हो रहे परिवर्तनों का प्रभाव शिक्षा पर भी पड़ा है। शिक्षा को समयानुकूल बनाने के लिए शैक्षिक क्रियाकलापों में नूतन प्रवृत्तियों ने अपनी उपयोगिता स्वंयसिद्ध कर दी है। शैक्षिक नवाचारों का उद्भव स्वतः नहीं होता वरन् इन्हें खोजना पड़ता है तथा सुनियोजित ढंग से इन्हें प्रयोग में लाना होता है, ताकि शैक्षिक कार्यक्रमों को परिवर्तित परिवेश में गति मिल सके और परिवर्तन के साथ गहरा तारतम्य बनाये रख सकें। इस प्रकार नवाचार एक विचार है, एक व्यवहार है, अथवा वस्तु है, जो नवीन और वर्तमान का गुणात्मक स्वरूप है।

शैक्षिक नवाचार शिक्षा की विकासोन्मुख रहने वाली प्रक्रिया को प्रदर्शित करने वाली एक नवीन अवधारणा है। वैज्ञानिक विकास के युग में शैक्षिक तकनीकी के नवीन प्रावधानों के कारण शैक्षिक नवाचार का महत्त्व और बढ़ गया है। अंतर्राष्ट्रीयता, वैश्वीकरण और जनसंचार के आधुनिक संसाधनों ने इसे आज के युग की एक आवश्यकता के रूप में स्थापित कर दिया है। शैक्षिक नवाचार पर विचार करने से पहले ‘नवाचार’ शब्द का अर्थ जान लेना आवश्यक है। नवाचार दो शब्दों नव + आचार से मिल कर बना है। नव का अर्थ है नवीन या नया और आचार का अर्थ होता है व्यवहार अथवा रहन-सहन। आचार को चलन अथवा प्रचलन भी कहा जा सकता है। इस आधार पर शैक्षिक नवाचार को शिक्षा के नवीन प्रचलित व्यवहारों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। शिक्षा के उक्त प्रचलित व्यवहारों के अंतर्गत उन सभी नवीन अवधारणाओं, विचारों, विधियों, सिद्धांतों, प्रयोगों और सूचनाओं को सम्मिलित किया जा सकता है, जो शिक्षाविदों के आधुनिकतम चिंतन के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई हैं। इस प्रकार नवाचार शैक्षिक तकनीकी के रूप में शिक्षा दर्शन, मनोविज्ञान और विज्ञान आदि शिक्षा के समस्त पहलुओं को प्रभावित करता है।

शैक्षिक नवाचार का कार्य मानवीय तथा गैर-मानवीय संसाधनों का शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए यथासंभव कम से कम धन व श्रम को व्यय करके अधिक से अधिक उपलब्धि प्राप्त करना है। अतः प्रबंध का कार्य भी एक शैक्षिक कार्य ही कहा जाएगा और शैक्षिक नवाचारों को विद्यालय में प्रविष्ट करवाना भी उसका दायित्व बनता है। प्रबंध का दायित्व इसलिए कहा है कि शैक्षिक नवाचारों का सैद्धांतिक पक्ष शिक्षकों एवं शिक्षाविदों के कार्यक्षेत्र में आता है, किंतु उन्हें विद्यालय में लागू करने और प्रचलित करने में प्रबंध का योगदान रहता है। किसी शैक्षिक नवाचार को विद्यालय में लागू करना है, या नहीं, यदि करना है तो किस सीमा तक लागू करना है और किस प्रकार लागू करना है, आदि बातों से संबंधित अनेक प्रश्नों का उत्तर खोजने में प्रबंधकों की विशेष भूमिका रहती है।

शैक्षिक नवाचारों को सामान्यतया क्षेत्र की सीमा में बांधना एक दुष्कर कार्य है। जिस प्रकार शिक्षा की कोई सीमा नहीं होती, उसी प्रकार शैक्षिक नवाचार भी गिनाए नहीं जा सकते। कभी-कभी कोई नवीन चिंतन अथवा विचार किसी भी प्रकार के शैक्षिक नवाचार को जन्म दे सकता है। शैक्षिक नवाचार के  क्षेत्र में अनेक अनुसंधान होते रहते हैं। यदि ऐसा कोई अनुसंधान उच्च शिक्षा के क्षेत्र से संबंधित हो, तो प्रबंधक उसे अपने माध्यमिक विद्यालय में प्रचलित नहीं कर सकता।

