दादी
अम्मा, दादी अम्मा मान जाओ....
दादी अम्मा, दादी अम्मा मान जाओ....मैं
जब-जब यह गीत सुनती हूं, तब-तब यह सोचने पर मजबूर हो जाती
हूं कि दादी रूठी ही क्यों? और क्या आज भी ललिता पवार की तरह
झूठा गुस्सा दिखाती दादी को मनाना उतना ही सरल और सहज है? आज
परिवेश बदल चुका है, संयुक्त परिवारों का स्थान एकाकी
परिवारों ने ले लिया है, जीवन की आपा-धापी इतनी अधिक हो गई
है कि हर कोई बस दौड़ता दिखता है.....न जाने किस दिशा में.....या किस ओर...। इसका
सबसे गंभीर प्रभाव पड़ा है, उस पीढ़ी पर,
जिस पीढ़ी की दादी आज रूठी हुई है। इसी कारण आज हमारे समाज में हमारे ही बुज़ुर्ग
एकाकी रहने को विवश हैं| उनके साथ उनके अपने बच्चे नहीं हैं।
गावों में तो स्थिति फिर भी थोड़ी ठीक है, लेकिन शहरों में तो
स्थिति बिलकुल भी विपरीत है। ज़्यादातर बुज़ुर्ग घर में अकेले ही रहते हैं, और जिनके बच्चे उनके साथ हैं, वो भी अपने अपने कामों
में इस हद तक व्यस्त हैं कि उनके पास अपने माता-पिता से बात करने के लिए समय ही
नहीं है।
ऐसी स्थिति के लिए कौन ज़िम्मेदार है? या क्या कारण हैं? इस विवाद से मैं बचना चाहती हूँ,
क्योंकि हर पीढ़ी के पास अपने जवाब हैं, अपने
तर्क हैं, जो हर परिवार औ हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग हैं और
सही भी हो सकते हैं। ये भी सच है कि आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में व्यक्ति अपने लिए
ही दो पल नहीं निकाल पाता है, तो फिर अन्य ज़िम्मेदारियां
कैसे पूरी करे और यही सोच उसके व्यवहार और विचारों में शुष्कता लाती है, जिसके कारण परिवार में और खासतौर से उसकी अपने माता-पिता से दूरियां बढ़ती
जाती हैं। कुछ विशेष कारण न होते हुए भी दोनों पीढ़ियों के बीच एक अदृश्य दीवार सी
खड़ी हो जाती है, दोनों एक छत के नीचे रहते हैं ,प्रतिदिन एक दूसरे को देखते भी हैं, मिलते भी हैं, लेकिन फिर भी एक दूसरे से अपने विचारों का आदान प्रदान नहीं कर पाते और
मैं इसको सकारात्मक दृष्टि से देखूं, तो कहूँगी कि चाहकर भी पर्याप्त
समय नहीं दे पाते।
उन परिवारों की स्थिति भी विकट है, जिनके माता-पिता और बच्चे अलग-अलग शहरों में जीविका के कारण रह रहे हैं।
ऐसी स्थिति में बच्चे अपने माता-पिता का पूरा ध्यान नहीं रख पाते और माता-पिता
अकेले ही जीवन गुज़ार देते हैं। लेकिन ऐसी स्थितियां कहीं भी ये सिद्ध नहीं करतीं
हैं कि किसी बुज़ुर्ग का अपमान हुआ हो या बच्चों ने कोई अत्याचार किया हो।
लेकिन कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जहां
वास्तव में बुज़ुर्गों की अवहेलना की जाती है, अपमान किया
जाता है, उनको तिरस्कृत किया जाता है। मैं फिर यही कहूँगी कि
हर परिवार की स्थिति भिन्न हो सकती है, इसलिए किसी भी पीढ़ी
को दोष देना कठिन है।
उदाहरणार्थ मेरे एक जानकार हैं, बचपन से मैं उनको जानती हूँ, उनकी “माता जी” उनकी
दादी से आदरपूर्ण व्यवहार नहीं करतीं थीं और बात-बात पर तिरस्कृत भी करती थीं। अब वे
स्वयं बुज़ुर्ग हो गई हैं और उनको भी अपने पुत्र के द्वारा वैसा ही व्यवहार भोगना
पड़ रहा है, जैसा वे स्वयं करती थीं। आप में से बहुत विद्वत्जन
उनके पुत्र को उपदेश दे सकते हैं कि यह मानवता नहीं है। लेकिन उस ने जो बचपन से
देखा-सीखा, वही तो वह दोहराएगा और यह तो गीता भी कहती है कि
कर्मों का फल अवश्य मिलता है, जैसा कर्म, वैसा फल।
बहरहाल में इस उदाहरण से मैं यह सिद्ध नहीं करना चाहती कि
पुरानी पीढ़ियों ने कुछ गलत किया, बल्कि यह कहना चाहती हूँ कि
समाज के नैतिक मूल्यों में धीरे -धीरे गिरावट आई है और वह अपने घर में नहीं, तो समाज में अन्य कहीं, लेकिन गिरावट तो आई है। ऐसा
