Tuesday, 30 May 2023

‘कसप’- मनोहर श्याम जोशी -एक समीक्षा

 

‘कसप’- मनोहर श्याम जोशी -एक समीक्षा




कुमाऊँनी में ‘कसप’ का अर्थ है ‘क्या जाने’। मनोहर श्याम जोशी का कुरु-कुरु स्वाहा ‘एनो मीनिंग सूँ?’ का सवाल लेकर आया था, वहाँ कसप’ जवाब के तौर पर ‘क्या जाने’ की स्वीकृति लेकर प्रस्तुत हुआ।  किशोर प्रेम की नितांत सुपरिचित और सुमधुर कहानी को ‘कसप’ में एक वृद्ध प्राध्यापक किसी अन्य (कदाचित् नायिका के संस्कृतज्ञ पिता) की संस्कृत कादंबरी के आधार पर प्रस्तुत कर रहा है। मध्यवर्गीय जीवन की टीस को अपने पंडिताऊ परिहास में ढालकर यह प्राध्यापक मानवीय प्रेम को स्वप्न और स्मृत्याभास के बीचोंबीच ‘फ्रीज’ कर देता है। मनोहर श्याम जोशी जी ने इस उपन्यास के शीर्षक के बारे में लिखा था, ‘इस कथा के जो भी सूझे, मुझे विचित्र शीर्षक सूझे। कदाचित इसलिए कि इस सीधी-सादी कहानी के पात्र सीधा-सपाट सोचने में असमर्थ रहे।

वस्तुतः एक प्रेम-कथा है ‘कसप’। भाषा की दृष्टि से कुछ नवीनता लिए हुए। कुमाऊँनी के शब्दों से सजी ‘कसप’ की हिंदी चमत्कृत करती है। इसी कुमाऊँनी मिश्रित हिंदी में मनोहरश्याम जोशी ने कुमाऊँनी जीवन का चित्ताकर्षक चित्र उकेरा है ‘कसप’ में। समीक्षकों ने ‘कसप’ को प्रेमाख्यानों में अज्ञेय के उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ के बाद की सबसे बड़ी उपलब्धि कहा है। ‘कसप’ मूलतः एक ऐसा उपन्यास है जिसमें मध्यवर्गीय मानसिकता कुलांचे भरती है। इसका दार्शनिक ढाँचा भी मध्यमवर्गीय यथार्थ पर टिका है। यही वह बिंदु है जहाँ ‘कसप’ अपने तेवर में ‘नदी के द्वीप’ से अलग ठहरता है। ‘नदी के द्वीप’ का तेवर बौद्धिक और उच्चवर्गीय है, जबकि ‘कसप’ एक ऐसा प्रेमाख्यान है जिसमें ‘दलिद्दर’ से लेकर ‘दिव्य’ तक का स्वर ‘मध्य’ पर ही ठहरता है और इस उपन्यास को सरसता, भावुकता और ग़ज़ब की पठनीयता से लबरेज करता है।

इस उपन्यास में 1910 के काशी से लेकर 1980 के हॉलीवुड तक की अनुगूँजों से भरा, गँवई, अनाथ, भावुक साहित्य-सिनेमा अनुरागी लड़के और काशी के समृद्ध शास्त्रियों की सिरचढ़ी, खिलंदड़, दबंग लड़की के संक्षिप्त प्रेम की विस्तृत कहानी सुनानेवाला यह उपन्यास एक विचित्र-सा उदास-उदास, मीठा-मीठा-सा प्रभाव मन पर छोड़ता है। ऐसा प्रभाव जो ठीक कैसा है, यह पूछे जाने पर एक ही उत्तर सूझता है – ‘‘कसप’!

‘कसप’ लिखते हुए मनोहर श्याम जोशी ने आंचलिक कथाकारों वाला तेवर अपनाते हुए कुमाऊँनी हिंदी में कुमाऊँनी जीवन का जीवन्त चित्र आँका है। इसी वजह से ‘कसप’ में कथावाचक की पंडिताऊ शैली के बावजूद एक अन्य ख्यात परवर्ती हिंदी प्रेमाख्यान गुनाहों का देवता जैसी सरसता, भावुकता और गजब की पठनीयता भी है। पाठक को बहा ले जानेवाले उसके कथा-प्रवाह का रहस्य लेखक के अनुसार यह है कि उसने इसे ‘‘चालीस दिन की लगातार शूटिंग में पूरा किया है।’’ ‘कसप’ के संदर्भ में सिने शब्दावली का प्रयोग सार्थक है क्योंकि न केवल इसका नायक सिनेमा से जुड़ा हुआ है बल्कि कथा-निरूपण में सिनेमावत् शैली प्रयोग की गई है।

वैसे तो इसे आसान लफ़्ज़ों में संज्ञातीत करना हो तो यही कहेंगे के एक असफल प्रेम कहानी है, पर मेरे हिसाब से ये पुस्तक उससे कहीं ज़्यादा है, कई चीज़ों को इंगित करती हुई। प्रेम तो पुस्तक के सेंटर में रचा बसा है ही, और आपका इस प्रेम संबंध को देखने का अपना अपना नज़रिया हो सकता है। वो कहते हैं ना, इश्क़ की दास्तान है प्यारे, अपनी अपनी ज़ुबान है प्यारे।।’!

वैसे यह किताब सिर्फ बेबी और डी डी की प्रेम कहानी ही नहीं है, यह कुमाऊंनी समाज, उसके रहन सहन का एक आइना भी है।। उपन्यास की भाषा मूलतः कुमाऊंनी ही है, और यह कहते मुझे कोई झिझक नहीं हो रही की रेणु के मैला आँचल के बाद यह आंचलिक बोली की सबसे बेहतरीन रचना है। कुमाऊंनी सामाजिक परिप्रेक्ष्य को लेखक ने जैसे कागज़ पे उकेर कर जीवंत कर दिया है। उदहारण के तौर पर ये देखिए किसी नवागंतुक के परिचय का तरीक़ा, “कौन हुए’ का सपाट सा जवाब परिष्कृत नागर समाज में सर्वथा अपर्याप्त माना जाता है। वैसे उपन्यास इस बात से भी पाठकों को इंगित कराती है की भाषा चाहे कोई भी हो, भावनाओं के संप्रेषण में कभी बाधक नहीं बनतीं।। उपन्यास में वह प्रसंग जहाँ नायक नायिका को पत्र लिखता है, पर नायिका उनको इतना गूढ़ पाती है कि वो पत्र अपने पिता को दे देती है, कि पढ़ें और उसे समझाएं कि उसके प्रेमी ने आखिर लिखा क्या है! अब ऐसे प्रसंगों से आपके चेहरे पे मुस्कान आएगी ही।  और जब उसके पिता उसे नायक के पत्र समझते हैं, तो नायिका जवाब में लिखती है, तू बहुत पढ़ालिखा है। तेरी बुद्धि बड़ी है। मैं मूरख हूँ। अब मैं सोच रही होसियार बनूँ करके। तेरा पत्र समझ सकूँ करके। मुसकिल ही हुआ पर कोसीस करनी ठहरी। मैंने बाबू से कहा है मुझे पडाओ।…।हम कुछ करना चाहें, तो कर ही सकनेवाले हुए, नहीं? वैसे अभी हुई मैं पूरी भ्यास (फूहड़)। किसी भी बात का सीप (शऊर) नहीं हुआ। सूई में धागा भी नहीं डाल सकने वाली हुई। लेकिन बनूँगी। मन में ठान लेने की बात हुई। ठान लूँ करके सोच रही।’ वैसे ही जैसे कि नायक नायिका अपने प्रेम के इज़हार करते हैं, ‘जिलेम्बू’ कहकर! कई शब्द सिर्फ शब्द न होकर प्रतीक हो गए हैं इस कहानी में, ‘मरगाठ’ क्या सिर्फ शब्द है, या एक मानसिक दशा?