किसी भी नवीन परिवर्तन को अपनाने एवं उसके क्रियान्वयन में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे-

·       अपर्याप्त धन- एक नवाचार को प्रारंभ करने के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। पर्याप्त धन के अभाव में नवाचार के कार्यक्रमों का संचालन नहीं किया जा सकता है। कई उत्कृष्ट नवाचारों की आवश्यकता है परंतु धन की कमी के कारण प्रयोग नहीं किए जा पा रहे हैं।

·       समाज का भय - मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के कारण उसे समाज के मूल्यों, आदर्शों, परंपराओं का सम्मान करना पड़ता है। वह इनके विरुद्ध नहीं जा सकता है। इन्हीं सामाजिक परंपराओं के कारण वह कुछ नया सोचने में डरता है। जिससे नवाचार के विकास मे में बाधा उत्पन्न होती है।

·       असफलता का भय- मनुष्य अपना प्रत्येक कार्य किसी सफलता की आशा से करता है। यदि उसे आशा होती है कि किसी नवीन विचार के माध्यम से उसे भविष्य में सफलता प्राप्त होगी, तो वह उस विचार को अपने मस्तिष्क में लाता है, परंतु यदि किसी नवीन विचार या कार्य के माध्यम से भविष्य में असफलता का भय होता है तो उस नवीन विचार से वह विरत हो जाता है। यह असफलता का भय नवाचार के मार्ग में बाधा उत्पन्न करते हैं।

·       आत्मविश्वास का अभाव- प्रायः मनुष्य में इतनी योग्यता या क्षमता नहीं होती है कि वह कोई नवीन विचार अपने मस्तिष्क में ला सके। अपनी इस आत्मविश्वास की कमी के कारण भी वह नवाचारों का प्रयोग करने में असमर्थ रहता है।

·       उचित संगठन का अभाव- किसी भी नवाचार का विकास करने के लिए उचित संगठन की आवश्यकता होती है। उचित संगठन के अभाव में नवाचार के मार्ग में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

·       समय का अभाव- किसी भी नवाचार को व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए पर्याप्त समय की आवश्यकता होती है। जब तक किसी व्यक्ति के पास पर्याप्त समय नहीं होगा तब तक कोई नवीन विचार उसके मस्तिष्क में उत्पन्न नहीं होगा। नवीन विचार के उत्पन्न न होने से वह नवीन कार्यों को करने में असमर्थ होगा। अतः नवाचार के मार्ग में सबसे बड़ी कठिनाई समय का अभाव होना है।

·        व्यक्तित्व संबंधी बाधाएं- व्यक्तित्व मन और शरीर का गत्यात्मक संगठन होता है। इसमें व्यक्ति की आदतें, मनोवृत्तियों रुचि, नैतिकता क्षमता इत्यादि निहित होती हैं। इसी के आधार पर व्यक्ति अपने वातावरण एव निहित होती हैं। नवाचारों से अन्तःक्रिया द्वारा समायोजन स्थापित करता है। अतः व्यक्तित्व का अपूर्ण विकास भी नवाचार के लिए बाधा उत्पन्न कर सकता है।

·       अज्ञान जनित बाधाएं- अज्ञान जनित बाधाएं निरक्षता व अंधविश्वास पर आधारित होती हैं। इसमें किसी नवाचार के बारे में पूर्ण रूपेण जानकारी न होना, मित्रमंडली द्वारा नवाचारों को महत्त्व न देना, बिना जानकारी के नवाचारों का विरोध करना इत्यादि बातें निहित होती है।

नवाचार की बाधाओं को दूर करने के उपाय-

·       नवाचार को सफल बनाने के लिए ऐसे परिवेश का निर्माण करना होगा, जिसमें व्यक्ति की आदतों में वांछित परिवर्तन लाया जा सके।

·       नैतिकता की बाधा को दूर करने के लिए ग्रहणकर्ता के मन में नवाचार के प्रति विश्वास जागृत करना होगा।

·       असुरक्षा की भावना के उन्मूलन के लिए अधिकारियों द्वारा ग्रहणकर्ता को संरक्षण दिया जाए जिससे उसका हौसला बढ़े।

