Thursday, 11 May 2023

क्या मातृत्व ही किसी औरत के परिपूर्ण होने का पैमाना है?

 

क्या मातृत्व ही किसी औरत के परिपूर्ण होने का पैमाना है?


अपने बच्चे को घर पर छोड़कर ऑफिस जा रही है...

मां बन गई है, फिर भी इसे अपने करियर की पड़ी है...

इसे खाना बनाना नहीं आता है...

ये कैसी मां है...

ये अच्छी मां तो बिल्कुल नहीं है।

हमारे समाज में 'गुड मदर' यानी की अच्छी मां को उम्मीदों के बोझ तले दबा दिया गया है। क्यों मां के लिए खुद को सबसे पीछे रखना ज़रूरी  है? अगर अपने बच्चों को खाता देख मां का पेट भर जाए, तो वह अच्छी मां है, लेकिन अगर वह कभी अपनी पसंद का खाना बनाकर खाने लगे, तो उसे गिल्टी मां कह दिया  जाता है।अगर कोई औरत अपनी मर्ज़ी से मां नहीं बनना चाहती है, या फिर किसी और वजह के चलते वह मां न बनने का फैसला लेती है तो उसके अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए जाते है। आखिर क्यों? इन्हीं सवालों का जवाब ढूंढने का प्रयास आज ‘मातृत्व दिवस’ पर करने जा रही हूं.. |

सबसे बात मीडिया की करते हैं,हमारी फिल्मों, टीवी या फिर एडवरटिजमेंट्स ने मां का जो कॉन्सेप्ट हमेशा से बढ़-चढ़ कर दिखाया है, उसके हिसाब से एक आदर्श मां अपने आप को सबसे पीछे रखती है, वह त्याग की मूरत है और अपना पेट काटकर भी वह अपने बच्चों का पेट भरती है। क्या आपको लगता है कि यह कॉन्सेप्ट वर्तमान परिस्थितियों में सही है? मां के बारे में हमारी फिल्में हों, टीवी हो या सोसाइटी, सभी जगह यही धारणा है कि मां को खुद को पीछे रखना चाहिए, जो कि गलत है। फिल्मों में तो वही दिखाया जाता है जो असल में समाज में हो रहा है। जिस तरह से जेंडर के आधार पर सभी की भूमिकाएं बांट दी गई थी, महिलाएं घर संभालेंगी, पुरुष बाहर जाकर पैसा कमाएंगे। अगर कोई औरत 'मां' है, तो उसके दोस्त नहीं हो सकते हैं, उसे अपने बच्चों का पेट पहले भरना चाहिए, इस तरह की जेंडर स्टीरियोटाइप सोच आज भी चली आ रही है। असल में यही सबसे बड़ी प्रॉब्लम है।

भारतीय समाज में मां को देवी की पदवी दी गई है, लेकिन उसके बदले जो ज़रूरत से ज़्यादा उम्मीदें एक मां से की जाती हैं, जैसे कि एक मां कभी थक नहीं सकती, कभी आराम नहीं कर सकती, एक तरह से यह जो छलावा है मां के साथ, क्या ये जायज़ है? अगर आप उन उम्मीदों पर थोड़ा भी खरा नहीं उतरती हैं, तो आपको अच्छी मां नहीं माना जाता है। असल में मां को देवी बनाने की, सुपर ह्यूमन बनाने की कोई ज़रूरत  नहीं है। घर में जैसे बाकी इंसान हैं, उन्हीं की तरह मां भी है, सबसे पहले इस बात तो समझना ज़रूरी है। मां भी एक इंसान है, जिसे 'सांस' लेने की ज़रूरत  है, उससे भी गलतियां हो सकती हैं और हो सकता है कि उसे भी कुछ चीज़ें न आती हों। किसी भी मां को सब कुछ पता हो, यह ज़रूरी  नहीं है। वह भी सीख रही है। उसे भी गलतियां करने का हक है। वह पहली बार मां बनी है, यह सफ़र उसके लिए भी नया है। मां को सब कुछ आना चाहिए, सब पता होना चाहिए, उससे कोई गलती नहीं होनी चाहिए, ये जो स्टैंडर्ड सोसाइटी ने सेट कर दिए हैं,उन्हें अगर आज भी चैलेंज नहीं किया जाएगा, तो कब किया जाएगा? मां होने का मतलब यह नहीं है कि आपको खाना बनाना आना चाहिए,आपको सफाई करना चाहिए, ये लाइफ स्किल्स हैं, घर के सब सदस्यों को आने चाहिए। मां होने का मतलब खुद को कार की बैकसीट पर रखना या फिर हमेशा त्याग करना नहीं है। इन उम्मीदों पर जब कोई महिला खरा नहीं उतरती है, तो कह दिया जाता है कि ये कैसी मां है?