जोशी जी की अन्य रचनाओं की तरह एक बात जो इस रचना में भी उभर कर आती है वो है मजबूत नारी चरित्र और लुंज-पुंज पुरुष करैक्टर। बेबी भले ही खिलंदड़ हो, अल्हड़ हो, उसमे एक स्थिरता है। जब एक बार उसने ठान लिया कि डी डी से ही करेगी ब्याह, स्वीकार करेगी उसको उसकी हर कमी के साथ, तो फिर उसका इरादा टस से मस नहीं हुआ। नायक को दे दिया जनेऊ, और मान लिया पति गणानाथ के सामने, वो भी तब जब उसका विवाह किसी और से तै हो चुका था। सारे समाज से भिड़ गयी वो और करा ली अपनी बदनामी …। नायक जब परिवार की दुहाई देता है तो फूट पड़ते हैं ये बोल उसके मुख से, ‘झे मुझसे सादी करनी थी कि मेरे घरवालों से? मुझसे करनी थी तो मैं कह रही हो गई सादी। मेरी सादी के मामले में मुझसे ज्यादा कह सकने वाला कौन हो सकने वाला हुआ? मैंने अपनी दादी की सादी वाला घाघरा-आँगड़ा पहनकर माँग में गणानाथ का सिंदूर भरकर अपने इजा-बाबू, ददाओं-बोज्यूओं सारे रिश्तेदारों के सामने कह दिया उसी दिन गरजकर : मेरी हो गई उस लाटे से सादी। कोई उस पर हाथ झन उठाना। कोई उसे गाली झन देना। तब उन्होंने कहा ठहरा : बच्चों का खेल समझ रखा सादी? अब तू भी वही पूछ रहा ठहरा।’ इसके बरक्श नायक हर समय दुविधा में ही दीखता है, आत्म प्रवंचना और आत्म संदेह से ग्रसित। कई बार उपन्यास पढ़ते समय ऐसा लगा कि  उसे झकझोरूँ और पूछूं कि  तू चाहता क्या है ? किस चीज़ की तलाश में अकारण बजे चला जा रहा है, भागे जा रहा है। ज़िंदगी तुझे ठहराओ देना चाह रही है, और तू है कि....। मुक़म्मल जहाँ मिलता नहीं है किसी को, उन्ही कमियों में मुक़म्मलता तलाशनी पड़ती है!

एक और चीज़ जो उभर कर सामने आती है वो है 1950 के दशक का भारतीय समाज। आज़ादी के बाद होती तब्दीलियां। आधुनिकता धीरे धीरे पैर पसार रही थी, सामाजिक परिवर्तन धीरे धीरे हो रहा था। एक और चीज़ जो उभर कर सामने आती है वह है, सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सफलता का मयार … आईएएस अधिकारी बनना भारत में उस समय शायद सफलता और कुलीन होने का सबसे बड़ा पैमाना माना जाता था…। नेहरुवियन भारत में अर्थ पैदा करने वालों की शायद उतनी पूछ नहीं थी, जितनी की अर्थ को व्यवस्थित और रेगुलेट करने वालों की। बेबी की जुबां में कहें तो ‘घोड़े की जीन’पर चाबुक चलनेवालों की पूछ घोड़े से कहीं ज़्यादा थी।

अब इस कालजयी रचना की रिव्यू क्या लिखूँ मैं? हिंदी साहित्य में जिसकी भी ज़रा भी अभिरुचि होगी, क्या नहीं पढ़ी होगी उसने ये किताब? क्या नहीं जानते होंगे लोग इसके कथानक को? क्या नहीं आयी होगी एक साथ उनके चेहरे पे मुस्कान और आँखों में नमी, इस उपन्यास को पढ़कर? सो ज़्यादा कुछ नहीं कहूँगी, बस इतना ही कि,वाह !  क्या उपन्यास है!

मीता गुप्ता

 

Friday, 26 May 2023

सुंदरता है कहां?

 

सुंदरता है कहां?



 

जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार!
जो तुम आ जाते एक बार!!

कमरे में आदमकद  शीशे के सामने बैठे हुए उसे काफी देर हो गई।  ना जाने यह दर्पण उसे क्या बता रहा है? अथवा वह खुद ही इस कांच के टुकड़े में कुछ ढूंढ रही है, जरीदार लाल साड़ी, हाथों में भरी-भरी लाल चूड़ियां...अंग प्रत्यंग में अपनी आभा विकीर्ण करते स्वर्ण आभूषण.. सिर में लाल रंग की रेखा बनाता सिंदूर, उसके नववधू होने की पहचान दे रहे थे, किंतु साज़ोसामान से भरा पूरा कमरा, ऐश्वर्यावान होने की गवाही देने के लिए काफी था। उसकी निजी थाती के रूप में अलमारी में करीने से सजी पुस्तकें यहां यह भी बता रही थी कि यहां विद्या निवास है।

धन-ऐश्वर्य-विद्या की अभिरुचि और उपस्थिति के बावजूद वह उदास थी। पलकें व्यथा के भार से बोझिल थीं।  मुख पर उभरने वाली आड़ी-तिरछी रेखाओं ने उदासी का स्पष्ट रेखांकन कर दिया था। मुख मनुष्य का भाव दर्पण होता है। इन्हीं गहन आयामों में होने वाली हलचलें इसमें उभरे बिना नहीं रह पातीं। अनायास उसने होठों को सिकुड़ कर माथे पर लकीरें बिखेरी और कुछ शब्द उसके मुख से फिसल गए। सौंदर्य किसे कहते हैं?  सुंदरता? शब्द अस्फुट होने के बावजूद स्पष्ट था। पता नहीं, किस से पूछा था उसने यह सवाल?

