Monday, 4 August 2025

भारतीय महिलाएँ अब देर से शादी क्यों कर रही हैं या अविवाहित क्यों रह रही हैं?यह आज़ादी है, या विद्रोह...

भारतीय महिलाएँ अब देर से विवाह क्यों कर रही हैं या अविवाहित क्यों रह रही हैं?

यह आज़ादी हैया विद्रोह...

समय बड़ी तेज़ी से बदल रहा है। और बदले भी क्यों नहीं, आखिर परिवर्तन ही शाश्वत होता है। भारतीय समाज में विवाह को लंबे समय तक जीवन का अनिवार्य पड़ाव माना गया। हाल के दशकों में शिक्षारोजगार और वैश्वीकरण ने इस धारणाओं को हिला दिया है। जैसे-जैसे सामाजिक घटकों में परिवर्तन आता है, कुछ बदलाव बड़े ही मुखर रूप से दिखाई देते हैं, उनमें से ही एक है कि भारत में महिलाएं या तो विवाह करना ही नहीं चाहतीं, या देर से करना चाहती हैं। भारतीय समाज की सदा से यही सोच रही है कि बेटी पराया धन है, इसका ब्याह हो जाए, तो गंगा नाहन हो जाएगा। ऐसे में घरों में टकराव की स्थिति भी आ जाती है। किंतु आज कई कारण ऐसे हैं जिनके कारण माता-पिता का गंगा-नाहन या तो देर से हो रहा है, या हो ही नहीं रहा है। आज महिलाएँ उच्च शिक्षा प्राप्त करके अपने आत्मविश्वास और कौशल को संवार रही हैं। वे शोधकॉर्पोरेट नौकरीस्टार्टअप या व्यक्तिगत व्यवसाय में खुद को स्थापित करना चाहती हैं। इस यात्रा में समय अवश्य ही अधिक लगता हैजिससे विवाह की उम्र स्वतः बढ़ जाती है। स्वावलंबन ने निर्णय-क्रिया में उनकी शक्ति बढ़ाई है।

आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ महिलाएँ वैवाहिक दबाव को चुनौती दे रही हैं। वे यह समझती हैं कि जीवन साथी चुनने का अधिकार तभी असली होता है जब आत्मनिर्भरता पहले स्थापित हो।आज शिक्षा के बढ़ते प्रचार-प्रसार और आर्थिक स्वतंत्रता ने विवाह की मजबूरी के मिथक को तोड़ा है। एक शिक्षित महिला अब सिर्फ़ किसी की "पत्नी" बनकर नहीं रहना चाहती। वह एक पेशेवरएक ज़िम्मेदार नागरिक और सबसे बढ़करएक इंसान है। जो महिलाएं आईआईटीआईआईएमएम्स से स्नातक हैं या विदेश में मास्टर डिग्री कर रहे हैंवे अब सोचती हैं, "अगर मैं ज़िंदगी के सारे फ़ैसले ख़ुद लेती हूँतो कोई और क्यों तय करे कि मैं कब या किससे विवाह करूँ?" एनएफएचएस-के अनुसारउच्च शिक्षित महिलाएँ औसतन 4 से 7 साल तक विवाह में देरी करती हैं। यह देरी कोई समस्या नहीं हैयह एक सचेत फ़ैसला है। अब वे जानती हैं कि विवाह ज़िंदगी का एक हिस्सा हो सकती हैलेकिन यह उनके जीवन को परिभाषित नहीं करती।

    कुछ महिलाओं के अनुसार करियर नई 'सुरक्षाहैपति नहीं। एक समय था जब लोग कहते थे कि विवाह कर लोकोई तुम्हारा ख्याल रखने वाला होगा। लेकिन अब महिलाएँ अपना ख्याल रखने में पूरी तरह सक्षम हैं। वे बैंकिंगतकनीकशिक्षासेनामीडिया और उद्यमिता में अग्रणी हैं। उन्हें किसी के आश्रय की आवश्यकता नहीं हैवे अपना सूरज खुद हैं। 2023 की लिंक्डइन रिपोर्ट से पता चला है कि 62% भारतीय महिलाएँ विवाह से ज़्यादा अपने करियर को प्राथमिकता देती हैं। उनके लिएविवाह अब एक "सुरक्षा जाल" नहींबल्कि एक "साझा यात्रा" है।