·       असफलता की भावना को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि नवाचार के प्रयोग में सुखद अनुभव कराया जाए जिससे ग्रहणकर्ता को यह अनुभूति कराई जा सके कि वह इस कार्य में अवश्य सफल होगा।

·       सामाजिक भय को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को इस स्थिति में उसके सामने ऐसे व्यक्तियों के उदाहरण प्रस्तुत करने होंगे, जिन्होंने समाज को अनुचित परंपराओं का उल्लंघन करके सफलतापूर्वक नवाचार को अपनाया है।

·       नवाचार के प्रति अज्ञानता को दूर करने के लिए आवश्यक है कि ग्रहणकर्ता को नवाचार की पूर्ण जानकारी दी जाए, जिससे उसकी नवाचार के प्रति भ्रांति दूर हो सके।

·       नवाचार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए मानव संसाधनों के साथ-साथ व्यक्तित्व संबंधी व सामाजिक भांतियों को दूर करना अति आवश्यक है तभी नवाचार को सफलता मिल सकती है।

आशा है कि इस अंतर्राष्ट्रीय नवाचार दिवस पर आप भी भयभीत हुए बिना स्वाभिमान से भरकर नवाचार और नवोन्मेष को अपनाएंगे और संसार को एक नया नज़रिया,एक नया दृष्टिकोण देंगे।

 

मीता गुप्ता

Sunday, 17 April 2022

हमारी संस्कृति, हमारी विरासत

 

 

हमारी संस्कृति, हमारी विरासत



भारत एक प्राचीन भूमि है, इतनी प्राचीन जितना इतिहास स्वयं। इसमें ऐसी विशिष्टताएं हैं, जो इसे शेष विश्व से एक पृथक पहचान प्रदान करती है और दुनिया की सबसे पुरानी जीवित सभ्यता का मुकुट पहनाती है। देश सभ्यताओं से बनता है और सभ्यताएँ लोगों से तथा लोग अपनी शारीरिक विशेषताओं एवं नियमाचरण से। विकास क्रम में हमें प्रकृति से प्राकृतिक संसाधन एवं अपने पूर्वजों से संस्कृति प्राप्त हुई, जिसे हम अपनी सुविधानुसार ढालते गए। इस क्रम में हम अपनी मर्यादाओं को जाने-अनजाने लांघते ही रहे। परिणामस्वरूप, आज हम  विकट परिस्थिति में जी रहे हैं। प्रकृति ने मनुष्य को बुद्धि, ज्ञान एवं कौशल से संपन्न कर श्रेष्ठता की उपाधि से विभूषित किया है, इसलिए नहीं, कि हम स्वार्थी होकर सभी संसाधनों का दोहन करें, बल्कि इसलिए कि प्रकृति-प्रदत्त तथा हमारे पूर्वजों के अथक एवं अद्वितीय प्रयासों से उद्भूत हुई विरासत का संरक्षण एवं विकास कर सकें।

अक्सर विरासत का अभिप्राय सांस्कृतिक गतिविधियों एवं ऐतिहासिक महत्ता की वस्तुओं से लगाया जाता है, लेकिन गहनता से अवलोकन करने पर इसके अन्यान्य वृहद आयाम और वैविध्यपूर्ण रूप सामने आते हैं, जितना हम इसे सामान्यतः समझते हैं, हमें जो कुछ भी आज सुलभ है, वह सब हमारे लिए विरासत का ही एक अंग है तथा हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए जो कुछ भी छोड़ कर जाएंगे, वह हमारी विरासत ही होगी। अपनी संपूर्णता में विरासत संस्कृति (रहन-सहन, धार्मिक मूल्य, नैतिकता, विविध कलाएं आदि), हमारी नृजातीय विशेषता और सामाजिक आचरण, हमारी परंपराएं, हमारा पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधन, अन्य प्रजातियां (पशु-पक्षी आदि) तथा और बहुत कुछ समेटती है, जिसे जीवित रखने और अगली पीढ़ी तक अग्रसारित करने के लिए इसका संरक्षण एवं प्रसार नितांत आवश्यक है।