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

वैसे दिखने में यदि उसके नाक-नक्श तराशे हुए नहीं हैं, तो उन्हें कुरुप भी नहीं कहा जा सकता। अंधी, कानी, लंगड़ी, लूली, बहरी, तो वह है नहीं। सुंदरता की पहचान क्या महज चमड़ी की सफेदी है? मोहक चाल, इतराती मदभरी आंखें, तराशी हुई संगमरमरी देहयष्टि, जो अपना जो अपनी रूप ज्वाला में अनेक को झुलसा दे, उनके चरित्र चिंतन को अपने हाव भावों से दूषित कर दे अथवा व्यक्तित्व के गुणों का समुच्चय चरित्र, उच्च मानवीय गुणों से युक्त हो और कर्तृत्व सद्प्रवृत्तियों का निर्झर हो, जिसकी विशालता के कारण अनेक जिंदगियां विकसित हो सकें,उसके पूछे गए प्रश्न के यही दो उत्तर हैं, जो आदिकाल से वातावरण में गूंज रहे हैं-किसी एक को चुनना है, काश...

मेरा सजल मुख देख लेते!
यह करुण मुख देख लेते!

वह उठ खड़ी हुई। विषाद की लकीरे गहरी पड़ी। सोचने लगी। विवाह हुए अभी ज़्यादा दिन भी नहीं हुए। पति का उसके प्रति यह व्यवहार? ताने, व्यंग्य कटूक्तियों की मर्म पीड़क बौछार सुनते-सुनते उसका अस्तित्व छलनी हो गया है। यदि उसके पास वासनाओं को भड़काने वाली रूप राशि नहीं है, तो इसमें उसका क्या दोष है? गुणों के अभिवर्धन में तो वह बचपन से प्रयत्नशील रही है।  बेचैनी से उसके कदम कमरे की दीवारों का फ़ासला तय करने लगे।  विचारों की धारा प्रवाहमान हुई।  रूप-राशि भले दो जीवनों में क्षणिक आकर्षण पैदा करे पर संबंधों की डोर मृदुल व्यवहार के बिना कहां जुड़ पाती है? चरित्र की उज्ज्वलता के बिना कभी आपस में विश्वसनीयता पनपी है? रूप राशि क्या क्लियोपैट्रा के पास कम थी? उसकी रूप ज्वाला के अंगारों में मिस्र और रोम तबाह हो गए।  विश्व विजयी कहलाने वाला सीजर पतंगे की तरह जल भुन गया।

पर आज निर्णय की घड़ी है। निर्णय की घड़ी क्या, निर्णय हो चुका है। पति साफ़ कह चुक- मैं तुमको अपने साथ नहीं रख सकता।  उनकी दृष्टि में शरीर के अलावा और कुछ कहां देखा जाता है?  यदि देख पाते, का यदि दे पाते तो...काश,,,,। बेचैनीपूर्वक टहलते-टहलते पलंग पर बैठ गई। अचानक उसने घड़ी की ओर देखा। शाम के 5:15 हो चुके थे। अब तो वे आने ही वाले होंगे। नारी सदियों से एक वस्तु रही है, पुरुष के पुरुष हाथों का खिलौना। याद आने लगा उसे इतिहास की अध्यापिका का वह कथन-यूनान के भारत में प्रवेश के बाद मगध में नारियों की हाट लगने लगी। रुप विक्रेता नारी के लज्जा वसन तक तार-तार कर फेंक देते। खरीदार आकर उन्हें इस तरह टटोलते, जैसे कोई कसाई देख रहा हो कि पशु में कितना मांस है? महामति चाणक्य ने इस घिनौनी प्रथा का अंत कराया। अब कहां है चाणक्य? कहां स्थित है वह ब्राह्मणत्त्व? आज क्या नारी नहीं बिकती? सोचते-सोचते उसका मन विकल हो उठा।

तभी दरवाजे पर बूटों की खड़खड़ आहट सुनाई दी। शायद....मन में कुछ कौंधा। अपने को स्वस्थ सामान्य दिखाने की कोशिश करने लगी। थोड़ी देर में सूटेड बूटेड ऊंचे गठीला शरीर के एक नवयुवक ने प्रवेश किया। उसके मुख मंडल पर पुरुष होने का गर्व था। एक उचटती सी नजर उस पर डालकर वह कुर्सी पर बैठा। वह प्रश्न दाग बैठा-हां तो क्या फैसला किया तुमने? घुटन या संघर्ष में से वह पहले ही संघर्ष चुन चुकी थी ।पति का निर्णय अटल था। अतः उसने बंधनों से मुक्ति पा ली। अधूरी पढ़ाई फिर चली। समय के सोपानों के साथ उसने कदम बढ़ाए। बढ़ते कदमों ने उसे स्वातंत्र्य यज्ञ का होता बनाया। संवेदना शक्ति बनी। गुणों के वृक्ष पर कविता के पुष्प खिले और यह कविता बनती चली गई। नारी की अनकही संवेदनाओं की कथा साहित्य के क्षितिज पर एक निहारिका का अवतरण हुआ, जिसने भावों के ब्रह्मांड संजोए थे और कहती रहीं मैं नीर भरी दुख की बदली । कविता के भजन-भवन में उसका सौंदर्य दीपशिखा बन चमका।  भावना के सौंदर्य से भरी इस महीयसी को भारत देश में महादेवी के रूप में जाना।

 शत शत नमन !!!

यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो

सांसों की समाधि सा जीवन,
मसि-सागर का पंथ गया बन
रुका मुखर कण-कण स्पंदन,
इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!

यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो1

 

हिंदी पत्रकारिता:जन सरोकार की पत्रकारिता

                                             हिंदी पत्रकारिता:जन सरोकार की पत्रकारिता

                                              https://youtu.be/UUyNo3EmwuY




हिंदी पत्रकारिता जन सरोकार की पत्रकारिता है, जिसमें माटी की खुशबू महसूस की जा सकती है। समाज का प्रत्येक वर्ग फिर चाहे वो किसान हो, मजदूर हो, शिक्षित वर्ग हो या फिर समाज के प्रति चिंतन-मनन करने वाला आम आदमी सभी हिंदी पत्रकारिता के साथ अपने को जुड़ा हुआ मानते हैं।


30 मई 'हिंदी पत्रकारिता दिवस' देश के लिए एक गौरव का दिन है। आज विश्व में हिंदी के बढ़ते वर्चस्व व सम्मान में हिंदी पत्रकारिता का विशेष योगदान है। हिंदी पत्रकारिता की एक ऐतिहासिक व स्वर्णिम यात्रा रही है, जिसमें अनेक संघर्ष, कई पड़ाव व सफलताएं भी शामिल है। स्वतंत्रता संग्राम या उसके बाद के उभरते नए भारत की बात हो, तो उसमें हिंदी पत्रकारिता के भागीरथ प्रयास को नकारा नहीं जा सकता। हिंदी पत्रकारिता सही मायनों में सरकार व जनता  के बीच एक सेतु का कार्य करती है। डिजिटल भारत के निर्माण में भी हिंदी पत्रकारिता का अपना एक विशेष महत्त्व दिखाई देता है।

हिंदी पत्रकारिता व मूल्य बोध:

हिंदी पत्रकारिता कि जब हम बात करते हैं तो मूल्य बोध उसकी आत्मा है। भारत में हिंदी पत्रकारिता का प्रारंभ हुआ 30 मई 1826 में पहले साप्ताहिक समाचार पत्र 'उदंत मार्तंड' जिसे पंडित जुगल किशोर ने शुरू किया के साथ हुआ। अपने पहले ही संपादकीय में उन्होंने लिखा कि उदंत मार्तंड हिंदुस्तानियों के हितों लिए है। भारतीयों के हितों की रक्षा और राष्ट्र के सर्वोन्मुखी उन्नयन के लिए समाचार पत्र और मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। जिस दौर में उदंत मार्तंड शुरू हुआ था वह दौर पराधीनता का दौर था। भारत की पत्रकारिता का पहला लक्ष्य था राष्ट्रीय जागरण और भारत की स्वाधीनता के यज्ञ को तीव्र करना। ऐसे महान उद्देश्य को लेकर भारत की पत्रकारिता की शुरुआत हुई। यह भारत की पत्रकारिता का सर्वप्रथम मूल्य बोध है कि मीडिया या पत्रकारिता किसी भी कारण से राष्ट्र और समाज के हित से विरक्त नहीं हो सकती। और इसीलिए पत्रकारिता के प्रति भारत का जन विश्वास हुआ। 

आज जब हम यह कहते हैं कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है तो ऐसे ही नहीं कह देते। मीडिया ने अपनी भूमिका से यह साबित किया है कि समाज की अंतिम पंक्ति में जो सबसे दुर्बल व्यक्ति खड़ा है, उसके हितों की रक्षा के लिए कोई साथ है तो वह पत्रकारिता है। इन्हीं वजहों से अखबार को आम आदमी की आवाज़ कहा जाता था। इसी मूल्य बोध के कारण, उसका समर्पण व्यवसाय के लिए नहीं था। अखबार का या मीडिया का समर्पण देश एवं समाज के हितों के लिए साथ ही कमज़ोर व्यक्तियों के कल्याण की कामना के प्रति समर्पित था। यह जो जीवन दृष्टि है पत्रकारिता की यही वास्तव में पत्रकारिता की ख्याति है। वक्त के साथ बहुत सारी चीजें बदलती है, आज हम अपने स्वार्थ के हिसाब से उनके अर्थों को भी नए तरीके से परिभाषित करते हैं, लेकिन जो आत्मा है वह कभी बदलती नहीं है। उसकी पवित्रता, उसकी जीवंतता, उसकी व्यापकता, सत्य है। जैसे हम कहते हैं कुछ चीजें सर्वदा सत्य होती हैं, सूर्य पूर्व से निकलता है। यह निश्चित सत्य है, वैश्विक सत्य है, यह बदल नहीं सकता। हम आज व्यवसाय और व्यावसायिक होड़ की बात कहकर पत्रकारिता को चाहे अलग-अलग तरीके से परिभाषित करें, लेकिन पत्रकारिता का मूल्य धर्म जो है, लोक कल्याण राष्ट्रीय जागरण और ऐसे हर दुर्बल व्यक्ति के साथ खड़े होना उसके अधिकारों, हितों के लिए लड़ना, जिसका कोई सहारा नहीं है। इस मूल्य को लेकर भारत की पत्रकारिता का उदय हुआ।

पत्रकारिता व साहित्य का अभेद संबंध:

साहित्य व पत्रकारिता का कार्य है ठहरे हुए समाज को सांस और गति देना। जो समाज बनने वाला है, उसका स्वागत करना। समाज को सूचना देना व जागरुक करना, नई रचनाशीलता और नई प्रतिभाओं को सामने लाना। साहित्य व पत्रकारिता की यही ज़रूरी शर्त है। इसलिए यह एक अटल सत्य है कि साहित्य व पत्रकारिता दोनों अन्योन्याश्रित है, दोनों अभेद है। जहां साहित्यकारों ने अच्छी पत्रिकाएं निकालीं, वहीं कई अच्छे पत्रकार यशस्वी साहित्यकार भी बनें, यशस्वी साहित्य भी पैदा किया। इस तरह दोनों का एक अभेद हमें दिखाई देता है ।अपने प्रारंभिक समय से और अब तक क्योंकि पत्रकारिता में साहित्य संभव नहीं था और बिना साहित्य के उत्कृष्ट पत्रकारिता संभव नहीं है। पत्रकारिता को साहित्य से शक्ति मिलती है, इसके विकास में साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है। महर्षि नारद को हमारी परंपरा में आदि पत्रकार कहा गया हैं। उन्होंने जो भी प्रयत्न किए, उनका उद्देश्य लोकमंगल ही होता था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि पत्रकारिता अपने उद्भव के उषाकाल से ही लोकमंगल का संकल्प लेकर चली है, ठीक इसी तरह साहित्य में भी लोकमंगल ही उसके केंद्र में है। हिंदी पत्रकारिता की शुरूआत होती है, एक सीमित संसाधन और कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति से, जिनके पास मीडिया हाउसेस नहीं थे , लेकिन बावजूद इसके उनका संकल्प बहुत बड़ा था। आगे चलकर उस संकल्प का परिणाम भी हमें दिखाई देता है। कालांतर में राजा राममोहन राय की प्रेरणा से बंग दूत 4 भाषाओं अंग्रेजी, हिंदी, फ़ारसी और बंगला में निकलता हैं। साल 1854 में हिंदी का पहला दैनिक समाचार पत्र सुधावर्शण नाम से श्याम सुंदर सेन ने प्रकाशित किया। पत्रकारिता की उद्भव भूमि कलकत्ता (कोलकाता) बनता है । समय के साथ-साथ धीरे-धीरे इन समाचार पत्रों का प्रभाव कोलकाता से लेकर संयुक्त अवध प्रांत तक होता गया और फिर काशी और प्रयाग में अखबार निकलने प्रारंभ हो गए। 1845 में शुभ सात सितारे, शुभ शास्त्र, हिंद की प्रेरणा से बनारस से अखबार निकलता है। इस लंबे काल तक समाचार पत्र और हिंदी पत्रकारिता अपना विकास यात्रा तय करती है तो अपने साथ-साथ एक उत्कृष्ट साहित्य और यशस्वी साहित्यकारों को लेकर चलती है । 1920 में जब छायावाद युग आता है तब जबलपुर से ‘शारदा’ नामक एक पत्रिका का प्रकाशन होता है जिसमें मुकुटधर पांडे ने छायावाद शीर्षक लेख लिखे थे और जिससे छायावाद के उद्भव की बात की थी जहां से छायावाद जुड़ने की बात की थी और वो साबित करते हैं के इस समय वे द्विवेदी युगीन कवि थे उनकी रचनाओं में भी छायावादी तत्व, सांकेतिकता के तत्व दिखाई देते हैं। हमारे यहाँ अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे यह साबित होता है कि पत्रकारिता यदि साहित्य से मिल जाए तो वैचारिक क्रांति का जन्म होता है।