    शहरों में रहकर जीवनशैलीसोच और प्राथमिकताएँ बदल रही हैं। न्यूक्लियर फैमिली का दायरा संकुचित हुआ हैपारिवारिक दबाव कम हुआ है।शहरी माहौल में व्यक्तिगत विकास और आत्म-अन्वेषण को अधिक महत्व दिया जाता है। कुछ महिलाएं ऐसा मानती हैं कि रिश्ते सिर्फ़ प्यार पर नहींबल्कि समानता पर आधारित होने चाहिए। पुरानी कहावत थी, "जहाँ पति होता हैवहाँ स्वर्ग होता है।" आज की महिला पूछती है, "क्या वह मेरा सम्मान करता हैक्या वह मेरे साथ बराबरी का व्यवहार करता है?" आधुनिक रिश्ते सिर्फ़ प्यार की नहींबल्कि साझेदारी और सम्मान की माँग करते हैं। आज की महिलाएँ ऐसा व्यक्ति चाहती हैंजो सपने साझा करेमहत्वाकांक्षाओं का समर्थन करे और ज़िम्मेदारियाँ बाँटे। जब उन्हें यह नहीं मिलतातो वे अकेले चलना पसंद करती हैंइसलिए नहीं कि उन्हें रिश्तों से डर लगता हैबल्कि इसलिए कि वे सम्मान को महत्व देती हैं। कुछ महिलाएं अपने वृद्ध माता-पिता की देखभाल करना चाहती हैं और उस समय तक प्रतीक्षा करना चाहती हैं, जब तक उनकी ज़िम्मेदारी को बांटने वाला सुयोग्य वर उन्हें नहीं मिल जाता।

बदलते समय के साथ-साथ सामाजिक अस्वीकृति का दबाव भी कुछ हद तक काम हो चला है। पहले में विवाह न करना कलंक माना जाता था, लेकिन अब परिवारमित्र और समाज की अपेक्षाएँ बदल रही हैं। एकल जीवन या देर से विवाह को आत्म-चयन और व्यक्तिगत विकास की टोकन माना जाने लगा है। कुछ महिलाएं का मानना है कि विवाह इंतज़ार कर सकती हैमानसिक शांति नहीं। आधुनिक महिलाएँ आत्म-खोज में विश्वास करती हैं। वे थेरेपी लेती हैंध्यान का अभ्यास करती हैंअकेले यात्रा करती हैंऔर सोचती हैं, "क्या मैं अपना जीवन किसी और के साथ साझा करने के लिए तैयार हूँ?" विवाह उनके लिए कोई स्वतः ही तय होने वाला मील का पत्थर नहीं है। यह एक व्यक्तिगतगहन विचारपूर्ण निर्णय है। कई महिलाएं मानती हैं कि अगर कोई रिश्ता मेरी मानसिक शांति से समझौता करता हैतो मैं उसे नहीं चाहती।" यह स्पष्टता स्वार्थ नहींबल्कि आत्म-सम्मान है।

तलाक की सच्चाई आज उघड़ कर अपना कुरूप रूप दिखा रही है। तलाक अब सिर्फ़ पश्चिमी देशों की घटना नहीं रही। भारत में भीटूटती शादियाँ तेज़ी से दिखाई दे रही हैं। महिलाएँ यह समझ रही हैं कि दबाव में या डर के मारे की गई शादियाँ टाक्सिक हो सकती हैं। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की 2022 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 70% तलाकशुदा महिलाओं को लगता है कि अगर उनके पास ज़्यादा समय होता और कोई दबाव नहीं होतातो वे तलाक से बच सकती थीं। यही वजह है कि आज महिलाएँ जल्दबाज़ी नहीं करतीं। वे सोच-समझकर चुनाव करती हैं। वे गलत विवाह में फँसे रहने के बजाय अकेले रहना पसंद करती हैं।

    आज सोशल मीडिया महिलाओं को अपनी बात कहने के लिए सशक्त बना रहा है। इंस्टाग्रामफ़ेसबुक और यूट्यूब जैसे प्लेटफ़ॉर्म ने महिलाओं को आवाज़ दी हैसच्ची कहानियाँ साझा करने की जगह दी है। जब कोई महिला कहती है, "मैं अकेली रहकर खुश हूँ," तो यह लाखों लोगों को विकल्प देता है और सामान्य रूप से इस तथ्य को भी उजागर करता है कि "अकेले रहना असफलता नहींबल्कि एक विकल्प है।" महिलाएं अब खुद को अलग-थलग महसूस नहीं करतींबल्कि जुड़ावसमझ और सशक्तता का एहसास करती हैं।

