सुंदरता है कहां?
जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार!
जो तुम आ जाते एक बार!!
कमरे में आदमकद शीशे के सामने बैठे हुए उसे काफी देर हो गई। ना जाने यह दर्पण उसे क्या बता रहा है? अथवा वह खुद ही इस कांच के टुकड़े में कुछ
ढूंढ रही है, जरीदार लाल साड़ी, हाथों
में भरी-भरी लाल चूड़ियां...अंग प्रत्यंग में अपनी आभा विकीर्ण करते स्वर्ण आभूषण..
सिर में लाल रंग की रेखा बनाता सिंदूर, उसके नववधू होने की
पहचान दे रहे थे, किंतु साज़ोसामान से भरा पूरा कमरा, ऐश्वर्यावान होने की गवाही देने के लिए काफी था। उसकी निजी थाती के रूप
में अलमारी में करीने से सजी पुस्तकें यहां यह भी बता रही थी कि यहां विद्या निवास
है।
धन-ऐश्वर्य-विद्या की अभिरुचि और उपस्थिति
के बावजूद वह उदास थी। पलकें व्यथा के भार से बोझिल थीं। मुख पर उभरने वाली आड़ी-तिरछी रेखाओं ने उदासी
का स्पष्ट रेखांकन कर दिया था। मुख मनुष्य का भाव दर्पण होता है। इन्हीं गहन
आयामों में होने वाली हलचलें इसमें उभरे बिना नहीं रह पातीं। अनायास उसने होठों को
सिकुड़ कर माथे पर लकीरें बिखेरी और कुछ शब्द उसके मुख से फिसल गए। सौंदर्य किसे कहते हैं? सुंदरता? शब्द अस्फुट
होने के बावजूद स्पष्ट था। पता नहीं, किस से पूछा था उसने यह
सवाल?
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
वैसे दिखने में यदि उसके नाक-नक्श
तराशे हुए नहीं हैं, तो उन्हें
कुरुप भी नहीं कहा जा सकता। अंधी, कानी, लंगड़ी, लूली, बहरी, तो वह है नहीं। सुंदरता की पहचान क्या महज चमड़ी की सफेदी है? मोहक चाल, इतराती मदभरी आंखें, तराशी हुई संगमरमरी देहयष्टि, जो अपना जो अपनी रूप
ज्वाला में अनेक को झुलसा दे, उनके चरित्र चिंतन को अपने हाव
भावों से दूषित कर दे अथवा व्यक्तित्व के गुणों का समुच्चय चरित्र, उच्च मानवीय गुणों से युक्त हो और कर्तृत्व सद्प्रवृत्तियों का निर्झर हो, जिसकी विशालता के कारण अनेक जिंदगियां विकसित हो सकें,उसके पूछे गए प्रश्न के यही दो उत्तर हैं, जो आदिकाल
से वातावरण में गूंज रहे हैं-किसी एक को चुनना है, काश...
मेरा सजल मुख देख लेते!
यह करुण मुख देख लेते!
वह उठ खड़ी हुई। विषाद की लकीरे गहरी
पड़ी। सोचने लगी। विवाह हुए अभी ज़्यादा दिन भी नहीं हुए। पति का उसके प्रति यह
व्यवहार? ताने, व्यंग्य कटूक्तियों
की मर्म पीड़क बौछार सुनते-सुनते उसका अस्तित्व छलनी हो गया है। यदि उसके पास
वासनाओं को भड़काने वाली रूप राशि नहीं है, तो इसमें उसका
क्या दोष है? गुणों के अभिवर्धन में तो वह बचपन से
प्रयत्नशील रही है। बेचैनी से उसके कदम
कमरे की दीवारों का फ़ासला तय करने लगे। विचारों की धारा प्रवाहमान हुई। रूप-राशि भले दो जीवनों में क्षणिक आकर्षण पैदा
करे पर संबंधों की डोर मृदुल व्यवहार के बिना कहां जुड़ पाती है? चरित्र की उज्ज्वलता के बिना कभी आपस में विश्वसनीयता पनपी है? रूप राशि क्या क्लियोपैट्रा के पास कम थी? उसकी रूप
ज्वाला के अंगारों में मिस्र और रोम तबाह हो गए। विश्व विजयी कहलाने वाला सीजर पतंगे की तरह जल
भुन गया।
पर आज निर्णय की घड़ी है। निर्णय की
घड़ी क्या, निर्णय हो चुका है।
पति साफ़ कह चुक- मैं तुमको अपने साथ नहीं रख सकता। उनकी दृष्टि में शरीर के अलावा और कुछ कहां देखा
जाता है? यदि देख
पाते, का यदि दे पाते तो...काश,,,,।
बेचैनीपूर्वक टहलते-टहलते पलंग पर बैठ गई। अचानक उसने घड़ी की ओर देखा। शाम के 5:15
हो चुके थे। अब तो वे आने ही वाले होंगे। नारी सदियों से एक वस्तु
रही है, पुरुष के पुरुष हाथों का खिलौना। याद आने लगा उसे
इतिहास की अध्यापिका का वह कथन-यूनान के भारत में प्रवेश के बाद मगध में नारियों
की हाट लगने लगी। रुप विक्रेता नारी के लज्जा वसन तक तार-तार कर फेंक देते। खरीदार
आकर उन्हें इस तरह टटोलते, जैसे कोई कसाई देख रहा हो कि पशु
में कितना मांस है? महामति चाणक्य ने इस घिनौनी प्रथा का अंत
कराया। अब कहां है चाणक्य? कहां स्थित है वह ब्राह्मणत्त्व? आज क्या नारी नहीं बिकती? सोचते-सोचते उसका मन विकल
हो उठा।
तभी दरवाजे पर बूटों की खड़खड़ आहट
सुनाई दी। शायद....मन में कुछ कौंधा। अपने को स्वस्थ सामान्य दिखाने की कोशिश करने
लगी। थोड़ी देर में सूटेड बूटेड ऊंचे गठीला शरीर के एक नवयुवक ने प्रवेश किया।
उसके मुख मंडल पर पुरुष होने का गर्व था। एक उचटती सी नजर उस पर डालकर वह कुर्सी पर
बैठा। वह प्रश्न दाग बैठा-हां तो क्या फैसला किया तुमने? घुटन या संघर्ष में से वह पहले ही संघर्ष चुन
चुकी थी ।पति का निर्णय अटल था। अतः उसने बंधनों से मुक्ति पा ली। अधूरी पढ़ाई फिर
चली। समय के सोपानों के साथ उसने कदम बढ़ाए। बढ़ते कदमों ने उसे स्वातंत्र्य यज्ञ
का होता बनाया। संवेदना शक्ति बनी। गुणों के वृक्ष पर कविता के पुष्प खिले और यह
कविता बनती चली गई। नारी की अनकही संवेदनाओं की कथा साहित्य के क्षितिज पर एक ‘निहारिका’ का अवतरण
हुआ, जिसने भावों के ब्रह्मांड संजोए थे और कहती रहीं ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ । कविता के भजन-भवन में उसका सौंदर्य ‘दीपशिखा’ बन चमका। भावना के सौंदर्य से भरी इस महीयसी को भारत देश
में ‘महादेवी’ के रूप में जाना।
शत शत नमन !!!
यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो
सांसों की समाधि सा जीवन,
मसि-सागर का पंथ गया बन
रुका मुखर कण-कण स्पंदन,
इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!
यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो1
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