भाग रही हूँ मैं,
कि कहीं राह में,
ज़िंदगी न मिल जाए।
भाग रही हूँ मैं,
ज़िंदगी से बचकर,
ज़िंदगी के लिए।
मौत से छुपकर
मौत की तरफ़,
भाग रही हूँ मैं।
भाग रही हूँ मैं,
कभी किसी से,
तो कभी किसी की तरफ़,
कभी खुद से ही,
तो कभी खुद की तरफ़,
भाग रही हूँ मैं।
भाग रही हूँ मैं,
बंधन से और
खालीपन से भी।
चेतना से और,
पागलपन से भी।
कहाँ और क्यों?
मैं नहीं जानती।
भाग रही हूँ|
उन राहगीरों से
जो अक्सर रोक लेते हैं,
उन राहगीरों से
जो अक्सर पूछ लेते हैं,
कौन हो तुम?
कौन हूँ मैं ?
मैं नहीं जानती।
मैं नहीं जानती,
शायद इसलिए
भाग रही हूँ।
या शायद इसके
जवाब से भी
भाग रही हूँ मैं।
शायद मुझे डर है,
मुझे डर है
खुद को खोने का,
तो खुद को पाने का भी।
भाग रही हूँ मैं,
उन सवालों से,
उम्मीदों से
ख्वाबों से और
उनके टूट जाने के डर से,
भाग रही हूँ मैं।
मैं भाग रही हूँ,
मैं थक चुकी हूँ,
मैं खो चुकी हूँ,
में खो चुकी हूँ।
और अब दिखता है
तो सिर्फ अंधेरा,
और मैं ?
मैं फिर भागना चाहती हूँ।
मैं भागना चाहती हूँ
अंधेरे से,
रोशनी की तरफ़।
और तो और,
मैं भागना चाहती हूँ,
रोशनी से भी।
और मैं,
मैं अब तक भाग रही हूँ
भाग रही हूँ मैं,
जी हां, भाग रही हूँ मैं|
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