बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर गुरुओं को नमन
महात्मा बुद्ध के प्रमुख गुरु थे- गुरु विश्वामित्र, अलारा, कलम, उद्दाका रामापुत्त आदि। सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद् तो पढ़े ही, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हांकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता था। ज्ञान की तलाश में सिद्धार्थ घूमते-घूमते अलारा कलम और उद्दाका रामापुत्त के पास पहुंचे। उनसे उन्होंने योग-साधना सीखी। कई माह तक योग करने के बाद भी जब ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई, तो उन्होंने उरुवेला पहुंच कर वहां घोर तपस्या की। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए, तब भी उनकी तपस्या सफल नहीं हुई। तब एक दिन कुछ स्त्रियां किसी नगर से लौटती हुई वहां से निकलीं, जहां सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएं। बात सिद्धार्थ को जंच गई। वे जान गए कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। बस फिर क्या था कुछ ही समय बाद ज्ञान प्राप्त हो गया। बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए गुरु पूर्णिमा तिथि महत्वपूर्ण है क्योंकि बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारनाथ में अपना पहला उपदेश दिया था। इसलिए, बौद्ध गौतम बुद्ध को श्रद्धांजलि देने के लिए गुरु पूर्णिमा मनाते हैं।
गुरु राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं।
वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींचकर शक्ति में
निर्मित करते हैं।'महर्षि अरविंद का उक्त कथन गुरु की गरिमा के सर्वथा अनुकूल
ही है। गुरु राष्ट्र निर्माता है और राष्ट्र के निर्माण की प्रत्येक प्रक्रिया में
शिक्षकीय महत्व को नकारा नहीं जा सकता। उर्वरायुक्त पारिवारिक धरातल पर गुरु
संस्कारित ज्ञान की फसल बोता है और स्वच्छ एवं स्वस्थ क्षेत्रीय वातावरणीय जलवायु
में श्रेष्ठता रूपी नागरिक की उन्नत उपज देता है। इस दृष्टि में गुरु संस्कारों का
पोषक है। सही अर्थों में राष्ट्र की संस्कृति का कुशल शिल्पी है, जो संगठित, धैर्यवान,
संस्कारवान, विवेकवान युवा शक्ति का निर्माण
करता है। गुरु संस्कृति से तादात्म्य स्थापित कर शिक्षार्थी में ज्ञान के गरिमामय
पक्ष का बीजारोपण करता है। फलस्वरूप शिक्षार्थी में शिक्षा के प्रति गहन अभिरुचि
जाग्रत होती है। गुरु वह सेतु है, जो शिक्षार्थी को शिक्षा
के उज्ज्वल पक्षों से जोड़ता है। संस्कारित शिक्षार्थी शिक्षा के उपवन को अपने
ज्ञान-पुष्प की सुरभि से महकाते हैं तथा परिवार, समाज एवं
राष्ट्र को गौरवान्वित करते हैं।
उत्तम शिक्षा, योग्य गुरु और अनुशासित शिक्षार्थी ही संस्कारित, सुसभ्य
और स्वच्छ-स्वस्थ समाज का निर्माण करने का सामर्थ्य रखते हैं। संस्कृति का उद्गम
ही श्रेष्ठ संस्कारोंके गर्भ से होता है, जिससे सामाजिक
गतिविधियों को सांस्कृतिक शक्ति का संबल प्राप्त होता है। राष्ट्र निर्माण की
प्रक्रिया में गुरु की भूमिका का कोई सानी नहीं है। विद्यार्थियों में स्नेह,
सद्भाव, भ्रातृत्व भाव, नैतिकता,
उदारता, अनुशासन जैसे चारित्रिक सद्गुणों की
समष्टि गुरु के माध्यम से ही संभव होती है। समाज-जीवन में स्नेह एवं सद्भाव तथा
सामंजस्य की सद्प्रेरणा गुरु से ही प्राप्त होती है क्योंकि शिक्षा का मूल
उद्देश्य ही चरित्र निर्माण करना है। गुरु शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों के
सर्वांगीण विकास का हरसंभव प्रयास करता है। गुरु को एक ऐसा दीपक माना गया है जो सेवापर्यंत
दीप्तमान रहते हुए विद्यार्थियों के प्रगतिपथ को अपने ज्ञान का आलोक प्रदान करता
रहता है। जो लोग गुरु की महत्ता को अस्वीकार करते हैं या उसे कमतर आँकते हैं,
उनकी बुद्धि पर प्रहार करते हुए तथा उन्हें समझाइश देते हुए कबीरदास
ने कहा है-
कबीरा ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥
गुरु
रूप में परमब्रह्म परमेश्वर की ही वंदना की जाती है-
गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परमब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवैनमः॥
