भारतीय
महिलाएँ अब देर से विवाह क्यों कर रही हैं या अविवाहित क्यों रह रही हैं?
यह
आज़ादी है, या
विद्रोह...
समय
बड़ी तेज़ी से बदल रहा है। और बदले भी क्यों नहीं, आखिर
परिवर्तन ही शाश्वत होता है। भारतीय समाज में विवाह को लंबे समय
तक जीवन का अनिवार्य पड़ाव माना गया। हाल के दशकों में शिक्षा, रोजगार
और वैश्वीकरण ने इस धारणाओं को हिला दिया है। जैसे-जैसे सामाजिक घटकों में
परिवर्तन आता है,
कुछ बदलाव बड़े ही मुखर रूप से दिखाई देते हैं, उनमें
से ही एक है कि भारत में महिलाएं या तो विवाह करना ही नहीं चाहतीं, या देर
से करना चाहती हैं। भारतीय समाज की सदा से यही सोच रही
है कि बेटी पराया धन है, इसका ब्याह हो जाए, तो गंगा नाहन हो जाएगा। ऐसे
में घरों में टकराव की स्थिति भी आ जाती है। किंतु
आज कई कारण ऐसे हैं जिनके कारण माता-पिता का गंगा-नाहन या तो देर से हो रहा है, या हो
ही नहीं रहा है। आज महिलाएँ उच्च शिक्षा प्राप्त करके
अपने आत्मविश्वास और कौशल को संवार रही हैं। वे शोध, कॉर्पोरेट नौकरी, स्टार्टअप
या व्यक्तिगत व्यवसाय में खुद को स्थापित करना चाहती हैं। इस यात्रा में समय अवश्य
ही अधिक लगता है, जिससे
विवाह की उम्र स्वतः बढ़ जाती है। स्वावलंबन ने निर्णय-क्रिया में उनकी शक्ति
बढ़ाई है।
आर्थिक
आत्मनिर्भरता के साथ महिलाएँ वैवाहिक दबाव को चुनौती दे रही हैं। वे यह समझती हैं
कि जीवन साथी चुनने का अधिकार तभी असली होता है जब आत्मनिर्भरता पहले स्थापित
हो।आज शिक्षा
के बढ़ते प्रचार-प्रसार और आर्थिक स्वतंत्रता ने विवाह की मजबूरी के मिथक को तोड़ा
है। एक
शिक्षित महिला अब सिर्फ़ किसी की "पत्नी" बनकर नहीं रहना चाहती। वह एक
पेशेवर, एक
ज़िम्मेदार नागरिक और सबसे बढ़कर, एक इंसान है। जो महिलाएं आईआईटी, आईआईएम, एम्स
से स्नातक हैं या विदेश में मास्टर डिग्री कर रहे हैं, वे अब
सोचती हैं,
"अगर मैं ज़िंदगी के सारे फ़ैसले ख़ुद लेती हूँ, तो कोई
और क्यों तय करे कि मैं कब या किससे विवाह करूँ?" एनएफएचएस-5 के
अनुसार, उच्च
शिक्षित महिलाएँ औसतन 4 से 7 साल तक विवाह में देरी करती हैं। यह
देरी कोई समस्या नहीं है, यह एक सचेत फ़ैसला है। अब वे जानती
हैं कि विवाह ज़िंदगी का एक हिस्सा हो सकती है, लेकिन यह उनके जीवन को परिभाषित नहीं
करती।
कुछ
महिलाओं के अनुसार करियर नई 'सुरक्षा' है, पति
नहीं। एक समय
था जब लोग कहते थे कि विवाह कर लो, कोई तुम्हारा ख्याल रखने वाला होगा।
लेकिन अब महिलाएँ अपना ख्याल रखने में पूरी तरह सक्षम हैं। वे बैंकिंग, तकनीक, शिक्षा, सेना, मीडिया
और उद्यमिता में अग्रणी हैं। उन्हें किसी के आश्रय की आवश्यकता नहीं है, वे
अपना सूरज खुद हैं। 2023 की लिंक्डइन रिपोर्ट से पता चला है
कि 62% भारतीय