आज सिर्फ़ शहरी भारत ही नहींग्रामीण भारत भी बदल रहा है। डिजिटल इंडिया कस्बों और गाँवों में भी जागरूकता लेकर आया है। छोटे शहरों की लड़कियाँ अब सिर्फ़ विवाह का नहींबल्कि आज़ादी का सपना देखती हैं। वे करियर बनाना चाहती हैंसम्मान पाना चाहती हैं और अपनी शर्तों पर जीना चाहती हैं। ग्रामीण इलाकों में भी माता-पिता अब चाहते हैं कि उनकी बेटियाँ विवाह से पहले आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाएँ। यह बदलाव धीमा ज़रूर हैलेकिन क्रांतिकारी है और तेज़ी से फैल रहा है।

    "मैं विवाह करूँगीलेकिन अपनी शर्तों पर" यही सच्ची आज़ादी है” आज की महिला साहसपूर्वक घोषणा करती है:

● मैं दहेज नहीं दूँगी।

● मैं अपना करियर नहीं छोड़ूँगी।

● मैं घर का सारा काम अकेले नहीं करूँगी।

● मातृत्व मेरी पसंद हैसामाजिक कर्तव्य नहीं।

● अगर मैं अकेले खुश हूँतो मैं दिखावे के लिए विवाह नहीं करूँगी।

यह आज़ादी हैया विद्रोहयह आंदोलन दोनों का मिश्रण है। कुछ लोग इसे आज़ादी का नाम देते हैं क्योंकि महिलाएँ अपने जीवन की दिशा स्वयं चुन रही हैंपारंपरिक समय-सीमाओं से परे जाकर पुरुषों की तरह आत्मनिर्भर बन रही हैं।उनमें व्यक्तिगत इच्छाशक्तिआत्म-निर्भरताअधिकारों की परिपक्व समझ है। वास्तव मेंयह विद्रोह नहींजागरूकता है। यह अवज्ञा नहींगरिमा है। यह नारीवाद नहींमानवतावाद है। जब एक महिला अपनी शर्तों पर जीवन जीती हैतो यही सच्चा सशक्तिकरण है। यह बदलाव सिर्फ़ व्यक्तिगत नहीं है—यह एक सामाजिक क्रांति का संकेत है। भारतीय महिलाओं ने विवाह को एक दायित्व के रूप में देखना बंद कर दिया है। अब वे इसे स्पष्टता और साहस के साथ लिए गए एक विकल्प के रूप में देखती हैं। वे कहती हैं कि अगर कोई रिश्ता मुझे खुद से अलग कर देता हैतो वह प्यार नहींबल्कि कैद है। यह बदलाव गहरास्थायी और क्रांतिकारी है। यह एक ऐसे समाज का निर्माण कर रहा है जहाँ हर महिला को अपनी शर्तों पर जीनेप्यार करने और नेतृत्व करने का अधिकार है। उनका यह निर्णय रूढ़ियों और सामाजिक अपेक्षाओं को चुनौती देता हैविवाह को अब सामाजिक अनिवार्यताओं की नहींबल्कि व्यक्तिगत चाहतों की कसौटी पर कसता है।

    अब जानें कि भविष्य की सोच क्या होनी चाहिएपरिवार और समाज को चाहिए कि वे संवाद की जगह दबाव न बनाएँसवाल पूछें और सुनें। संस्थानों को लचीली नीतियाँ अपनानी चाहिए—जहाँ देर से विवाह करने वाली या अविवाहित महिलाएँ समान अवसर पा सकें। आज हर प्रकार की मुहिम के लिए मीडिया की भूमिका अहम बनती जा रही है। मीडिया और साहित्य में इन अनुभवों को संवेदनशीलता से दिखाना चाहिएन कि उन्हें कलंकित करना। शायद ऐसा सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण अपनाने से ‘विवाह’ की पारंपरिक डोरी नई आज़ादी की हवा में उड़ती दिखाई देगी और ये दोनों ही आयाम मिलकर आधुनिक भारतीय महिला की कथा को समृद्ध करेंगेजहाँ व्यक्तिगत विकल्प और सामाजिक परिवर्तन एक साथ यात्रा पर चल पड़ेंगे।

 

डॉ मीता गुप्ता

विचारक, शिक्षाविद, साहित्यकार

 


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