मनुष्य के स्वार्थ ने मानवोचित आचरण का पतन कर के उसे एक ऐसे संसार की ओर धकेल दिया है, जहाँ मानवोचित आचरण एवं नैतिकतावादी मूल्यों के लिए बहुत कम स्थान शेष रह गया है। इन श्रेष्ठ गुणों के लिए जितना भी स्थान शेष है, वह भी जागरूकता के अभाव और भौतिकता की अंधी दौड़ में शनैः-शनैः विलुप्तप्रायः हो चुका है। आज हम एक ऐसे मुक़ाम पर पहुँच गए हैं, जहाँ हम जीवन के चौराहे पर खड़े हैं और अपने नफ़े-नुकसान का विश्लेषण कर सकते हैं। भौतिकतावाद ने हमारी सर्व-कल्याण की सनातन परंपरा को एक विकराल दावानल की भांति जला कर राख  कर दिया है। स्वयं तथा अपने परिवार के अलावा किसी और वस्तु या व्यक्ति के बारे में सोचने का समय अब किसी के पास भी नहीं है। मज़बूत जड़ें ही किसी वृक्ष की वृद्धि और उसके अस्तित्व को सुनिश्चित करती हैं। जल एवं उर्वरक से पत्तियों, फूलों, फलों अथवा तनों को नहीं, अपितु जड़ों को सींचा जाता है, ताकी विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वृक्ष पर कोई आंच न आने पाए। हमारे जीवन-वृक्ष में हम सब तने, पत्तियों, फल-फूल के रूप में उसके अनिवार्य अंग हैं, वहीं हमारी विरासत उसकी जड़ों के रूप में विद्यमान है। अपनी विरासत के प्रति अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ना अपने जीवन-वृक्ष की जड़ों को स्वार्थ के दीमक द्वारा खोखला करना सर्वथा अनुचित है। इस हरे-भरे फल-पुष्पयुक्त वृक्ष को ठूंठ करके हम अपने ही भविष्य एवं भावी आगंतुकों के साथ खिलवाड़ करेंगे। एक ऐसा खिलवाड़, जिसकी परिणति एक अपूरणीय क्षति के रूप में होगी। यदि हम अपनी इस विरासत को अपनी भावी पीढ़ी के हाथों में सौंपते हैं, जिसके लिए उसका संरक्षण अत्यावश्यक है, तो हमारी संतति न सिर्फ़ अच्छा जीवन जिएगी, अपितु एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत समाज का निर्माण करेगी, जहाँ हर जगह “वसुधैव कुटुम्बकं” की भावना व्याप्त होगी। हमारे लिए ये याद रखना ज़रूरी है कि, ज़रूरी नहीं के हमें विरासत में क्या मिला, ज़रूरी ये है के हम विरासत में क्या छोड़ेंगे।

 हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए एक बेहतर कल बनाना तो चाहते हैं, पर हमारी सोच और पहुँच वित्तीय प्रतिभूतियों और जीवन के भौतिकतावादी पक्षों तक ही सीमित रह जाती है। हम कभी एक बेहतर स्थान, पर्यावरण और समाज के निर्माण पर विचार नहीं करते। ऐसी संकीर्ण सोच हमारी उन्नति के पथ के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगी। कल्पना कीजिए, एक ऐसे संसार के बारे में जहाँ हमारी भावी पीढ़ी स्वच्छ एवं शुद्ध वातावरण में साँस ले सकेगी, अधिक स्वास्थ्यप्रद भोजन कर सकेगी, वैविध्यपूर्ण मनोरंजन कर सकेगी, बेहतर माध्यमों से सीखे और पढ़ेगी, जीवन में अधिकाधिक अवसर पाएगी, आपस में मैत्री एवं सद्भावना होगी, एक समतामूलक एवं सहिष्णु समाज का गठन होगा, नृजातीय एवं नैतिक मूल्यों का संरक्षण होगा तथा वह एक अधिक उत्कृष्ट जीवन जिएगी, बनिस्बत उसके, जैसा कि हम जीते हैं। हमारी विरासत सब संभव बनाती है तथा उसे संरक्षित और अग्रसारित कर के सभी लक्ष्यों की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। इसलिए, आज के इस युग में जहाँ हम कगार पर रह रहे हैं, हमें कुछ ऐसी युक्तियाँ और उपाय करने की आवश्यकता है, जिससे जीवन जीने की एक संपूर्ण तथा त्रुटिहीन पद्धति की आसन्नपूर्ण हानि के खतरों को कम एवं सीमित किया जा सके। ऐसा इसलिए कि न केवल शेष विश्व, वरन मानवता भी हमारी ओर आशावादी दृष्टि से देख रही है। इससे पहले कि अपूरणीय विलंब हो जाए, हमें उपलब्ध अवसर का सदुपयोग करना होगा, क्रियाशील होना होगा, हमें यह भी याद रखना होगा कि यह एक अनवरत प्रक्रिया है, जो कभी समाप्त नहीं होती। आवश्यकता है केवल इसे पूरी दृढ़ता के साथ आत्मसात करने की ताकी यह युगों-युगों तक चलने वाले संकर-संस्कृतिकरण एवं अन्य बाह्य बाधाओं से भी जीर्ण या धूमिल न होने पाए। जो नया है, अच्छा है, उसे अवश्य अपनाना चाहिए, पर जो पुराना और बेहतर है, उसे भूलना भी नहीं चाहिए। एक जागृत आज कल की थाती होगा।