महिलाएँ विवाह से ज़्यादा अपने करियर को प्राथमिकता देती हैं। उनके लिए, विवाह
अब एक "सुरक्षा जाल" नहीं, बल्कि एक "साझा यात्रा"
है।
शहरों
में रहकर जीवनशैली, सोच और प्राथमिकताएँ बदल रही हैं। न्यूक्लियर
फैमिली का दायरा संकुचित हुआ है, पारिवारिक दबाव कम हुआ है।शहरी माहौल
में व्यक्तिगत विकास और आत्म-अन्वेषण को अधिक महत्व दिया जाता है। कुछ
महिलाएं ऐसा मानती हैं कि रिश्ते सिर्फ़ प्यार पर नहीं, बल्कि
समानता पर आधारित होने चाहिए। पुरानी कहावत थी, "जहाँ
पति होता है, वहाँ
स्वर्ग होता है।" आज की महिला पूछती है, "क्या वह मेरा सम्मान करता है? क्या
वह मेरे साथ बराबरी का व्यवहार करता है?" आधुनिक रिश्ते सिर्फ़ प्यार की नहीं, बल्कि
साझेदारी और सम्मान की माँग करते हैं। आज की महिलाएँ ऐसा व्यक्ति चाहती हैं, जो
सपने साझा करे, महत्वाकांक्षाओं
का समर्थन करे और ज़िम्मेदारियाँ बाँटे। जब उन्हें यह नहीं मिलता, तो वे
अकेले चलना पसंद करती हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें रिश्तों से डर
लगता है, बल्कि
इसलिए कि वे सम्मान को महत्व देती हैं। कुछ महिलाएं अपने वृद्ध माता-पिता की देखभाल
करना चाहती हैं और उस समय तक प्रतीक्षा करना चाहती हैं, जब तक उनकी ज़िम्मेदारी को बांटने
वाला सुयोग्य वर उन्हें नहीं मिल जाता।
बदलते समय के
साथ-साथ सामाजिक अस्वीकृति का दबाव भी कुछ हद तक काम हो चला है। पहले
में विवाह न करना कलंक माना जाता था, लेकिन अब परिवार, मित्र
और समाज की अपेक्षाएँ बदल रही हैं। एकल जीवन या देर से विवाह को आत्म-चयन और
व्यक्तिगत विकास की टोकन माना जाने लगा है। कुछ महिलाएं का मानना है कि विवाह
इंतज़ार कर सकती है, मानसिक शांति नहीं। आधुनिक
महिलाएँ आत्म-खोज में विश्वास करती हैं। वे थेरेपी लेती हैं, ध्यान
का अभ्यास करती हैं, अकेले यात्रा करती हैं, और
सोचती हैं,
"क्या मैं अपना जीवन किसी और के साथ साझा करने के
लिए तैयार हूँ?" विवाह
उनके लिए कोई स्वतः ही तय होने वाला मील का पत्थर नहीं है। यह एक व्यक्तिगत, गहन
विचारपूर्ण निर्णय है। कई महिलाएं मानती हैं कि अगर कोई रिश्ता मेरी मानसिक शांति
से समझौता करता है, तो मैं उसे नहीं चाहती।" यह स्पष्टता
स्वार्थ नहीं, बल्कि
आत्म-सम्मान है।
तलाक
की सच्चाई आज उघड़ कर अपना कुरूप रूप दिखा रही है। तलाक
अब सिर्फ़ पश्चिमी देशों की घटना नहीं रही। भारत में भी, टूटती
शादियाँ तेज़ी से दिखाई दे रही हैं। महिलाएँ यह समझ रही हैं कि दबाव में या डर के
मारे की गई शादियाँ टाक्सिक हो सकती हैं। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी
की 2022 की एक
रिपोर्ट में कहा गया है कि 70% तलाकशुदा महिलाओं को लगता है कि अगर
उनके पास ज़्यादा समय होता और कोई दबाव नहीं होता, तो वे तलाक से बच सकती थीं। यही वजह