इंटरनेट मीडिया में बढ़ता हिंदी का वर्चस्व:

आज के दौर में डिजिटल व सोशल मीडिया पर हिंदी के बढ़ते वर्चस्व को नकारा नहीं जा सकता। आजकल जब लगभग हर मीडिया हॉउस, संस्था, व्यक्ति, सरकार, कंपनी, साहित्यकर्मी से समाजकर्मी तक और नेता से अभिनेता को सोशल मीडिया में उसकी सक्रियता, उसको फॉलो करने वाले लोगों की संख्या के आधार पर उसकी लोकप्रियता को तय किया जाता है। ऐसे में इन सबके द्वारा ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए हिंदी या स्थानीय भाषा का प्रयोग दिखाई देता है। भारत में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के पोर्टल्स का भविष्य भी बहुत उज्ज्वल है। हिंदी पढ़ने वालों की दर प्रतिवर्ष 94 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही है जबकि अंग्रेजी में यह दर 19 प्रतिशत के लगभग है। यही कारण है कि तेजी से नए पोर्टल्स सामने आ रहे हैं। इनके आने का भी कारण यही है कि आने वाला समय हिंदी पोर्टल का समय है। पोर्टल पर जो भी लिखा जाए वह सोच समझ कर लिखना चाहिए क्योंकि अखबार में तो जो छपा है वह एक ही दिन दिखता है, लेकिन पोर्टल में कई सालों के बाद भी लिखी गई खबर स्क्रीन पर आ जाती है और प्रासंगिक बन जाती है। एंड्रॉयड एप्लीकेशन ने हम सभी को इंफॉर्मेशन के हाईवे पर लाकर खड़ा कर दिया है। रेडियो को 50 लाख लोगों तक पहुंचने में 8 वर्ष का समय लगा था। जबकि डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू को 50 लाख लोगों तक पहुंचने में केवल 2 साल का समय लगा। आज हमारे देश में 80% रीडर मोबाइल पर उपलब्ध हैं आज देश ही नहीं पूरी दुनिया जब डिजिटल की राह पर आगे बढ़ रही है तो कहना गलत न होगा कि ऐसे परिवेश में हिंदी जैसी भाषाओं की व्यापकता और आसान हो गई है। डिजिटल व‌र्ल्ड में तकनीक के सहारे हिंदी जैसी भाषाओं को खास प्राथमिकता दी जा रही है।

विश्व में लगभग 200 से अधिक सोशल मीडिया साइटें हैं जिनमें फेसबुक, ऑरकुट, माई स्पेस, लिंक्डइन, फ्लिकर, इंटाग्राम सबसे अधिक लोकप्रिय हैं। दुनियाभर में फेसबुक को लगभग 1 अरब 28 करोड़, इंस्टाग्राम को 15 करोड़, लिंक्डइन को 20 करोड़, माई  स्पेस को 3 करोड़ और ट्विटर को 9 करोड़ लोग प्रयोग में ला रहे हैं। इन सभी लोकप्रिय सोशल मीडिया साइटों पर हिंदी भाषा ही सबसे ज़्यादा प्रयोग की जाने वाली भाषा बनी हुई है। स्मार्टफोन पर चलने वाली वाहट्सएप्प मैसेंजर तत्क्षण मैसेंजिंग सेवा में तो हिंदी ने धूम मचा रखी है। जिस तरह से आज समाज के हर वर्ग ने डिजिटल व सोशल मीडिया को अपनी स्वीकृति दी है उससे पूरी संभावना है कि डिजिटल युग में भी हिंदी पत्रकारिता के भविष्य की अपार संभावनाएं हैं।

हिंदी पत्रकारिता का स्थान दुनियाभर में पहले से बढ़ा है व निरंतर और भी बढ़ रहा है। आज हिंदी व स्थानीय भाषाओं में कंटेंट लिखने वाले दक्ष पेशेवरों की मांग बढ़ रही है। हिंदी पत्रकारिता वास्तव में संचार की शक्ति रखती है। इसलिए आज हिंदी पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तियों का उत्तरदायित्व पहले से अधिक हो गया है। हिंदी में अंग्रेजी के बढ़ते स्वरुप के प्रति भी हमें सतर्क होना होगा। हिंदी भाषा को भ्रष्ट होने से बचाना होगा। हिंदी के सही स्वरुप को बनाए रखने के लिए हमें एक योद्धा के रुप में काम करना होगा। युवाओं में हिंदी को रोज़गार की भाषा के रूप में प्रस्तुत करना होगास ।हिंदी पत्रकारिता के केंद्र में सदैव समाज हित व राष्ट्र हित को अपनी प्राथमिकता बनाना होगा। यही संकल्प व प्रतिबद्धता वास्तव में भविष्य की हिंदी पत्रकारिता के मार्ग को प्रशस्त करेगा। 

मीता गुप्ता

Sunday, 21 May 2023

बॉडी शेमिंग

 

                                                                         बॉडी शेमिंग


हम सभी की अपनी असुरक्षाएं हैं। चाहे हम अपने वज़न, अपनी सामाजिक आर्थिक स्थिति, अपनी शारीरिक बनावट या अपनी नौकरी के संबंध में असुरक्षा से निपटते हों, हम सभी असुरक्षित होने की भावनाओं का अनुभव करते हैं। हमारी व्यक्तिगत असुरक्षाएं केवल तभी बदतर हो सकती हैं, जब दूसरे लोग उनका फ़ायदा उठाते हैं। जब कोई व्यक्ति विशेष रूप से सार्वजनिक सेटिंग में हमारी कमज़ोरियों को उजागर करता है, तो यह व्यक्ति का सबसे बड़ा डर बन सकता है क्योंकि यह शर्मिंदगी, चिंता, उदासी, क्रोध, भय, कम आत्म-मूल्य, कम आत्म-छवि, कम आत्म-सम्मान आदि को बढ़ावा दे सकता है।

