आंबेडकर की थाती
कल्पना कीजिए यदि भीमराव आंबेडकर ना होते, तो हमारा समाज कैसा होता? क्या हमारे समाज की कुछ
जातियों पर सदियों से चला आता शोषण, अत्याचार और मानवीयता
बर्बरता और अपमान का स्वरूप बदल गया होता। इतिहास गवाह है कि भारतीय समाज में
कितने ही सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन हुए, कितने ही आक्रमण
हुए, कितने ही विदेशियों ने इस पर शासन किया, लेकिन समाज के एक वर्ग की स्थिति उपेक्षित ही बनी रहे। उनकी और किसी का
भी ध्यान नहीं गया। केवल भीमराव आंबेडकर ही इतिहास में एक ऐसे शख्स के रूप में
उभरे, जिन्होंने बचपन से ही असमानता और अपमान के दंश का न केवल अनुभव किया,
वरन इसे दूर करने के लिए भी अपने मन में दृढ़ संकल्प लिया।
डॉक्टर भीमराव आंबेडकर का नाम आते ही भारतीय संविधान का ज़िक्र
अपने आप आ जाता है। सारी दुनिया आमतौर पर उन्हें या तो भारतीय संविधान के निर्माण
में अहम भूमिका के नाते याद करती है या फिर भेदभाव वाली जाति व्यवस्था की प्रखर
आलोचना करने और सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ आवाज उठाने वाले योद्धा के तौर पर। इन
दोनों ही रूपों में डॉक्टर आंबेडकर की बेमिसाल भूमिका को कम करके नहीं आंका जा
सकता। लेकिन डॉक्टर आंबेडकर ने एक दिग्गज अर्थशास्त्री के तौर पर भी देश और दुनिया
के पैमाने पर बेहद अहम योगदान दिया, जिसकी चर्चा
कम ही होती है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले देश के पहले अर्थशास्त्री थे
डॉ आंबेडकर
आज भले ही ज़्यादातर लोग उन्हें भारतीय संविधान
के निर्माता और दलितों के मसीहा के तौर पर याद करते हों, लेकिन डॉ आंबेडकर ने अपने करियर
की शुरुआत एक अर्थशास्त्री के तौर पर की थी। डॉ आंबेडकर किसी अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सिटी
से अर्थशास्त्र में पीएचडी हासिल करने वाले देश के पहले अर्थशास्त्री थे। उन्होंने
1915 में अमेरिका की प्रतिष्ठित कोलंबिया यूनिवर्सिटी से
इकॉनमिक्स में एमए की डिग्री हासिल की। इसी विश्वविद्यालय से 1917 में उन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी भी की। इतना ही नहीं, इसके कुछ बरस बाद उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स से भी अर्थशास्त्र में
मास्टर और डॉक्टर ऑफ साइंस की डिग्रियां हासिल कीं। खास बात यह है कि इस दौरान
बाबा साहेब ने दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से डिग्रियां हासिल करने
के साथ ही साथ अर्थशास्त्र के विषय को अपनी प्रतिभा और अद्वितीय विश्लेषण क्षमता
से लगातार समृद्ध भी किया।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी में लिखे रिसर्च पेपर में ईस्ट इंडिया कंपनी के
भ्रष्टाचार का खुलासा किया
डॉ
आंबेडकर ने 1915 में एमए की डिग्री के लिए कोलंबिया
यूनिवर्सिटी में 42 पेज का एक डेज़र्टेशन सबमिट किया था।
“एडमिनिस्ट्रेशन एंड फाइनेंस ऑफ द ईस्ट इंडिया कंपनी” नाम से लिखे गए इस रिसर्च
पेपर में उन्होंने बताया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के आर्थिक तौर-तरीके आम भारतीय
नागरिकों के हितों के किस कदर खिलाफ़ हैं। कई विद्वानों का मानना है कि एमए के एक
छात्र के तौर पर लिखे गए इस रिसर्च पेपर में डॉ आंबेडकर ने जिस तरह बेजोड़ तार्किक
क्षमता के साथ दलीलें पेश की हैं,वो उनकी बेमिसाल प्रतिभा का
सबूत हैं।
युवा आंबेडकर के लेख ने भारतीय जनता के आर्थिक शोषण को उजागर किया
डॉ
आंबेडकर ने इस रिसर्च पेपर में ब्रिटिश राज की नीतियों की धारदार आलोचना करते हुए
तथ्यों और आंकड़ों की मदद से साबित किया है कि ब्रिटेन की आर्थिक नीतियों ने
भारतीय जनता को किस तरह बर्बाद करने का काम किया है। उन्होंने यह भी बताया है कि