आइए! अपनी प्राचीन और महान विरासत को संरक्षित और प्रसारित करने के लिए हाथ से हाथ मिलाएं और बूँद-बूँद से सागर भर दें तथा इसे अविभाज्य और अक्षुण्ण-अजस्र बनाए रखें, जैसी यह सदैव से थी। इसी में हमारी जीत निहित है और हमारा उत्थान भी।

मीता गुप्ता

 

 

Saturday, 16 April 2022

अहा ज़िंदगी!

अहा ज़िंदगी!
जीवन क्या है? खेल, आनंद, पहेली या बस.. सांसों की डोर थामे उम्र के सफर पर बढ़ते जाना? ये साधना है या यातना? सुख है या उलझाव? जीवन का अर्थ कोई भी, पूरी तरह, कभी समझ नहीं पाया है, लेकिन इसकी अनगिनत परिभाषाएं सामने आती रही हैं। हम अलग-अलग समय में ज़िंदगी के मूल्यों को परखते रहते हैं, उनका अर्थ तलाशने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। हालांकि एक बात आपने कभी गौर की है कि ज़िंदगी को परखने की कोशिश में हम एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते हैं और वह यह है कि जीवन की विशिष्ट परिभाषाएं दरअसल, हमारे सामान्य होने में छुपी हैं। इनमें से ही एक अहम बात है प्रकृति से हमारा जुड़ाव। कुदरत का मतलब मिट्टी, पानी, पहाड़, झरने तो है ही, पांचों तत्व भी तो प्रकृति से ही मिले हैं। हमारी देह में, हमारे दुनियावी वजूद में शामिल पंच तत्व। और फिर, दुनिया में अगर हम मौजूद हैं, तो प्रकृति की नियामतों के बिना कैसे जिएंगे? क्या सांस न लेंगे?  तरह-तरह के फूलों की खुशबुओं से मुलाकात न करेंगे?  भोजन और पानी के बगैर कैसे गुज़रेगी जीवन की रेलगाड़ी? 
तो आइए, आज प्रकृति के संग-संग ही तलाशते हैं अपनी ज़िंदगी का अर्थ! कुदरत महज हमारे जन्म और जीने के लिए ही ज़रूरी नहीं है। यह कल्पना भी सिहरा देने वाली होगी कि हमारे आसपास प्राणतत्व की उपस्थिति न होगी। सोचकर देखिएगा कि आप किसी ऐसी जगह मौजूद हों, जहां सबकुछ अदृश्य हो। आपके पैरों तले मिट्टी न हो, न आंख के सामने हो, पीने के लिए पानी और बातें करने के लिए परिंदे न हों.. क्या वहां जीवन संभव हो सकेगा?  खैर, अस्तित्व से आगे निकलकर इससे भी विराट संदर्भो में अर्थ तलाशें, तो हम पाएंगे कि जन्म से लेकर जीवन और फिर नश्वर संसार से अलविदा कहने तक प्रकृति हमारे साथ अलग-अलग रूपों में अपनी पूर्ण सकारात्मकता समेत मौजूद है। पहाड़ की छाती चीरकर, झरने पानी लेकर हाज़िर हैं। उनकी सौगात आगे बढ़ाती हैं नदियां...जो फिर सागर में मिल जाती हैं। समंदरों से यही पानी सूरज तक पहुंचता है और होती है बारिश। बारिश न हो, तो खेत कैसे लहलहाएंगे? हां, खुशबुएं न हों, रास्ते न हों, जंगलों का नामोनिशां न हो, तो हमारे होने का, इस जीवन का ही क्या मतलब होगा?  प्रकृति की हर धड़कन में कुदरत के रचयिता के श्रृंगारिक मन की खूबसूरत अभिव्यक्ति होती है। कितने किस्म के तो हैं उत्सव। 
मौसमों की रंगत भी कुछ कम अनूठी नहीं। जाड़े में ठिठुरन, बारिश में भीगने में, गर्मी में छांव में और बारिश की उमंग में अनिर्वचनीय सुख है। सब के सब मौसम कुछ न कुछ बयां करते हैं। सच कहें, तो प्रकृति में एक अनूठे ज्ञान की पाठशाला समाई हुई है। ज़रूरत बस इस बात की है कि हम कुदरत की स्वाभाविक उड़ान को, उसके योगदान को समझें, सराहें और पहचानें। स्वाभाविक तौर पर हर दिन बिना कोई विलंब किए उगने वाले सूरज को, बगैर थके उसकी परिक्रमा करने वाली पृथ्वी को और उनके पारस्परिक संबंध के कारण होने वाले बदलावों को समझ पाएंगे। हम जान पाएंगे कि वृक्ष बिना कुछ लिए महज फल और छाया देते हैं। नदियां कुछ भी नहीं कहतीं, पर पानी की सौगात देती हैं। मौसम अपने रंग बिना किसी कीमत के बिखेरते हैं। हम जब तक प्रकृति की ओर से मिल रही सीख समझते हैं और उसे आहत नहीं करते, उसकी तरफ से आनंद की वर्षा होती है। हम उसमें भीगते रहते हैं, लेकिन जब-जब हम कारसाज़ कुदरत को आदर करना बंद कर देते हैं, कई तरह की सुनामियों का सामना भी करना पड़ता है। 
अच्छा हो, अगर हम प्रकृति का सम्मान करना सीख लें और उसके ज़रिए मानव-मात्र की होने वाली सेवा से ज़रूरी संदेश ग्रहण कर लें। ऐसा हो सका तो यकीनन, हमारी आंखों में आशा, संतोष, उम्मीद और खुशी के कई दीये जल उठेंगे और हम कह सकेंगे.....अहा ज़िंदगी!!
 