कुछ मामलों में, जो व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की कमज़ोरी के बारे में बताता है, वह यह पूरी मासूमियत कर रहा होता है। हालांकि, अन्य मामलों में, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की असुरक्षाओं से पूरी तरह अवगत हो सकता है और जानबूझकर सार्वजनिक रूप से, उन्हें इंगित करता है। यह शर्मनाक है।कभी गोरे होने की, कभी लंबे होने की, कभी पतले, तो कभी अनचाहे बाल हटाने, तो कभी गंजेपन को दूर करने की गारंटी देने वाले विज्ञापन बॉडी शेमिंग का फ़ायदा उठाते हैं, उसे कैश करते हैं और हमें हीन भावना से भरने का काम करते हैं। दरअसल बॉडी शेमिंग किसी की शारीरिक विशेषताओं के लिए उन्हें अपमानित और उनकी आलोचना करने की क्रिया  है। बॉडी शेमिंग का दायरा विस्तृत है और इसमें शामिल हैं-फैट-शेमिंग,पतलेपन के लिए शेमिंग, हाइट-शेमिंग, बालों के रंग की शेमिंग (या इसकी कमी), बालों का रंग, शरीर का आकार, किसी का मांसलता (या उसकी कमी), लिंग के आकार या स्तन के आकार, दिखने (चेहरे की विशेषताएं) आदि। और इसके व्यापक अर्थों में टैटू और पियर्सिंग या ऐसी बीमारियाँ भी शामिल हो सकती हैं जो शारीरिक निशान छोड़ती हैं जैसे कि सोरायसिस।

संदेशों, फिल्मों, किताबों, मीडिया और पारस्परिक सामाजिक संपर्कों में आकर्षकता पर अत्यधिक ज़ोर दिया जाता है। अध्ययन किए गए 64% वीडियो में मोटे चरित्रों को अनाकर्षक, दुष्ट, क्रूर और अमित्र के रूप में चित्रित किया गया। बॉडी शेमिंग के कुछ रूपों की उत्पत्ति लोकप्रिय अंधविश्वास से हुई है, जैसे कि काले या सांवले रंग के लोग दुष्ट तथा गोरे सदैव अच्छे बताए गए। कभी-कभी बॉडी शेमिंग इस धारणा तक बढ़ सकती है कि कोई पुरुषत्व या स्त्रीत्व को पर्याप्त रूप से प्रदर्शित नहीं करता है। उदाहरण के लिए, चौड़े कूल्हे वाले पुरुष, उभरे हुए स्तन, या चेहरे पर बालों की कमी कभी-कभी स्त्रैण दिखने के लिए शर्मिंदा होती है। ठीक ऐसा ही स्त्रियों को पुरुषों के समान चेहरे पर बाल होने या बॉडी- स्ट्र्क्चर ब्रॉड होने से झेलना पड़ता है। बॉडी शेमिंग के कारण आत्महत्या 15-19 वर्ष के बच्चों में मृत्यु का एक प्रमुख कारण है। बॉडी शेमिंग के व्यापक स्तर के नकारात्मक भावनात्मक प्रभाव हो सकते हैं, जिसमें कम आत्मसम्मान और खाने के विकार, चिंता, शरीर की छवि में गड़बड़ी,  बॉडी डिस्मॉर्फिक विकार और अवसाद जैसे मुद्दों का विकास शामिल है। ये विकार विशेष रूप से और बिगड़ सकते हैं, जब लोगों को लगता है कि उनका शरीर सामाजिक मानदंडों को पूरा नहीं कर सकता है।

बॉडी शेमिंग अभी भी सामान्य बातचीत का एक हिस्सा नहीं बन पाया है, इसीलिए कुछ लोग अपने फ़ायदे के लिए उन्हें गुमराह करते हैं। हमारा समाज में ऐसा समाज है, जो अक्सर मीडिया या अभिनेताओं द्वारा समर्थित होता है और सांकेतिक रूप से दिखाता है कि रूप को सामाजिक मानदंडों के अनुसार ढालने के लिए कॉस्मेटिक के साथ-साथ प्लास्टिक सर्जरी, बोटोक्स आदि का सहारा भी वर्जित नहीं होता। यह किसी व्यक्ति पर उसके अपने सामाजिक और परिप्रेक्ष्य जीवन के अनुसार कई प्रकार के प्रभाव डाल सकता है, जिससे उसका आत्मसम्मान को काफी हद तक खतरे में पड़ सकता है। दुनिया भर में होने वाली सभी मौतों में से लगभग 1.3% मौतें इन्हीं कारणों से हो रही हैं।

बॉडी शेमिंग किसी व्यक्ति के शरीर के बारे में कुछ नकारात्मक कहने की क्रिया है। यह आपके अपने शरीर या किसी और के बारे में हो सकता है। टिप्पणी किसी व्यक्ति के आकार, आयु, बाल, कपड़े, भोजन, बाल या कथित आकर्षण के स्तर के बारे में हो सकती है। बॉडी शेमिंग से खाने के विकार, अवसाद, चिंता, कम आत्मसम्मान और बॉडी डिस्मॉर्फिया सहित मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हो सकती हैं, साथ ही साथ अपने शरीर से नफरत करने की सामान्य भावना भी हो सकती है।

हमारे वर्तमान समाज में, बहुत से लोग सोचते हैं कि पतले शरीर स्वाभाविक रूप से बड़े शरीरों की तुलना में बेहतर और स्वस्थ होते हैं। हालांकि, ऐतिहासिक रूप से हमेशा ऐसा नहीं रहा है। यदि आप 1800 के युग से पहले के चित्रों और चित्रों के बारे में सोचते हैं, तो आप देख सकते हैं कि मोटापन पूजनीय था। मोटा होना एक संकेत था कि एक व्यक्ति अमीर था और भोजन तक उसकी पहुंच थी, जबकि पतलापन गरीबी का प्रतिनिधित्व करता था। अपनी पुस्तक ‘फैट शेम: स्टिग्मा एंड द फैट बॉडी इन अमेरिकन कल्चर’ में, लेखक एमी एर्डमैन फैरेल ने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में कहा कि आहार और बड़े पैमाने पर शरीर पर ध्यान महिलाओं के आसपास केंद्रित था। लेखक सबरीना स्ट्रिंग्स का कहना है कि उनकी पुस्तक ‘फीयरिंग द ब्लैक बॉडी: द रेसियल ऑरिजिंस ऑफ फैट फोबिया’ में उपनिवेशवाद और नस्ल के कारण फैटफोबिया हुआ।मरियम-वेबस्टर डिक्शनरी के अनुसार, ‘बॉडी शेमिंग’ शब्द का पहला ज्ञात प्रयोग पत्रकार फिलिप एलिस द्वारा किया गया था।