अंग्रेजी राज ‘ट्रिब्यूट’और ‘ट्रांसफर’ के नाम पर किस तरह भारतीय संपदा की लूट
करता रहा है। आंबेडकर ने इस लेख में ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों भारतीय जनता के
शोषण को जिस तरह ठोस आर्थिक दलीलों के जरिये साबित किया है, वह उनकी गहरी देशभक्ति की मिसाल है। एमए के युवा छात्र के तौर पर लिखे गए
डॉक्टर आंबेडकर के इस रिसर्च पेपर की तुलना कई विद्वान दादा भाई नौरोजी की किताब
‘पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ से भी करते हैं, जिसमें
भारतीय संपदा की अंग्रेजी राज में हुई लूट का विश्लेषण करने वाली पहली अहम किताब
माना जाता है।
पीएचडी की थीसिस बनी पब्लिक फाइनेंस की अहम किताब
डॉक्टर
आंबेडकर ने 1917 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पीएचडी के
लिए जो थीसिस पेश की वह 1925 में एक किताब की शक्ल में
प्रकाशित भी हुई। ‘प्रॉविन्शियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’ के नाम से छपी इस
किताब को पब्लिक फाइनेंस की थियरी में अहम योगदान करने वाला माना जाता है। इस
किताब में उन्होंने 1833 से 1921 के
दरम्यान ब्रिटिश इंडिया में केंद्र और राज्य सरकारों के वित्तीय संबंधों की शानदार
समीक्षा की है। उनके इस विश्लेषण को उस वक्त भी सारी दुनिया में बड़े पैमाने पर
तारीफ मिली थी।
कोलंबिया
यूनिवर्सिटी में पोलिटिकल इकॉनमी के प्रोफेसर और जाने माने विद्वान एडविन रॉबर्ट
सेलिगमैन ने डॉ आंबेडकर की इस पीएचडी थीसिस की तारीफ करते हुए कहा था उन्होंने इस
विषय पर इससे ज्यादा गहरा और व्यापक अध्ययन सारी दुनिया में कहीं नहीं देखा है। डॉ
आंबेडकर की इस किताब को पब्लिक फाइनेंस की थ्योरी, खास
तौर पर फेडरल फाइनेंस के क्षेत्र में अहम योगदान करने के लिए जाना जाता है।
वित्त आयोग की स्थापना में डॉ आंबेडकर की थीसिस का बड़ा योगदान
बाबा
साहब ने बरसों पहले पीएचडी की थीसिस के तौर पर केंद्र और राज्यों के वित्तीय
संबंधों के बारे में जो तर्क और विचार पेश किए, उसे आजादी के
बाद भारत में केंद्र और राज्यों के आर्थिक संबंधों का खाका तैयार करने के लिहाज से
बेहद प्रासंगिक माना जाता है। कई विद्वानों का तो मानना है कि भारत में वित्त आयोग
के गठन का बीज डॉ आंबेडकर की इसी थीसिस में निहित है।
भारतीय कृषि की समस्याओं और छिपी हुई बेरोजगारी पर डाली रौशनी
1918 में उन्होंने खेती और फॉर्म होल्डिंग्स के मुद्दे पर एक अहम लेख लिखा,
जो इंडियन इकनॉमिक सोसायटी के जर्नल में प्रकाशित हुआ। इस लेख में
उन्होंने भारत में कृषि भूमि के छोटे-छोटे खेतों में बंटे होने से जुड़ी समस्याओं
पर रौशनी डालते हुए कहा था कि कृषि भूमि पर आबादी की निर्भरता घटाने का उपाय
औद्योगीकरण ही हो सकता है। खास बात यह है कि आंबेडकर ने अपने इस लेख में छिपी हुई
बेरोजगारी (Disguised Unemployment) की समस्या को उस वक्त
पहचान लिया था, जब यह अवधारणा अर्थशास्त्र की दुनिया में
चर्चित भी नहीं हुई थी।
अर्थशास्त्री आंबेडकर की सबसे चर्चित किताब: ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी’
एक
अर्थशास्त्री के तौर पर डॉ आंबेडकर की सबसे चर्चित किताब है ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी
: इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन।’ 1923 में
प्रकाशित हुई इस किताब में आंबेडकर ने जिस धारदार तरीके से अर्थशास्त्र के बड़े
पुरोधा जॉन मेयनॉर्ड कीन्स के विचारों की आलोचना पेश की है, वह
इकनॉमिक पॉलिसी और मौद्रिक अर्थशास्त्र पर उनकी जबरदस्त पकड़ का प्रमाण है। कीन्स
ने करेंसी के लिए गोल्ड एक्सचेंज स्टैंडर्ड की वकालत की थी, जबकि
आंबेडकर ने अपनी किताब में गोल्ड स्टैंडर्ड की जबरदस्त पैरवी करते हुए उसे कीमतों