मीता गुप्ता

Friday, 15 April 2022

सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव

 

सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव



सोशल मीडिया का सही उपयोग किसी वरदान से कम नहीं, लेकिन इसका असंयमित प्रयोग हमारे अंदर कई तरह की मानसिक समस्याओं को जन्म दे सकता है। इस कारण युवाओं में चिड़चिड़ापन, नींद न आना, चिंता, तनाव, अवसाद, छोटी-छोटी बात में गुस्सा आ जाना जैसी अनेक मानसिक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। सोशल मीडिया का सही सदुपयोग किया जाए, तो यह सरकार और जनता की आंखें खोलने का एक मजबूत प्लेटफॉर्म है। किन्तु ऐसा नहीं हो रहा है। इसका बहुत से लोग दुरुपयोग कर रहे हैं, जिसके दुष्परिणाम आम लोगों को अफवाहों के रूप में भुगतने पड़ रहे हैं। हर उपयोगकर्ता ठीक नहीं होता। आज के दौर में सोशल मीडिया का इस्तेमाल सामान्य बात हो चली है। इसे जरूरत मान लिया गया, लेकिन इसके नुकसानों से रूबरू होना भी जरूरी है। एक हालिया अध्ययन के जरिए सिडनी के वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि सोशल मीडिया के इस्तेमाल के करीब पचास हानिकारक प्रभाव हैं। यह सभी प्रभाव सिर्फ मानसिक सेहत से जुड़े नहीं हैं, बल्कि हमारे काम करने की क्षमता भी इनसे प्रभावित हो रही है।

सिडनी की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम जैसी साइटों के उपयोग से जुड़े 46 हानिकारक प्रभावों की जानकारी दी है। इनमें से चिंता, अवसाद, परेशान किया जाना, आत्महत्या के लिए उकसाने वाले विचार, साइबर स्टॉकिंग, अपराध, ईर्ष्या, सूचना अधिभार और ऑनलाइन सुरक्षा की कमी है आदि शामिल हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार कुल मिलाकर सोशल मीडिया शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए तो समस्या पैदा करने वाला है ही, साथ ही यह नौकरी और शैक्षणिक प्रदर्शन पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है। इसके अलावा सोशल मीडिया के कारण लोग सुरक्षा और प्राइवेसी की चिंता से भी परेशान रहते हैं।

सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों की अनदेखी हुई

शोधकर्ताओं का कहना है कि अब तक सोशल मीडिया नेटवर्क पर हुए अध्ययनों में उनके फायदों पर ध्यान केंद्रित किया गया है, इस कारण इसके नकारात्मक प्रभावों की अनदेखी की गई है। यह अध्ययन ऑनलाइन सोशल नेटवर्क का उपयोग करने के तथाकथित ‘काले पक्ष’ पर मौजूदा सीमित काम पर आधारित है। यह ऑनलाइन सोशल नेटवर्क के सकारात्मक प्रभावों के साथ ही नकारात्मक प्रभावों को स्पष्ट करता है। अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने 2003 से 2018 तक प्रकाशित करीब 50 अध्ययनों की समीक्षा की। 2003 में सोशल मीडिया अपनी प्रारंभिक अवस्था में था। सोशल मीडिया के 46 हानिकारक प्रभावों में प्राइवेसी का उल्लंघन, धोखाधड़ी, घबराहट, आर्थिक जोखिम आदि भी पाए गए। यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी सिडनी में प्रमुख शोधकर्ता लैला बोरून का कहना है कि सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रभाव सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित नहीं हैं। इनमें ईर्ष्या, अकेलापन, चिंता और कम आत्मसम्मान, दुर्भावना जैसे नकारात्मक प्रभाव भी शामिल हैं।

 नकारात्मक प्रभावों को छह श्रेणियों में बांटाः

शोधकर्ताओं ने कुल मिलाकर सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रभावों को छह समूहों में बांटा- ‘कॉस्ट ऑफ सोशल एक्सचेंज’, ‘गुस्सा दिलाने वाला कंटेंट’, ‘निजता संबंधी चिंताएं’, ‘सुरक्षात्मक खतरे’, ‘साइबरबुलिंग’ और ‘प्रदर्शन पर असर’। कॉस्ट ऑफ सोशल एक्सचेंज में मनोवैज्ञानिक नुकसान जैसे कि अवसाद, चिंता, ईर्ष्या और समय, ऊर्जा और पैसे की बर्बादी आदि शामिल हैं। गुस्सा दिलाने वाले कंटेंट में हिंसात्मक और नफरत फैलाने वाला कंटेंट साझा करने वाले यूजर शामिल हैं।

प्राइवेसी की चिंता में किसी तीसरी पार्टी द्वारा निजी जानकारी के दुरुपयोग की चिंता शामिल है। सुरक्षात्मक चिंता में धोखाधड़ी का खतरा और साइबरबुलिंग में दुर्व्यवहार, झूठ, स्टॉकिंग, अफवाह आदि शामिल हैं। इसके अलावा छठी श्रेणी में सोशल मीडिया के इस्तेमाल से काम के प्रदर्शन में होने वाली कमी आती है। शोधकर्ता अब उन कारकों की जांच कर रहे हैं, जो सोशल मीडिया की लत को प्रभावित करते हैं। एक ऐसी टेस्ट एप्लीकेशन विकसित की जाएगी जो सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रभावों को कम कर सके।

दुष्परिणाम-

मानसिक रूप से बीमार हो रहे हैं बच्चे

सोशल मीडिया का घातक दुष्प्रभाव भी नजर आ रहा है। जहां सोशल मीडिया आज के समय में मनुष्य की आवश्यकता बन गया है, वहीं इसके दुष्परिणाम भी बहुत दिख रहे है। व्यक्ति सोशल मीडिया की वर्चुअल दुनिया में जकड़ा हुआ है। इसकी वजह से परिवारों का विघटन, पति-पत्नी में आपसी कलह तक के मामले सामने आ रहे हैं। बच्चे अब मैदान में खेलने की बजाय मोबाइल पर खेल रहे हैं। बच्चे सोशल मीडिया के कारण मानसिक रूप से बीमार हो रहे है।