बॉडी शेमिंग के विभिन्न रूप-

वेट शेमिंग-लोगों के शरीर को लेकर शर्मिंदा होने के सबसे आम कारणों में से एक उनका वज़न है। किसी को ‘बहुत बड़ा’ या ‘बहुत पतला’ होने के लिए शर्मिंदा होना पड़ सकता है। किसी व्यक्ति के ‘मोटे’ होने के बारे में कुछ भी नकारात्मक कहना बॉडी शेमिंग है। इसे ‘फैट-शेमिंग’ के रूप में भी जाना जाता है। मोटी-शर्मनाक टिप्पणियां इस तरह की होती हैं जैसे ‘वे वज़न कम करने पर सुंदर होंगे,’ या ‘मुझे यकीन है कि उन्हें फिट होने के लिए एक अतिरिक्त हवाई जहाज का टिकट खरीदना होगा।’ पतले शरीर वाले लोग भी अपने वज़न के लिए शर्मिंदा हो सकते हैं। अक्सर स्किनी-शेमिंग कहा जाता है, यह ऐसा लग सकता है, ‘वे ऐसे दिखते हैं, जैसे उन्हें खाने को नहीं मिलता या ‘वे ऐसे दिखते हैं, जैसे उन्हें खाने का विकार है।’

हेयर शेमिंग-कुछ स्वास्थ्य स्थितियों वाले लोगों को छोड़कर सभी लोगों के हाथ, पैर, निजी भागों और अंडरआर्म्स पर बाल उगते हैं। हालांकि, बहुत से लोगों का यह विचार है कि महिलाओं को अपने शरीर के सभी बालों को हटा देना चाहिए, नहीं तो वे ‘लेडीलाइक’ नहीं होंगी। पुरुषों को गंजेपन की स्थिति में शेमिंग का शिकार होना पड़ता है। भारतीय समाज ने लंबे समय से चिकने, चमकदार, सीधे बालों को आदर्श माना है। इस प्रकार, कर्ल, किंक या अन्य बनावट वाले बालों को कम आकर्षक के रूप में देखा गया है। इसे टेक्सचर शेमिंग के रूप में जाना जाता है।

लुक शेमिंग- समाज में कुछ लोगों को अनाकर्षक समझे जाने के लिए धमकाया जाता है, जिसे ‘लुकिज़्म’ भी कहा जाता है। लुकिज़्म उन लोगों के प्रति पूर्वाग्रह या भेदभाव का वर्णन करता है, जिन्हें शारीरिक रूप से अनाकर्षक माना जाता है या जिनकी शारीरिक बनावट को सुंदरता के सामाजिक मानदंडों के अनुरूप नहीं समझा जाता। इसका एक उदाहरण यह है कि कैसे अनाकर्षक लोगों को नौकरी के कम अवसर मिलते हैं, विशेषतः रेसेपशनिस्ट जैसी नौकरियों में।

फूड शेमिंग- आमतौर पर शेमिंग शरीर के आकार के संबंध में किया जाता है, पर कुछ लोग इस बात पर गहरी नज़र रखते हैं कि आप वेजिटेरियन हैं वीगन हैं या नॉन वेजिटेरियन। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति इस बारे में टिप्पणी करता है कि कोई व्यक्ति क्या खा रहा है या क्या नहीं खा रहा है, तो उसे फूड-शेमिंग माना जा सकता है। कोई कह रहा है, ‘वे ऐसे दिखते हैं कि उन्हें वह खाने की ज़रूरत नहीं है,’ फ़ूड शेमिंग का एक उदाहरण है। कभी-कभी आप खुद को फूड-शेम भी करने लगते हैं। उदाहरण के लिए, आप कह सकते हैं, ‘मैं बहुत मोटा हूँ, मुझे चीज़ या केक का यह टुकड़ा नहीं खाना चाहिए।’

एज शेमिंग-काली घोड़ी, लाल लगाम या इस प्रकार की भद्दी टिप्पणियां हमने खूब सुन रखी हैं। अपनी आयु को कम बताना, आप तो चालीस की नहीं लगतीं सुनकर खुश होना या वे इतना मेकअप लगा के लिए बहुत बूढ़े हैं।’ जैसी बातें एज शेमिंग के ही उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त, समाचारों के विज्ञापन और लेख दिखाते हैं कि मेकअप न पहनने पर ‘खराब’ या ‘पुरानी’ हस्तियां कैसे दिखती हैं, शर्मनाक हैं। किसी की झुर्रियों या ढीली त्वचा के बारे में नकारात्मक टिप्पणी करना बॉडी शेमिंग का दूसरा रूप है।

बुजुर्गों की बॉडी शेमिंग-हम बॉडी शेमिंग के बारे में सोचते हैं, जो सोशल मीडिया और इंटरनेट युग की निरंतर पहुंच के कारण मुख्य रूप से युवा पीढ़ी को प्रभावित करता है। सच तो यह है कि बॉडी शेमिंग बुजुर्ग आबादी सहित सभी उम्र के लोगों को प्रभावित करता है। उनकी चलने की क्षमता में समस्या,ख़राब नज़र, वॉकर या व्हीलचेयर जैसी सहायता की आवश्यकता, बालों का झड़ना, झुर्रीदार त्वचा, दाँत का गिरना आदि उम्र के कारण उत्पन्न विकार बॉडी शेमिंग का कारण बनते हैं।ये सभी प्राकृतिक परिवर्तन हैं, जो सभी मनुष्य उम्र बढ़ने के साथ अनुभव करेंगे। जब इसके लिए अन्य बुजुर्गों, उनके बच्चों, या अजनबियों द्वारा शरीर को शर्मसार किया जाता है, तो यह उनकी चिंताओं को बढ़ा सकता है।

बॉडी शेमिंग के मानसिक स्वास्थ्य पर असंख्य नकारात्मक परिणाम होते हैं। इससे किशोर शारीरिक शर्मिंदगी का शिकार होते हैं, उनमें अवसाद का काफी अधिक जोखिम होता है, इससे खाने के विकार हो सकते हैं, अधिक खाने पर काबू पाने का प्रयास करने वाली मोटापे से ग्रस्त महिलाओं के लिए बॉडी शेमिंग के परिणाम बिगड़ जाते हैं और बॉडी शेमिंग किसी के शरीर के प्रति असंतोष पैदा कर सकता है, जो बाद में कम आत्म-सम्मान का कारण बन सकता है। बॉडी शेमिंग से जुड़ी अतिरिक्त मानसिक स्वास्थ्य चिंताओं में शामिल हैं-शारीरिक कुरूपता का विकार, अवसाद, खुद को नुकसान पहुँचाने या आत्महत्या करने का अधिक जोखिम, जीवन की खराब गुणवत्ता (शरीर के असंतोष के कारण),मनोवैज्ञानिक असंतुलन आदि।

अधिक समावेशी कैसे बनें?

