मांगी तपिश, तो ठंडक कैसे मिले?
रेत उड़ाते घूम रहे हैं हम,
पत्तों पर
खड़े होकर शाखें काट रहे हैं हम,
रेगिस्तान की
तैयारी है,
और अब सपनों
में बागों को देख रहे हैं हम॥
गौर
कीजिएगा ज़्यादा पुरानी यादें नहीं है ये......
पेड़ों के पीछे छुपना...डालियों की मज़बूती का
जायज़ा लेते हुए पेड़ों पर चढ़ जाना...लंबे मैदानों में भी बेखौफ दौड़ना...मुर्गियों
के पीछे भागना...राह चलते मवेशियों के झुंड को हाथों से खेलते हुए उनके बीच में से
निकल जाना... नदी के घाटों से पानी में छलांग लगाना...किसी छोटे तालाब पर पानी की
सतह के नीचे पत्थर को यूं चलाने की होड़ लगाना कि छपाकों के अंतराल बनें...नहर की
पुलिया पर बैठकर घंटों बिताना...अमराई और अमरूद के बगीचों में खेलना..अंगूर की बेल
के तले खड़े होकर कच्चे अंगूरों के गुच्छोंके लिए ललचाना...नदी किनारे से ककड़ी
लेकर नदी के पानी में धोकर खाना...सड़क किनारे के खेतों से हरे चने तोड़कर खाना...खेत
से गन्ने लेकर चूसते हुए घूमना... रहट की आवाज़ें पहचानना...अहाते और आंगन का फ़र्क
समझना...पेड़ों के नीचे बने चबूतरो पर वृक्ष-से बुजुर्गों के साए में बैठना...बारिश
में बजते रास्तों को सुनना...बौछारों की आहट से पानी की तेज़ी का बिन देखे अंदाज़
लगाना... टपरे, फूस, छत और गली पर
गिरते पानी की आवाजों के अंतर को समझना......।
याद है ना?
कुछ
बचा है अब?
हमें
यह सब मिला था।
लेकिन
हमने इसे चाहा नहीं।
हमारी
पुरज़ोर ख्वाहिशों की तामीर को पूरी कायनात की साजिश की ताकत हासिल है। यह केवल
खूबसूरत, दिलफ़रेब जुमला नहीं है। सोलह आने सच है। यकीन करने के लिए हमारी आबोहवा, हमारी जिंदगियों के मौजूदा खस्त- बेदम हालात इस की निशानी देने के लिए काफ़ी
हैं।
हमने चाहे
चौड़े तेज़तर्रार रास्ते...हमेशा ही जल्दी से गंतव्य तक पहुंचा देने वाली गाड़ियां...हमने
चाहे ऊंचे मकान... सो मिले ना। चौड़े रास्ते पेड़ खा गए...खेत निगल गए...तो अब छांह
की चाहत क्यों?...इनकी तलाश क्यों? और
शिकायत भी क्यों?
चार-चार
सड़कों यानी फोरलेन पर दौड़ती तेज़ गाड़ियां हैं। जल्दी थी हमें, तो तेज़ रास्ते उस इच्छा को पूरा कर रहे हैं... अब राह के सुकून की तलाश
क्यों?
शहर
सिमट गए...गांव मिटने लगे... सड़कों के किनारे ठहरने के ठौरों के बीच जो मीठे पानी
के ठंडे सोते खोए, तो दुख क्यों है? पहाड़ काटकर...नदियां बांधकर अपने आप को बसा लिया है हमने। कमजोर हो चुके
पहाड़ों के हिस्से भारी बारिश नहीं सह पाते, गिरने लगते हैं, तो तकलीफ क्यों? लैंडस्लाइड से इतनी शिकायत क्यों? खुद-ब-खुद थोड़े ही अपनी जड़े हिला लीं उन्होंने?
इसमें हमने भी तो काम किया है...।
बारिश
तो धरा के लिए आती है...शहरों में उसके और धरती के बीच सीमेंट के अवरोध हैं। हमें
पानी चाहिए था तो बारिश का रास्ता क्यों नहीं साफ रखा? बादल तो पेड़ों पर चलकर आते हैं...उन्हें बुलाना था,
तो पेड़ क्यों नहीं मांगे? महामार्ग..महातीव्र...महाव्यस्त
और महागर्म है। यहां तो पानी भी रुकना नहीं चाहता। छांह काटकर ठंडक की बाट क्यों
जोह रहे हैं हम?