गुरु को ब्रह्मा के रूप में सृजनकर्ता, विष्णु के रूप में पालनकर्ता और शिव के रूप
में न्यायकर्ता माना गया है, जो कर्तव्यपथ की सद्प्रेरणा
प्रदान कर शिष्य को परमश्रेष्ठ की ओर प्रवृत्त करता है। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी
'निराला' का यह कथन कि 'गुरु के आसन पर मनुष्य नहीं, स्वयं परमात्मा आसीन है' गुरु के महत्व को ही
प्रतिपादित करता है।
बुद्ध अदभुत गुरु हैं। बुद्ध दोनों बातें कहते
हैं। कहते हैः गुरु के संग ज्ञान नहीं होगा। और दीक्षा देते है! और शिष्य बनाते
हैं! और कहते हैः किसको शिष्य बनाऊं ? कैसे शिष्य बनाऊं ? मैंने खुद भी बिना
शिष्य बने पाया ! तुम भी बिना शिष्य बने पाओगे। फिर भी शिष्य बनाते हैं।‘बुद्ध बड़े विरोधाभासी हैं। यही उनकी महिमा है। उनके पास
पूरा सत्य है और जब भी पूरा सत्य होगा, तो पैराडाक्सिकल होगा; विरोधाभासी होगा। जब पूरा
सत्य होगा, तो संगत नहीं होगा। उसमें असंगति होगी। क्योंकि
पूरे सत्य में दोनों बाजुएं एक साथ होंगी। बुद्ध की बात अतर्क्य हैं, तर्कातीत हैं, क्योंकि उन्होंने दो विपरीत छोरों को
इकट्ठा मिला लिया है। बुद्ध ने सत्य को पूरा-पूरा देखा है, तो
उनके सत्य में रात भी है और दिन भी है। और उनके सत्य में स्त्री भी है, और पुरुष भी है और उनके सत्य में जीवन भी है, और
मृत्यु भी है। उन्होंने सत्य को इतनी समग्रता में देखा, उतनी
ही समग्रता में कहा भी।
एक श्रेष्ठ गुरु किसी प्रकाशपुंज की तरह काम करता हैं और
हमेशा ही अपने शिष्य को योग्य मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित करता हैं। गुरु शिष्य के
लिए एक शक्ति का भी काम करता हैं। उसे प्रेरणा और प्रोत्साहन देता है। गुरु अपने
शिष्य को सिर्फ बड़े सपने ही नहीं दिखाता, बल्कि उन्हें पूर्ण करने का मार्ग भी दिखाता है गुरु की निःस्वार्थ ज्ञान
देने की सदिच्छा देखकर मन में गुरु के लिए आदर ही उत्पन्न होता हैं, और शिष्य के लिए तो गुरु का स्थान हमेशा श्रेष्ठ ही होता हैं। ईश्वर
(ज्ञान) प्राप्ति का मार्ग भी हमें गुरु ही दिखाता है-
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पांय?
बलिहारी गुरु आपकी, जिन गोविंद दियो बताय!!
कुछ क्षेत्रों में कदम कदम पर गुरु की ज्यादा आवश्यकता
महसूस होती हैं। जैसे संगीत, चित्रकारी,
मूर्तिकला, हस्तकला, या
अन्य कला। जिस कार्य में बुद्धि के साथ हाथ के कौशल (कारीगरी) की आवश्यकता होती
हैं उस क्षेत्र में गुरु के मार्गदर्शन के बिना श्रेष्ठता प्राप्त करना कठिन होता
हैं। विश्वप्रसिद्ध अजंता गुफाओं का निर्माण निरंतर सात सौ वर्षों तक होता रहा। इस
कारीगरी का अनेक पीढ़ियों द्वारा निर्माण और इसे इतना मूर्त रूप मिलना गुरु बिना
संभव ही नहीं था।
विश्व में सिर्फ हमारे ही देश में गुरुकुल जैसी श्रेष्ठ परंपरा
की व्यवस्था रही है। भले ही समय बदल गया हो परंतु गुरु की महत्ता को कमतर आंकना सही नहीं होगा। आज देश
का युवा अपनी विद्वत्तापूर्ण उपस्थिति अनेक देशों में अपने कार्य से दे रहा हैं।
निश्चित ही यह सभी भारतीयों के लिए गौरव का विषय है,
ऐसे में गुरुओं का भी
योगदान भुलाया नहीं जा सकता और उन्हें भी आदर और सन्मान की दृष्टि से देखा जाना
चाहिए।
गुरु बिन ज्ञान कहाँ से पाऊं ! दीजो ज्ञान हरी गुण गाऊं!!
संक्षिप्त में कहे तो गुरु की शक्ति और सामर्थ्य का शिष्य
अंदाजा ही नहीं लगा सकता। जैसे ऊर्जा अनंत और अक्षय होती हैं उसी तरह से गुरु की
शक्ति होती हैं। एक सच्चे शिष्य को सदैव अपने गुरु के कहें शब्दों को, उसके द्वारा दिए गए उपदेश को, उसके ज्ञान को और गुरु द्वारा बताएं गएँ अनुभव को एक पवित्र मंत्र की तरह
आत्मसात करना चाहिए। यथा-
‘ध्यान मूलमं गुरु मूर्ति, पूजा मूलमं गुरु पदमं !
मंत्र मूलमं गुरु वाक्यमं मोक्ष मूलमं गुरुकृपा !!’
अर्थात हर एक ज्ञान के मूल में गुरु होता हैं, इसलिए सबसे पहले गुरु का स्मरण (ध्यान)
करना चाहिए। पूजा या कठोर तप या कष्टसाध्य ज्ञान प्राप्ति, अनुशासनबद्ध
अध्ययन, गुरु के कमल जैसे पादस्पर्श से सार्थक ही होते हैं।
विश्व
के सभी गुरुओं को सादर नमन!
मीता
गुप्ता
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