मैं नारी हूं
नारी अस्य समाजस्य
कुशलवास्तुकारा अस्ति। अर्थात महिलाएं समाज की आदर्श शिल्पकार होती हैं।
मैं नारी हूं….मैं अपनी पति की सहधर्मिणी हूं और अपनी संतान की जननी हूं। मुझ सा श्रेष्ठ संसार में और कौन है? तमाम जगत मेरा कर्म क्षेत्र है। मैं स्वाधीन हूं क्योंकि मैं अपनी इच्छा
के अनुरूप कार्य कर सकती हूं। मैं जगत ने
किसी से नहीं डरती। मैं महाशक्ति का अंश हूं। मेरी शक्ति पाकर ही मनुष्य शक्तिमान
बना है।
मैं स्वतंत्र हूं, परंतु उच्छृंखल नहीं हूं। मैं शक्ति का उद्गम स्थल हूं, परंतु अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं करती। मैं केवल कहती ही नहीं, करती भी हूं। मैं काम ना करूं तो संसार अचल हो जाए। सब कुछ करके भी मैं
अहंकार नहीं करती। जो कर्म करने का अभिमान करते हैं, उनके
हाथ थक जाते हैं, पर मैं कभी नहीं थकती।
मेरा कर्मक्षेत्र बहुत बड़ा है। वह घर के बाहर
है और घर के अंदर भी। घर में मेरी बराबरी की समझ रखने वाला कोई नहीं है। मैं जिधर
देखती हूं, उधर ही अपना अप्रतिहत कर्तव्य पाती हूं।
मेरे कर्तव्य में बाधा देने वाला कोई नहीं है, क्योंकि मैं
वैसा सुअवसर किसी को देती ही नहीं। पुरुष मेरी बात सुनने के लिए बाध्य है, आखिर मैं गृह स्वामिनी जो हूं। मेरी बात से संसार उन्नत होता है इसलिए
पति के संदेह का तो कोई कारण ही नहीं। पति और संतान के लिए मैं अजेय हूं। डर किसको
कहते हैं, मैं नहीं जानती। मैं पाप से घृणा करती हूं। अतएव
पाप मेरे पास नहीं आता। मैं भय को नहीं देखती, इसी से कोई
दिखाने की चेष्टा भी नहीं करता।
संसार में मुझसे बड़ा और कौन है? मैं तो किसी को भी नहीं पाती और जगत ने मुझसे बढ़कर छोटा भी कौन है? उसको भी कहीं खोज नहीं पाती। पुरुष दंभ करते हैं कि मैं जगत में प्रधान हूं, बड़ा हूं, मैं किसी की परवाह नहीं करता। वह अपने दंभ और दर्द से देश को कंपाना
चाहते हैं, वे कभी आकाश में उड़ते हैं,
कभी सागर में डुबकी मारते हैं और कभी रणभेरी बजाकर आकाशवायु को कंपा देते हैं, परंतु मेरे सामने तो वे सदैव से छोटे ही हैं क्योंकि मैं उनकी मां हूं।
उनके रौद्र रूप को देखकर हजारों लाखों कांपते हैं, परंतु
मेरी उंगली हिलाते ही वे चुप हो जाने के लिए बाध्य हो जाते हैं। मैं उसकी मां केवल
असहाय बचपन में ही नहीं, सर्वदा और सर्वत्र हूं, जिसका दूध पीकर उसकी देह पुष्ट हुई है, वह मातृत्व
के इशारे पर सिर झुका कर चलने के लिए बाध्य है।
गर्वित पुरुष जब सिंह, व्याघ्र आदि प्राणियों की अपेक्षा और भी अधिक हिंस्र हो जाता है, कठोरता के साथ मिलते-मिलते उसकी कोमल वृत्तियां जब सूख जाती हैं, जब राक्षसी व्यक्तियों का सहारा लेकर वह जगत को चूर-चूर कर डालने के लिए
उतारू हो जाता है, तब उस शुष्क मरुभूमि में जल की शीतल धारा कौन
बहाती है? मैं ही, उसकी सहधर्मिणी ही।
उसको अपने पास बैठा कर, अपना अपनत्व उसमें मिलाकर, मैं उसे कोमल करती हूं। मेरी शक्ति अप्रतिहत है, और
यह कभी भी व्यर्थ नहीं जाती।
बाहर के जगत में मेरे कर्तव्य का
विस्तार होते हुए भी मैं अपने घर को नहीं भूलती। वह मेरे पिता, पति, भाई और संतान की भूमि है। उन्हें यहां मेरी
सुशील छाया नहीं मिलेगी, तो वह विश्रांति कहां पाएंगे? उनका समूचा अस्तित्व मेरी गोद में अनायास समा जाता है। यही कारण है कि
मेरी कर्म भूमि उनकी कर्मभूमि से बहुत विशाल है.....इतनी विशाल कि वर्णन करना
असंभव है। जिसस काम को वह नहीं कर सकता, उसको मैं अनायास ही