सबसे पहले मॉम गिल्ट को समझना ज़रूरी  है कि यह गिल्ट क्यों होता है? ...इसके पीछे वजह ये है कि बचपन से हमने अपनी मां को, दादी को , नानी को या घर की और महिलाओं को घर के हर काम के लिए भागते हुए देखा है। अगर अचार का सीजन चल रहा है, तो वो अचार डालेंगी, चिप्स बनाएंगी, पापड़ बनाएंगी। आपने हमेशा भागती-दौड़ती मां ही देखी है, कभी आराम करती हुई मां नहीं देखी है। इसी वजह से हम सभी के मन में और खासकर जो महिलाएं नई मां बनती हैं उनके मन में मां की एक छवि बन गई है और जब भी वह उस छवि से थोड़ा भी अलग हटती हैं तो गिल्ट महसूस होता है। मां के ऊपर जो परफेक्ट होने का प्रेशर है, जो अपने बच्चे को, परिवार को संभालने का प्रेशर है, उसी की वजह से ये गिल्ट है। अगर किसी नई मां को विदेश में नौकरी मिल जाती है, तो सब उससे यही सवाल पूछेंगे कि बच्चे को किस के भरोसे छोड़कर जा रही हो? बच्चे की केयर की जब बात आती है, तो उसमें मां और पिता के रोल को बहुत अलग कर दिया गया है।

हमारी सोसाइटी में, घरों में यहां तक कि वर्कप्लेस पर भी महिलाओं को लेकर काफ़ी सेक्सिस्ट अपोर्च रही है। अगर वर्कप्लेस की पॉलिसीज की बात करें, तो मैटरनिटी लीव और पैटरनिटी लीव में काफ़ी अंतर होता है क्योंकि यह माना जाता है कि बच्चे को पालने में सिर्फ़ मां की ही भूमिका है।

6 महीने की जो मैटरनिटी लीव कंपनी किसी महिला को दे रही है, वो इक्विटी है क्योंकि महिला ने गर्भधारण किया था। उसे हील होने में 6 महीने लगेंगे। बच्चा अभी ब्रेस्ट फीड कर रहा है और इस दौरान महिलाओं को लीव मिलना ज़रूरी है लेकिन साथ ही 6 महीने के बाद उसे वापिस काम पर आने के लिए भी पूरा सपोर्ट मिलना चाहिए। वर्कप्लेस पर क्रेच फैसिलिटी होनी चाहिए। अगर कोई पिता अपने बच्चे को ऑफिस लेकर आता है, तो कंपनी की क्या पॉलिसी है? क्रेच फैसिलिटी वर्कप्लेस पर दी जाने वाली बेसिक फैसिलिटी होनी चाहिए, वरना वही होगा, जो अभी हो रहा है। अगर ऑफिस नई मां को वर्क फ्रॉम होम की फैसिलिटी नहीं देता है, फ्लेक्सिबल टाइमिंग नहीं देता है, क्रेच फैसिलिटी नहीं देता है, तो महिलाओं के पास जॉब छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। आप अगर मिड एज में अपनी जॉब छोड़ देंगी, तो आप लीडरशिप रोल तक पहुंचेंगी ही नहीं और इसी वजह से महिलाएं लीडरशिप रोल में मिनिमम हैं। यह ऑफिस पर भी सवालिया निशान खड़ा करता है। महिलाएं ज़्यादातर फील्ड वर्क में इसी वजह से लीडरशिप तक नहीं पहुंच पाती हैं। यह इनइक्वलिटी यानी असमानता को दर्शाता है।

 मां बनने के बाद किसी भी महिला से उम्मीद की जाती है कि वह अपना करियर छोड़ दे, जो कि गलत है। मां बनने के बाद भी किसी महिला के लिए अपने करियर पर फोकस करना क्यों ज़रूरी है?  और अगर वह ऐसा करती है तो क्या वह सेल्फिश है? नहीं,यह बिल्कुल सेल्फिश डिसीजन नहीं है बल्कि ये बहुत ज़रूरी है। किसी भी महिला के लिए अपने पैरों पर खड़ा होना बहुत ज़रूरी है ताकि वह सम्मान और आत्मविश्वास के साथ जीवन जी सके और पति से इतर अपनी एक पहचान बना सके और फिर आर्थिक स्वतंत्रता बेहद ज़रूरी है| आज कोई महिला अपने पति के भरोसे नौकरी छोड़ देती है, लेकिन कल को अगर उसके पति को कुछ हो गया तो वह किस तरह निर्भर होगी? महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होंगी, तभी वे डिगनिटी के साथ रह पाएंगी। दूसरा, सिर्फ़ घर पर रहकर आपकी पर्सनालिटी उतनी डेवलेप नहीं होती है, जितनी घर से बाहर निकलकर काम करने पर। आप नई चीज़ें सीखेंगी, जानेंगी, आपका खुद का एक सोशल सर्किल होगा। खुद के डेवलेपमेंट के लिए काम करना, पैसे कमाना और अपनी ग्रोथ के लिए सोचना ये बिल्कुल सेल्फिशनेस नहीं है, बल्कि यह ज़रूरी  है।