*    बॉडी शेमिंग न करने के अलावा, हमें बॉडी-इनक्लूसिव भी बनना चाहिए। इसका अर्थ है रूप और आकार की विविधता की स्वीकृति, आकार या वज़न के बजाय स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करना और मानव शरीर की सराहना करना।

*    सरों का मज़ाक उड़ाना और शरीर को शर्मसार करना, लोगों के लिए सामाजिक रूप से स्वीकार्य हो सकता है, लेकिन आपको ऐसे शब्दों या कार्यों को स्वीकार करने, भाग लेने या सहन करने की आवश्यकता नहीं है। आप नहीं चाहेंगे कि आपके साथ ऐसा हो, और अब आप जानते हैं कि यह उन लोगों के लिए वास्तविक समस्याएँ पैदा कर सकता है जिनके साथ ऐसा होता है।इसलिए, जब आप किसी व्यक्ति के शरीर के बालों या उनके बालों की बनावट, उनके आकार को इंगित करने के लिए ललचाते हैं, तो अपने आप को रोकें।

*    अपने विचारों पर ध्यान दें और अपनी स्वयं की कंडीशनिंग, पूर्वाग्रह और/या निर्णयों को स्वीकार करें।

*    इस व्यक्ति के बारे में आप क्या पसंद करते हैं, सराहना करते हैं या प्रशंसा करते हैं, इस पर ध्यान देने के लिए प्रयास करें ।

*    अपने और दूसरों के लिए सम्मान, देखभाल और करुणा विकसित करने और गहरा करने के लिए दूसरों के साथ और खुद के साथ इसका अभ्यास करें।

*    शरीर तटस्थता (बॉडी न्यूट्रालिटी) के बारे में जानें-शारीरिक तटस्थता एक ऐसा अभ्यास है जिसके कई सिद्ध मानसिक स्वास्थ्य लाभ हैं। यह शरीरों को वैसे ही स्वीकार करने की धारणा है जैसे वे हैं, उन पर निर्णय किए बिना। यह आपके अपने शरीर पर, और दूसरों के शरीर पर लागू हो सकता है। शरीर की तटस्थता उन सकारात्मक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने को प्रोत्साहित करती है, जो शरीर कर सकते हैं। इसके बारे में सीखने से आप अपने शरीर में बेहतर महसूस कर सकते हैं, भोजन के साथ अपने संबंध सुधार सकते हैं और अपने आत्म-सम्मान को बढ़ा सकते हैं।

*    चर्चा करें-यदि आप अपने आप को और अन्य लोगों को बॉडी शेमिंग रोकने के कदमों से गुज़रे हैं, तो यह बहुत अच्छा है! हालांकि, अभी और काम करना बाकी है।जैसा कि जीवन में सभी उदाहरणों के साथ होता है जब आप अन्य लोगों को नुकसान पहुँचाते हुए देखते हैं, तो बोलना महत्वपूर्ण है—बशर्ते ऐसा करना आपके लिए भावनात्मक और शारीरिक रूप से सुरक्षित हो।यदि आप किसी को किसी अन्य व्यक्ति के शरीर के बारे में टिप्पणी करते हुए देखते हैं, चाहे उनके कपड़ों या उम्र या आकार के बारे में, तो आप उन्हें धीरे से बता सकते हैं कि अन्य लोगों के शरीर के बारे में बात करना निर्दयी है। और अगर यह दोस्तों या प्रियजनों के साथ नियमित रूप से होता है, तो आप इसे एक बड़े तरीके से ला सकते हैं, उन्हें बता सकते हैं कि उनके शरीर के बारे में संवाद करने के तरीके हमेशा आपके और दूसरों के लिए अच्छा नहीं लगते हैं।

*    बॉडी पॉज़िटिविटी, शारीरिक बनावट की परवाह किए बिना खुद को और दूसरों को प्यार करने के बारे में है। यह आत्म-मूल्य, आत्म-सकारात्मकता, स्वीकृति और स्वास्थ्य को प्रोत्साहित करने के बारे में है। शारीरिक सकारात्मकता दिखने से ध्यान हटाती है, और लोगों को उनकी ताकत और गैर-भौतिक विशेषताओं से पहचानती है।

अगर आपने पहली बार बॉडी शेमिंग का अनुभव किया है, तो याद रखें कि आप अकेले नहीं हैं, कल्पना कीजिए कि मैं अपनी किशोरावस्था के दौरान अपने मुंहासों और अपने दांतों के लिए बॉडी शेम की गई थी, मुझे पिंपली लाइव, गेटवे ऑफ इंडिया जैसे नामों से बुलाया जाता था, क्योंकि मेरे दांतों में गैप था। एक युवा लड़की का मज़ाक बनाया जाना कितना निराशाजनक है। मैंने पार्टियों और सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेना बंद कर दिया, लेकिन बाद में मेरे माता-पिता ने मुझे समझाया कि मैं इन सभी विशेषताओं से ऊपर हूं, मैं बुद्धिमान हूं, मैं स्मार्ट हूं, मैं करियर उन्मुख हूं, मैं एक विद्वान हूं और तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं जीवन में ऐसी छोटी-छोटी चीज़ों के लिए, जो स्थायी भी नहीं हैं, दुनिया से खुद को वंचित कर रही हूं । समय के साथ रूप फीका पड़ जाएगा, जिस क्षण मैंने अपनी ताकत पर ध्यान देना शुरू किया, समय के साथ सब कुछ ठीक होने लगा। बॉडी शेमिंग का प्रचलन हो सकता है, लेकिन आप इसे स्थायी बनाने से रोकने का काम कर सकते हैं और अपने और दूसरों के साथ शरीर की सकारात्मकता का अभ्यास करके इसके हानिकारक प्रभावों को ठीक करने में मदद कर सकते हैं।

मीता गुप्ता

 

और न जाने क्या-क्या?

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