की स्थिरता और गरीबों के हित में बताया था।
भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना में डॉ आंबेडकर की आर्थिक सोच का असर
अपनी
इस किताब में आंबेडकर ने न सिर्फ यह समझाया है कि सन 1800 से 1920 के दरम्यान भारतीय करेंसी को किन समस्याओं
से जूझना पड़ा, बल्कि इसमें उन्होंने भारत के लिए एक उपयुक्त
करेंसी सिस्टम का खाका भी पेश किया था। उन्होंने 1925 में
रॉयल कमीशन ऑन इंडियन करेंसी एंड फाइनेंस के सामने भी अपने विचारों को पूरी मज़बूती
के साथ रखा। अंगेज़ सरकार ने आंबेडकर के आर्थिक सुझावों पर भले ही अमल नहीं किया,
लेकिन जानकारों का मानना है कि उन्होंने भारतीय करेंसी सिस्टम का जो
खाका पेश किया, उसका रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना में
बड़ा योगदान रहा है।
आधुनिक भारत का आर्थिक ढांचा विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
डॉ
आंबेडकर ने सिर्फ आर्थिक सिद्धांतों और विश्लेषण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान
किया,
बल्कि आजादी के बाद सरकार का हिस्सा बनकर भी उन्होंने कई ऐसे काम
किए, जिसमें उनकी गहरी आर्थिक सूझबूझ का लाभ देश को मिला।
श्रम कानूनों से लेकर रिवर वैली प्रोजेक्ट्स और देश के तमाम हिस्सों तक बिजली
पहुंचाने के लिए जरूरी
बिजली-पानी जैसे अहम क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास में योगदान
देश
में सेंट्रल वाटर कमीशन और सेंट्रल इलेक्ट्रीसिटी अथॉरिटी जैसी अहम संस्थाओं की
शुरुआत भी उनके नेतृत्व में हुई थी। देश में बिजली के ढांचे के विकास का खाका 1940 के दशक में उस वक्त तैयार किया गया था, जब डॉ
आंबेडकर पॉलिसी कमेटी ऑन पब्लिक वर्क्स एंड इलेक्ट्रिक पावर के चेयरमैन हुआ करते
थे। उनका मानना था कि देश को औद्योगिक विकास के रास्ते पर आगे ले जाने के लिए देश
के तमाम इलाकों में पर्याप्त और सस्ती बिजली मुहैया कराना जरूरी है और इसके लिए एक
सेंट्रलाइज़्ड सिस्टम होना चाहिए।
आर्थिक विकास में महिलाओं, श्रमिकों
की भूमिका पर ज़ोर
देश
के आर्थिक विकास में महिलाओं के योगदान की अहमियत को हाइलाइट करने का काम भी
आंबेडकर ने उस दौर में किया था, जब इस बारे में कम ही लोग
बात करते थे या इस मसले की समझ रखते थे। महिलाओं को आर्थिक वर्कफोर्स का हिस्सा
बनाने के लिए मातृत्व अवकाश जैसी जरूरी अवधारणा को भी डॉ आंबेडकर ने ही कानूनी
जामा पहनाया था। श्रमिकों को सरकार की तरफ से इंश्योरेंस दिए जाने और लेबर से
जुड़े आंकड़ों के संकलन और प्रकाशन का विचार भी मूल रूप से डॉ आंबेडकर ने दिया था।
इसके अलावा गरीबी उन्मूलन, शिक्षा-औद्योगीकरण और बुनियादी
सुविधाओं की अहमियत जैसे कई मसलों पर देश को डॉक्टर आंबेडकर के अनुभव और
अर्थशास्त्री के तौर पर उनके ज्ञान का लाभ मिला।
उनके विचार में इंसान का जीवन स्वतंत्र होता है और इंसान को
स्वयं का विकास करना चाहिए उनके अनुसार शाम का विभाजन जातिगत आधार पर नहीं होना
चाहिए क्योंकि यह न केवल समाज में असमानता को जन्म देता है ,बल्कि इससे बेरोज़गारी भी बढ़ती है और जब कोई व्यक्ति बाध्यता में कोई
नौकरी करता है, तो वह अपनी क्षमता का 100% उपयोग उस नौकरी के लिए नहीं कर पाता है। साथ ही वह काम को निरंतर टालने
यानी दीर्घसूत्रता का भी शिकार होता है। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के अनुसार सभी
मनुष्य समान हैं और मनुष्य-मनुष्य के बीच समानता के इस विचार ने ही उन्हें न्याय-अन्याय
का विवेक उत्पन्न किया। स्वतंत्र भारत को आधुनिक भारत के निर्माण की ओर अग्रसर
किया और भारत को एक नया स्वरूप देने के लिए अपना अतुलनीय और अप्रतिम योगदान दिया।
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