विकृत मानसिकता का जन्म

सोशल मीडिया का वर्तमान समय में बहुत ज़्यादा दुरुपयोग हो रहा है। कई प्रकार के विदेशी वीडियो गेम से बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है। सोशल मीडिया बच्चों में गुस्से और तनाव का प्रमुख कारण बनता जा रहा है। सोशल मीडिया के दुष्परिणाम के रूप में विकृत मानसिकता उभर कर सामने आई है। इससे अपराध भी बढ़ रहे हैं।

भ्रमित हो रहे हैं युवा

सोशल मीडिया से साइबर बुलिंग, हैकिंग, हेट स्पीच, डेटा चोरी, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अपराधों का खतरा बढ़ता जा रहा है। बिना किसी जांच-पड़ताल के अधिकांश मुद्दों को जाति, धर्म, संप्रदाय में बांट कर वास्तविकता और संविधान की मूल भावना को दरकिनार करके असभ्य और अमर्यादित भाषा में टिप्पणी करने लगते हैं । देश और समाज के प्रति अपना दायित्व भी टिप्पणी करके निभा लेते हैं । विशेषकर युवा किताबों से दूर होकर प्रायोजित खबरों से पर भ्रमित हो रहे हैं।

बढ़ रही हैं बीमारियां

सोशल मीडिया के अत्यधिक उपयोग, लंबी चैटिंग, कपोल कल्पित दुनिया में विचरण से अनेक समस्याएं पैदा हो रही हैं। सोशल मीडिया पर गेम्स में उलझी हुई युवा पीढ़ी अपना बहुमूल्य समय नष्ट कर रही है। सोशल मीडिया में अश्लीलता की भरमार हो गई है । स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि सोशल मीडिया के निरंतर प्रयोग से स्नायु तंत्र की बीमारियां तेजी से बढ़ रही है।

सोशल मीडिया युवाओं को अवास्तविक जगत का हिस्सा बना देता है। हर वर्ग ऑनलाइन धोखाधड़ी का शिकार हो रहा है। सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव को रोकने के लिए युवाओं को जागरूक करना बेहद जरूरी है। उन्हें जानना होगा कि सोशल मीडिया के बाहर भी एक दुनिया है।

वास्तविकता से दूर

सोशल मीडिया युवाओं को कहीं न कहीं अवास्तविक जीवन शैली की तरफ धकेल रहा है। लोगों को सोशल अकाउंट वास्तविक जीवन से अधिक महत्वपूर्ण लगने लगे हैं। ख़ुशी यो या गम, हर बात सोशल मीडिया के माध्यम से जाहिर करने की मानसिकता युवाओं को वास्तविक जीवन से दूर ले जा रही है।

फर्जी खबरों का बढ़ता जाल

सोशल मीडिया का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह हैं कि इसमें लगातार साझा हो रही फर्जी खबरों, जानकारियों का जाल बहुत घना होता जा रहा हैं। तथ्यों को बिना समझे जानकारियों, खबरों को एक-दूसरे को साझा कर देना इसका मुख्य कारण है। सोशल मीडिया पर कुछ भी साझा करने से पहले आवश्यकता थोड़ा सोच लेना चाहिए।

नकारात्मक प्रभाव

सोशल मीडिया की वजह से युवा पीढ़ी सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रही है। सोशल मीडिया ने आज की युवा पीढ़ी को नई पहचान देने के साथ पूरी दुनिया से जुडऩा सिखाया है। सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म के उपयोग का नशा युवाओं के सिर चढ़ बोल रहा है। इनका युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव अधिक हो रहा है। सोशल मीडिया पर अपनी हर जानकारी को शेयर करने से वे वास्तविक जीवन से दूर होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया का अधिक उपयोग, उन्हें डिप्रेशन का शिकार भी बना रहा है।

बढ़ रहा है डिप्रेशन

सोशल मीडिया के कारण मानसिक रूप से बीमारों की संख्या बढ़ रही है। लोग ऑनलाइन धोखाधड़ी के शिकार हुए हैं। डिप्रेशन की बीमारी भी भी बढ़ रही है।

              जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही सोशल मीडिया के लाभ-हानि दोनों हैं। ज़रूरत इस बात की है कि हम सतर्क होकर इसका उपयोग करें, क्योंकि यदि यह लत बन गया, तो यह इतना नुकसान कर जाएगा कि हमें हाथ मलते ही रह जाएंगे ।

 

मीता गुप्ता

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...