कहते हुए मुझे मुंशी प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’ और श्री भीष्म साहनी की ‘चीफ़ की दावत’ कहानियां याद आती हैं, जिनमें युवा वर्ग की
अवसरवादिता, महत्वाकांक्षा,
स्वार्थपरता, हृदयहीनता और पारिवारिक विघटन का मार्मिक
चित्रण हुआ है। यदि आपने अभी तक ये कहा नियां नहीं पढ़ीं हैं,
तो इन्हें अवश्य पढ़िएगा।
अब एक तीसरी स्थिति यह है कि जब दूसरी स्थिति वाले बुज़ुर्ग
जो वाकई में प्रताड़ित हैं, पहली स्थिति वाले बुज़ुर्गों से
मिलते हैं (जो कि वास्तव में उपेक्षित नहीं हैं, केवल
समयाभाव या गलत समय प्रबंधन के कारण अपने बच्चों के साथ पर्याप्त समय नहीं बिता
पाते हैं ) और अपनी स्थिति के बारे में विचारों का आदान प्रदान करते हैं और जब
पहली स्थिति वाले बुज़ुर्ग दूसरी स्थिति वाले बुज़ुर्गों की व्यथा सुनते हैं, तो वातावरण में एक नकारात्मकता का भाव उत्पन्न होता है, जो सारे समाज और विशेषकर बुज़ुर्गों के विचारों में संशय की स्थिति
उत्पन्न करता है। अर्थात यदि बुज़ुर्गों की समाज में स्थिति यदि दस प्रतिशत
वास्तविक हो, तो नब्बे प्रतिशत केवल नकारात्मक वातावरण के
कारण हो, ऐसा हो सकता है...है ना... ।
इसका निदान सभी लोग अपने-अपने अनुसार ढूंढ रहे हैं और आजकल
वृद्धाश्रमों का भी बोलबाला है। कुछ वृद्ध इसको मजबूरी बताते हैं, तो कुछ इसे हेय दृष्टि से भी देखते हैं। मेरी व्यक्तिगत सोच कभी भी इस
तरह के आश्रमों के पक्ष में नहीं रही है। मैं तो यही चाहती हूँ कि घर में बुज़ुर्गों
का साथ हमेशा बना रहे।
लेकिन जब भारत के इतिहास पर नजर डालती हूँ तो पाती हूँ कि
हमारे पूर्वजों ने जीवन के अंत समय में, जब व्यक्ति के
दायित्वों की पूर्ति हो जाती थी, तब “वानप्रस्थ” की व्यवस्था
कर दी थी, शायद ये वृद्धाश्रम वानप्रस्थ का आधुनिक रूप हों। वास्तव
में मेरे विचार में हमारे बुज़ुर्गों को भी प्रेरणा की आवश्यकता है। जीवन के इस
पड़ाव पर भी वे अनुकरणीय उदाहरण दे सकते हैं और वैसे भी हम सदा से अपने बुज़ुर्गों
से ही सीखते आए हैं। वे अपने जीवन भर के अनुभव की पूँजी से समाज को सार्थक दिशा से
सकते हैं, जिनकी ज़िम्मेदारियां पूर्ण हो चुकी हैं, वे उन लोगों की शिक्षा, विवाह या स्वास्थ्य आदि में
सहायक हो सकते हैं, जो आज भी इन सब के लिए मोहताज हैं।
उदाहरणस्वरुप आजकल ज़्यादातर घरों में झाड़ू-पोंछा, चौका-बर्तन
करने वाली बाई लगी हुई है, अगर हमारे बुज़ुर्ग उनके बच्चों को
ही एक घंटे पढ़ाएं या पढ़ने में या अन्य कामों में आर्थिक या कोई अन्य मदद कर दें, तो समाज की दिशा-दशा भी सुधरेगी और उनका एकाकीपन भी दूर होगा।
साथ
ही युवाओं को भी समुचित समय-प्रबंधन करना होगा और अपने बुज़ुर्गों को सम्मान देना
होगा ।आखिर वे आज जो कुछ भी हैं, अपने बुज़ुर्गों के कारण ही
हैं। साथ ही बुज़ुर्गों को भी आज के समय और परिस्थितियों को देखते हुए बच्चों के
विषय में सकारात्मक रुख अपनाना होगा। अंत में मैं यही कहना चाहती हूं कि हमें एक
स्वस्थ और मज़बूत समाज की रचना के लिए अपने बुज़ुर्गों के मार्गदर्शन और युवाओं के
जोश की आवश्यकता है। जब दोनों एक साथ मिलकर-जुड़कर साथ चलेंगे, तभी नए और पुराने का एक अद्भुत संगम,एक अनोखा मेल
होगा और समाज को एक नई दिशा मिलेगी। समुद्र मंथन से ही अमृत उपजा था, हम विष को त्यागकर अमृतपान की ओर उन्मुख होंगे। मेरी मान्यता है कि प्यार
दो,तो प्यार मिलेगा...सम्मान दो, तो
सम्मान मिलेगा...नमस्कार करो, तो नमस्कार मिलेगा...फूल दो, तो फूल मिलेंगे। जीवन एक प्रतिध्वनि है, जो लौट कर अवश्य
आती है....आशा है अब दादी जल्दी ही मान जाएंगी...हमसे रूठी नहीं रहेंगी..और हमें
दोहराना नहीं पड़ेगा कि... दादी अम्मा, दादी अम्मा मान
जाओ....
मीता
गुप्ता
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