इतनी
विविधता वाले हमारे देश में अनाज की किस्में खो रही हैं...भोजन की थाली विदेशी
लगने लगी है...जानवर खतरे में हैं...पेड़-पौधे सिमटे जा रहे हैं। बढ़ रहा है, तो केवल इंसानों का आंकड़ा।
आसमान
के पार...धरती के तल में...हवाओं के परों पर...केवल कविताएं घर बनाती हैं, इंसान नहीं।
पृथ्वी का जो हाल है, वह किसी और ग्रह के प्राणियों की कारस्तानी नहीं है। मुंह छुपा कर धूप से
बच सकते हैं,सच से नहीं। सीधी सी बात है प्राकृतिक जीवन शैली
ही उत्तम है, जो धरा ने दिया, उसे फिर
उपयोग के लिए लौटा दिया जाए। यही सही क्रम है। कम से कम ऊर्जा खर्च करके गुजर बसर
करें, तो प्रकृति पर बोझ कम होगा। अपने ग्रह को उसकी
प्राकृतिक सेहत लौटएं…उसके लिए दुआएं करें...उसके लिए काम
करें।
जो चाह बूंदों की हो,
तो पेड़ों की डाली पहले तैयार करें,
फिर बादलों को न्योता भेजें॥
जो यह मांगा तो यह मिलेगा...जो यह मिल गया, तो फिर सारे सुख सुकून मिल जाएंगे...जो अब हमारी सुनहरी यादों का हिस्सा
बनने लगे हैं।
सबसे अहम बात हमारा घर...यह धरती...हमारा ग्रह
बच जाएगा आने वाली पीढ़ियों के सुख भरे बात के लिए।
आइए, ठंडक ढूंढने का प्रयास करने के लिए कुछ करें-
स्वच्छता बढ़ाएं,
कचरे को उसके स्रोत पर निपटाएं- स्वच्छता का मतलब
सिर्फ शौचालय नहीं होता। स्वच्छता का मतलब होता है, कचरा
उत्पन्न होने की मात्रा शून्य पर आकर टिक जाए। इसके लिए उपभोग घटाएं, हर चीज का अधिकतम संभव पुनः उपयोग हो। जो शेष बचे,
उसका उत्पन्न होने के स्रोत से न्यूनतम दूरी पर न्यूनतम समय में न्यूनतम खर्च में
सर्वश्रेष्ठ तरीके से निष्पादन हो। अभी भारत
कचरे को उसके स्रोत से दूर ले जाकर निष्पादित करने वाली प्रणालियों को
बढ़ावा देने में लगा हुआ है। लोग भी सीवेज पाइपों को ही विकास मान रहे हैं। गंदगी
जहां है, उसे वही मिटाएं, निपटाएं।
नदियां बहाएं, समुद्र बचाएं-
सबसे ज्यादा सतही जल नदियों और समुद्रों के पास है। नदियों का काम अपना मीठा जल
लेकर समुद्र के खारे जल में मिला देना है ताकि समुद्र का पानी इतना खारा न पड़ने
पाए कि समुद्री जीवन संकट में आ जाए अथवा समुद्र के किनारे रहने वालों का पेयजल
नमकीन विष से भर जाए। नदियों का जल समुद्र में जाकर उनके ज़रिए तापमान को भी नियंत्रित
करता है। समुद्र कचरे से ना भरे, उनकी जैविकी बचे और उसको
बचाने में आप प्रयास करें। नदियों को बांधें नहीं, बहने दें.....
नदी को नदी से नहीं, लोगों को नदियों से जोड़ें।
दिमाग चलाएं उत्सर्जन घटाएं- कंप्यूटर को हाइबरनेट
और या स्क्रीन सेवर मोड में रखने से ऊर्जा की बचत नहीं होती, बल्कि कार्बन उत्सर्जन और बढ़ जाता है। अगर अगले कुछ घंटे काम ना करना हो, तो कंप्यूटर बंद कर दें। उत्सर्जन घटाने के लिए कंप्यूटर चलाने की ही नहीं, भवनों में ऊर्जा संरक्षण और हरीतिमा की भी आचार संहिता बनानी होगी। घर
में एयर कंडीशनर नहीं, हरियाली लागाएं। हरियाली बढ़ेगी, गर्मियों में खिड़कियां व पर्दे खुलेंगे और हम पहनावे में हल्के व कम
रंगीन कपड़े चुनेंगे, तो एयर कंडीशनर लगाने की ज़रूरत ही नहीं
पड़ेगी या कम से कम एयर कंडीशनर चलाना
पड़ेगा।
खटारा को कहें अलविदा मेरे दोस्त!- लगभग
खटारा हो गए स्कूटर, कार, जीप, पंखे अथवा पुरानी हो गई डीज़ल मोटर, सामान्य से बहुत अधिक बिजली या ईंधन को खाती है, कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ाती है, इन्हें जल्दी से
जल्दी कबाड़ी को सौंप दें, ताकि वे किसी फैक्ट्री में जा कर पुनः हमारे काम की कोई चीज बना सकें। अब
हाइब्रिड वाहनों का ज़माना है, तो कम इंधन खाएं...काले जहरीले
धुएं का उत्सर्जन न करें और लाल बत्ती देखकर स्वतः गाड़ी बंद कर दें, अच्छा हो कि बैटरी से चलने वाली कार ले आएं या फिर साइकिल को ही अपना प्रिय
वाहन बनाएं।
आशा
है कि अब हम पृथ्वी को ठंडक पहुंचाने का प्रयत्न करते हुए कह सकेंगे-
पेड़ों की
शाखों पर झूल रहे हैं हम,
पत्तों, फूलों, कलियों को चूम रहे हैं हम,
हरीतिमा की
तैयारी है,
और अब प्रत्यक्ष
में बागों की तितलियों को देख रहे हैं हम॥
मीता गुप्ता
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