कर लेती हूं। प्रमाण....उनके अभाव में संसार चल सकता है,
परंतु मेरे अभाव में नहीं। सब कुछ रहने पर भी कुछ नहीं रहेगा क्योंकि संतति की
निरंतरता मुझसे ही होती है।
मैं पढ़ती हूं...संतान को शिक्षा देने के लिए, पति के मन को शांति देने के लिए। मेरा ज्ञान मानव जीवन में विवेक का
प्रकाश फैलाने के लिए है। मैं गाना बजाना सीखती हूं....शौकीनों की लालसा पूरी करने
के लिए नहीं....नर हृदय को कोमल बनाकर उसमें पूर्णता लाने के लिए, पुरुष की सोई संवेदना जगाने के लिए। मैं स्वयं नहीं नाचती, वरन जगत को नचाती हूं। मैं सीखती हूं....सिखाने के लिए। शिक्षा के
क्षेत्र में मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है...मैं गुलाम पैदा नहीं करती। मैं प्रकट करती
हूं... आदर्श सृजन करती हूं...मानव का...महामानव का.....गांधी, लोकमान्य तिलक, दयानंद,
विवेकानंद, अरविंद सब मेरी ही देन है।
मैं
काली हूं...पाखंड का वध करने के लिए....मैं दश प्रहरणधारिणी
दुर्गा हूं....संसार में नारी शक्ति को जगाने के लिए....मैं लक्ष्मी हूं...संसार
को सुशोभन बनाने के लिए...मैं सरस्वती हूं...जगत में विद्या वितरण के लिए...मैं धरणी
हूं...सहिष्णुता के गुण से, आकाश हूं....अपनी आश्रय दायिनी होने से,,वायु हूं....सबकी जीवनदायिनी होने से और जल हूं...सब को रससिक्त करने वाली,दूसरों को अपना बनाने वाली होने से, मैं ज्योति हूं....प्रकाश
के कारण और मैं माटी हूं, क्योंकि मैं मां हूं। यथा-
नास्ति
मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति
मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।
अर्थात
मां के समान कोई छाया नहीं, मां के समान कोई सहारा नहीं। मां के समान कोई
रक्षक नहीं है और मां के समान कोई प्रिय वस्तु नहीं है और हे त्र मां बनने का
सौभाग्य तो परमेश्वर ने केवल नारी को ही दिया है। मेरे धर्म के विषय में मतभेद-मतांतर नहीं
है, मेरा
धर्म है- नारीत्व....मातृत्व.. इसमें जातिजनित कोई चिह्न नहीं है। संपूर्ण नारी
जाति मेरी जाति है।
मैं सबसे अधिक छोटा बनना जानती हूं, परंतु मैं बड़ी स्वाभिमानी हूं। मेरे भय से त्रिभुवन कांपता है।।मैं जो
चाहती हूं, वही पाती हूं, तो भी मेरा
मान जगत प्रसिद्ध है। पुरुष का प्रवृत्ति से कामुक है इसलिए वह अपने ही समान मानकर
मुझे कामिनी कहता है। पुरुष दुर्बल है, सहज विभक्त हो जाता
है, इसी से मुझे दारा कहता है। मैं सभी सहती हूं, क्योंकि मैं सहना जानती हूं। मैं मनुष्य को गोद में खिला कर मनुष्य बनाती
हूं, उसके शरीर की धूलि से अपना शरीर मैला करती हूं, इसलिए क्योंकि मैं सब कुछ सह सकती हूं।
रामायण और महाभारत में मेरी कथाएं हैं।
इनमें मेरा गान ही हुआ है, यही कारण है कि जगत को और जगत के लोगों को
जीवन विद्या का शिक्षण देने में इनके समान अन्य कोई भी ग्रंथ समर्थ नहीं हुआ। मैं
दूसरी भाषा सीखती हूं, परंतु बोलती हूं अपनी ही भाषा। और
मेरी संतान इसीलिए उसे गौरव के साथ मातृभाषा कहती है।
मुझको क्या पहचान लिया? नहीं पहचाना, तो फिर पहचान लो....मैं
नारी हूं और अब मैं 21वीं सदी में अपना प्रभुत्व बढ़ाते हुए चली आ रही हूं। यथा-
मैं स्त्री
हूं, मैं नारी हूं
मैं कली हूं, मैं फुलवारी हूं
मैं दर्शन हूं, मैं दर्पण हूं
मैं नाद हूं, मैं गर्जन हूं
मैं बेटी हूं, मैं माता हूं
मैं बलिदानों की गाथा हूं
मैं द्रौपदी हूं, मैं सीता हूं
मीता गुप्ता
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