अहा ज़िंदगी!
जीवन क्या है? खेल, आनंद, पहेली या बस.. सांसों की डोर थामे उम्र के सफर पर बढ़ते जाना? ये साधना है या यातना? सुख है या उलझाव? जीवन का अर्थ कोई भी, पूरी तरह, कभी समझ नहीं पाया है, लेकिन इसकी अनगिनत परिभाषाएं सामने आती रही हैं। हम अलग-अलग समय में ज़िंदगी के मूल्यों को परखते रहते हैं, उनका अर्थ तलाशने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। हालांकि एक बात आपने कभी गौर की है कि ज़िंदगी को परखने की कोशिश में हम एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते हैं और वह यह है कि जीवन की विशिष्ट परिभाषाएं दरअसल, हमारे सामान्य होने में छुपी हैं। इनमें से ही एक अहम बात है प्रकृति से हमारा जुड़ाव। कुदरत का मतलब मिट्टी, पानी, पहाड़, झरने तो है ही, पांचों तत्व भी तो प्रकृति से ही मिले हैं। हमारी देह में, हमारे दुनियावी वजूद में शामिल पंच तत्व। और फिर, दुनिया में अगर हम मौजूद हैं, तो प्रकृति की नियामतों के बिना कैसे जिएंगे? क्या सांस न लेंगे? तरह-तरह के फूलों की खुशबुओं से मुलाकात न करेंगे? भोजन और पानी के बगैर कैसे गुज़रेगी जीवन की रेलगाड़ी?
तो आइए, आज प्रकृति के संग-संग ही तलाशते हैं अपनी ज़िंदगी का अर्थ! कुदरत महज हमारे जन्म और जीने के लिए ही ज़रूरी नहीं है। यह कल्पना भी सिहरा देने वाली होगी कि हमारे आसपास प्राणतत्व की उपस्थिति न होगी। सोचकर देखिएगा कि आप किसी ऐसी जगह मौजूद हों, जहां सबकुछ अदृश्य हो। आपके पैरों तले मिट्टी न हो, न आंख के सामने हो, पीने के लिए पानी और बातें करने के लिए परिंदे न हों.. क्या वहां जीवन संभव हो सकेगा? खैर, अस्तित्व से आगे निकलकर इससे भी विराट संदर्भो में अर्थ तलाशें, तो हम पाएंगे कि जन्म से लेकर जीवन और फिर नश्वर संसार से अलविदा कहने तक प्रकृति हमारे साथ अलग-अलग रूपों में अपनी पूर्ण सकारात्मकता समेत मौजूद है। पहाड़ की छाती चीरकर, झरने पानी लेकर हाज़िर हैं। उनकी सौगात आगे बढ़ाती हैं नदियां...जो फिर सागर में मिल जाती हैं। समंदरों से यही पानी सूरज तक पहुंचता है और होती है बारिश। बारिश न हो, तो खेत कैसे लहलहाएंगे? हां, खुशबुएं न हों, रास्ते न हों, जंगलों का नामोनिशां न हो, तो हमारे होने का, इस जीवन का ही क्या मतलब होगा? प्रकृति की हर धड़कन में कुदरत के रचयिता के श्रृंगारिक मन की खूबसूरत अभिव्यक्ति होती है। कितने किस्म के तो हैं उत्सव।
मौसमों की रंगत भी कुछ कम अनूठी नहीं। जाड़े में ठिठुरन, बारिश में भीगने में, गर्मी में छांव में और बारिश की उमंग में अनिर्वचनीय सुख है। सब के सब मौसम कुछ न कुछ बयां करते हैं। सच कहें, तो प्रकृति में एक अनूठे ज्ञान की पाठशाला समाई हुई है। ज़रूरत बस इस बात की है कि हम कुदरत की स्वाभाविक उड़ान को, उसके योगदान को समझें, सराहें और पहचानें। स्वाभाविक तौर पर हर दिन बिना कोई विलंब किए उगने वाले सूरज को, बगैर थके उसकी परिक्रमा करने वाली पृथ्वी को और उनके पारस्परिक संबंध के कारण होने वाले बदलावों को समझ पाएंगे। हम जान पाएंगे कि वृक्ष बिना कुछ लिए महज फल और छाया देते हैं। नदियां कुछ भी नहीं कहतीं, पर पानी की सौगात देती हैं। मौसम अपने रंग बिना किसी कीमत के बिखेरते हैं। हम जब तक प्रकृति की ओर से मिल रही सीख समझते हैं और उसे आहत नहीं करते, उसकी तरफ से आनंद की वर्षा होती है। हम उसमें भीगते रहते हैं, लेकिन जब-जब हम कारसाज़ कुदरत को आदर करना बंद कर देते हैं, कई तरह की सुनामियों का सामना भी करना पड़ता है।
अच्छा हो, अगर हम प्रकृति का सम्मान करना सीख लें और उसके ज़रिए मानव-मात्र की होने वाली सेवा से ज़रूरी संदेश ग्रहण कर लें। ऐसा हो सका तो यकीनन, हमारी आंखों में आशा, संतोष, उम्मीद और खुशी के कई दीये जल उठेंगे और हम कह सकेंगे.....अहा ज़िंदगी!!
मीता गुप्ता
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