टैगोर: कला के प्रत्येक क्षेत्र में प्रवीण
जहां चित्त भय
से शून्य हो,
जहां हम गर्व से
माथा ऊंचा करके चल सकें,
जहां ज्ञान
मुक्त हो,
जहां दिन-रात
विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर,
छोटे और छोटे
आंगन न बनाए जाते हों,
हे पिता! अपने
हाथों से निर्दयता पूर्ण प्रहार कर,
उसी स्वातंत्र्य
स्वर्ग में सोते हुए भारत को जगाओ।
भारतीय
राष्ट्रगान की रचयिता और काव्य, कथा, संगीत, नाटक, निबंध जैसी साहित्यिक विधाओं में अपना सर्वश्रेष्ठ देने
वाले और चित्रकला के क्षेत्र में भी
कलाकार के रूप में अपनी पहचान कायम करने वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर की ये पंक्तियां आज
भी राष्ट्र-प्रेम की हिल्लोरों से अभिभूत कर देती हैं। साहित्य, संगीत, कला
और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में अपनी अनूठी प्रतिभा का परिचय देने वाले नोबेल
पुरस्कार से सम्मानित कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ऐसे मानवतावादी विचारक थे, जिन्हें प्रकृति का सान्निध्य काफी पसंद
था। उनका मानना था कि विद्यार्थियों को प्रकृति के सान्निध्य में शिक्षा हासिल
करनी चाहिए। अपनी इसी सोच को ध्यान में रखकर उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना की
थी।
साहित्य
के क्षेत्र में उन्होंने अपूर्व योगदान दिया और उनकी रचना 'गीतांजलि' के लिए उन्हें साहित्य के नोबल पुरस्कार से भी सम्मानित किया
गया था। साहित्य के क्षेत्र में नोबेल जीतने वाले वे अकेले भारतीय हैं।समीक्षकों
के अनुसार उनकी कृति 'गोरा' कई मायनों में अद्भुत रचना है। इस उपन्यास में ब्रिटिश
कालीन भारत का ज़िक्र है। राष्ट्रीयता और मानवता की चर्चा के साथ पारंपरिक हिंदू
समाज और ब्रह्म समाज पर बहस के साथ विभिन्न प्रचलित समस्याओं पर भी प्रकाश डालता
है।
गुरुदेव
सही मायनों में विश्व कवि होने की योग्यता रखते हैं। उनके काव्य के मानवतावाद ने
उन्हें दुनिया भर में पहचान दिलाई। टैगोर की रचनाएँ बांग्ला साहित्य में नई बहार
लेकर आई। उन्होंने एक दर्जन से अधिक उपन्यास लिखे। इन रचनाओं में 'चोखेर बाली, घरे बाहिरे’ शामिल हैं। उनके उपन्यासों में मध्यम वर्गीय समाज विशेष रूप
से उभर कर सामने आया है।
रवींद्रनाथ
टैगोर की कविताओं में उनकी रचनात्मक प्रतिभा मुखर हुई है। उनकी कविताओं में
प्रकृति से अध्यात्मवाद तक के विभिन्न विषयों को बखूबी उकेरा गया है। साहित्य की
शायद ही कोई विधा हो जिनमें उनकी रचना नहीं हों। उन्होंने कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक
आदि सभी में अपने सशक्त लेखन का परिचय दिया। उनकी कई कृतियों का अंग्रेजी में भी
अनुवाद किया गया। अंग्रेजी अनुवाद के बाद पूरा विश्व उनकी प्रतिभा से परिचित हुआ।
रवींद्रनाथ
के नाटक भी अनोखे हैं। वे नाटक सांकेतिक हैं। बचपन से ही रवींद्रनाथ की विलक्षण
प्रतिभा का आभास लोगों को होने लगा था। उन्होंने पहली कविता सिर्फ आठ साल में लिखी
और केवल 16
साल की उम्र में उनकी पहली लघुकथा प्रकाशित हुई थी।
उन्होंने दो हजार से अधिक गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का
अभिन्न अंग बन गया है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित उनके गीत मानवीय
भावनाओं के विभिन्न रंग पेश करते हैं। गुरुदेव बाद के दिनों में चित्र भी बनाने
लगे थे। रवींद्रनाथ ने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, चीन
सहित दर्जनों देशों की यात्राएं की थी।
वे
कवि,
साहित्यकार, दार्शनिक, नाटककार, संगीतकार और चित्रकार थे। रविंद्रनाथ टैगोर मानवता को
राष्ट्रवाद से ऊंचे स्थान पर रखते थे। गुरुदेव ने कहा था, "जब तक मैं जिंदा हूं, मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा।" टैगोर राष्ट्रीयता, देशभक्ति, सांस्कृतिक
विचारों के साथ-साथ कम परंपरावादी दृष्टिकोण में विश्वास रखते थे, जिसका संबंध विश्व कल्याण से होता था।
गुरुदेव
ने बांग्ला साहित्य के ज़रिये भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान डाली। ईश्वर और मनुष्य
के बीच मौजूद आदि संबंध उनकी रचनाओं में विभिन्न रूपों में उभर कर आता है। साहित्य
की शायद ही ऐसी कोई विधा है, जिनमें
उनकी रचना न हो - गान, कविता, उपन्यास, कथा, नाटक, प्रबंध, शिल्पकला, सभी
विधाओं में उनकी रचनाएं विश्वविख्यात हैं। उनकी रचनाओं में गीतांजलि, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु
भोलानाथ,
कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कई किताबों का अनुवाद
अंग्रेज़ी में किया। अंग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी रचनाएं पूरी दुनिया में फैली और
मशहूर हुईं।
रविंद्रनाथ
टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की
रचना की। रविंद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। टैगोर के संगीत को
उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी ज़्यादातर रचनाएं तो अब उनके गीतों
में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये
गीत मानवीय भावनाओं के कई रंग पेश करते हैं। अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह
आभास कराते हैं मानो उनकी रचना उस राग विशेष के लिए ही की गई थी।
गुरु
देव रविंद्रनाथ टैगोर ने हर चीज़ के ऊपर इंसानियत को रखा, जिन्हें गुरुदेव के नाम से भी जानते हैं। गुरुदेव एक ऐसी
शख़्सियत थे जिनके प्रतिभा का कोई जवाब
नहीं था। कभी कवि, तो कभी
साहित्यकार, दार्शनिक भी, नाटककार भी, संगीतकार और चित्रकार भी थे।
जीवन की यात्रा को
उन्होंने सदैव इसी मंत्र को जीया-
तेरा आह्वान सुन
कोई ना आए, तो तू चल अकेला,
चल अकेला, चल अकेला, चल तू
अकेला!
तेरा आह्वान सुन
कोई ना आए, तो चल तू अकेला,
जब सबके मुंह पे
पाश..
ओरे ओरे ओ
अभागी! सबके मुंह पे पाश,
हर कोई मुंह
मोड़के बैठे, हर कोई डर जाय!
तब भी तू दिल
खोलके, अरे! जोश में आकर,
मनका गाना गूंज
तू अकेला!
मीता
गुप्ता
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