पहले पत्नी और फिर मां बनने के बीच, किसी भी महिला की अपनी पहचान कहीं खो जाती है। क्या आपको लगता है कि महिलाओं को और किसी भी रोल से पहले अपनी खुद की पहचान पर ध्यान देना चाहिए? अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाए रखना किसी भी महिला के लिए बहुत ज़रूरी है। इसे बिल्कुल भी न छोड़ें। इसके लिए अपनी पसंद-नापसंद का ध्यान रखें। सेल्फ ग्रूम करना, खुद के पैरेंट्स, सिबलिंग, अपने दोस्तों के साथ टच में रहना, ये बहुत छोटी-सी बातें हैं, लेकिन महिलाएं अक्सर शादी के बाद और खासतौर पर मां बनने के बाद इन चीज़ों को पीछे छोड़ देती हैं। मां बनने के बाद अपनी दुनिया में खो जाना आसान है, लेकिन अपनी पहचान पर काम करना मुश्किल है। खुद को सशक्त बनाने के लिए बेबी स्टेप लें। महीने में एक बार ब्यूटी-पार्लर जाएं। अपने मम्मी-पापा को कॉल करें। घर में एक दिन अपनी पसंद का खाना बनाएं। आपको खुद को इतना सक्षम बनाना है कि आप अपनी ज़िंदगी अकेले जी सकें, अपने फ़ैसले खुद ले सकें। और हां, गाड़ी चलाना ज़रूर सीखें| जो चीज़ें आपको खुशी देती हैं उन्हें करना बिल्कुल भी न छोड़ें।

कुछ लोगों को मेरी बातें अति स्वतंत्रतावादी या सेक्सिस्ट लग सकतीहैं, पर आप यह भी तो सोचिए कि मातृत्व के नाम पर स्त्री को सदियों से प्रताड़ित किया जाता रहा है, केवल भारत में ही नहीं, सारे विश्व की स्थिति कमोबेश एक-जैसी ही रही है। यहां मै ऐन फ़्रैंक का ज़िक्र करना चाहूंगी, जिसने मात्र 13 वर्ष की आयु में अपनी अमर डायरी में कहा था- स्त्रियों को प्रकृति ने मां बनने का अधिकार दिया है। वही एक ऐसी है, जो बच्चे को अपने गर्भ में रखती है और जन्म देती है। एक तरफ यह जहां औरत के लिए गौरवपूर्ण बात है, वहीं इसने औरत की स्वतंत्रता तथा विकास को रोका है। प्रायः विवाह इसलिए किया जाता है, ताकि वंश को चलाया जा सके। यहां पर स्त्रियों के पास स्वतंत्रता नहीं होती है कि वह मां बने या न बने। उसे विवश किया जाता है कि वह मां बने और केवल बेटे की ही मां बने। इस तरह उसके बच्चे पैदा करने के अधिकार पर अतिक्रमण किया जाता है। यदि एक बार में संतान रूप में बेटा प्राप्त हो जाता है, तो वह स्त्री के लिए राहत भरा होता है। यदि बेटे के स्थान पर बेटी उत्पन्न हो जाए, तो तब तक उसे संतान को जन्म देने के लिए विवश किया जाता है, जब तक संतान के रूप में बेटा न मिले। इस तरह स्त्री को प्रताड़ित किया जाता है।

निष्कर्षतः मातृत्व केवल एक औरत के परिपूर्ण होने का पैमाना नहीं है। मातृत्व एक महत्वपूर्ण और स्वर्णिम अनुभव हो सकता है, लेकिन यह किसी भी महिला के जीवन का एकमात्र उद्देश्य नहीं है। महिलाओं की पूर्णता को मातृत्व से मापने की जगह, हमें समाज में अन्य क्षेत्रों के साथ भी महिलाओं के योगदान को मान्यता देनी चाहिए। महिलाएं समाज, परिवार, करियर, कला, साहित्य, विज्ञान, और कई अन्य क्षेत्रों में उत्कृष्टता प्राप्त कर सकती हैं। समाज में महिलाओं के सामरिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, और राजनीतिक योगदान भी महत्वपूर्ण हैं। उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए, साथ ही उन्हें निर्धारित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय नीतियों और कानूनों का समर्थन भी मिलना चाहिए। आज 21वीं शताब्दी में तो हम महिलाओं को वह अनंत आसमान दें, जिससे वे अपनी दिशाएं ढूंढ सकें, अपने राहें बना सकें और अपने-आप को, अपनी क्षमताओं को पहचान सकें और समाज के उत्थान में अपने मातृत्व के भाव से सार्थक भूमिका निभा सकें।

 

 

मीता गुप्ता

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