है कि आज महिलाएँ जल्दबाज़ी नहीं करतीं। वे सोच-समझकर चुनाव करती हैं। वे गलत
विवाह में फँसे रहने के बजाय अकेले रहना पसंद करती हैं।
आज सोशल
मीडिया महिलाओं को अपनी बात कहने के लिए सशक्त बना रहा है। इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक और
यूट्यूब जैसे प्लेटफ़ॉर्म ने महिलाओं को आवाज़ दी है, सच्ची
कहानियाँ साझा करने की जगह दी है। जब कोई महिला कहती है, "मैं
अकेली रहकर खुश हूँ," तो यह लाखों लोगों को विकल्प देता है
और सामान्य रूप से इस तथ्य को भी उजागर करता है कि "अकेले रहना असफलता नहीं, बल्कि
एक विकल्प है।" महिलाएं अब खुद को अलग-थलग महसूस नहीं करतीं, बल्कि
जुड़ाव, समझ और
सशक्तता का एहसास करती हैं।
आज सिर्फ़
शहरी भारत ही नहीं, ग्रामीण भारत भी बदल रहा है। डिजिटल
इंडिया कस्बों और गाँवों में भी जागरूकता लेकर आया है। छोटे शहरों की लड़कियाँ अब
सिर्फ़ विवाह का नहीं, बल्कि आज़ादी का सपना देखती हैं। वे करियर बनाना
चाहती हैं, सम्मान
पाना चाहती हैं और अपनी शर्तों पर जीना चाहती हैं। ग्रामीण इलाकों में भी
माता-पिता अब चाहते हैं कि उनकी बेटियाँ विवाह से पहले आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो
जाएँ। यह बदलाव धीमा ज़रूर है, लेकिन क्रांतिकारी है और तेज़ी से
फैल रहा है।
"मैं
विवाह करूँगी, लेकिन
अपनी शर्तों पर" यही सच्ची आज़ादी है” आज की महिला साहसपूर्वक घोषणा करती है:
● मैं
दहेज नहीं दूँगी।
● मैं
अपना करियर नहीं छोड़ूँगी।
● मैं घर
का सारा काम अकेले नहीं करूँगी।
● मातृत्व
मेरी पसंद है, सामाजिक
कर्तव्य नहीं।
● अगर
मैं अकेले खुश हूँ, तो मैं दिखावे के लिए विवाह नहीं करूँगी।
यह
आज़ादी है, या
विद्रोह? यह
आंदोलन दोनों का मिश्रण है। कुछ लोग इसे आज़ादी
का नाम देते हैं क्योंकि महिलाएँ अपने जीवन की दिशा स्वयं चुन रही हैं, पारंपरिक
समय-सीमाओं से परे जाकर पुरुषों की तरह आत्मनिर्भर बन रही हैं।उनमें व्यक्तिगत
इच्छाशक्ति, आत्म-निर्भरता, अधिकारों
की परिपक्व समझ है। वास्तव में, यह विद्रोह नहीं, जागरूकता
है। यह अवज्ञा नहीं, गरिमा है। यह नारीवाद नहीं, मानवतावाद
है। जब एक महिला अपनी शर्तों पर जीवन जीती है, तो यही सच्चा सशक्तिकरण है। यह बदलाव
सिर्फ़ व्यक्तिगत नहीं है—यह एक सामाजिक क्रांति का संकेत है। भारतीय महिलाओं ने
विवाह को एक दायित्व के रूप में देखना बंद कर दिया है। अब वे इसे स्पष्टता और साहस
के साथ लिए गए एक विकल्प के रूप में देखती हैं। वे कहती हैं कि अगर कोई रिश्ता
मुझे खुद से अलग कर देता है, तो वह प्यार नहीं, बल्कि
कैद है। यह बदलाव गहरा, स्थायी और क्रांतिकारी है। यह एक ऐसे समाज का
निर्माण कर रहा है जहाँ हर महिला को अपनी शर्तों पर जीने, प्यार
करने और नेतृत्व करने का अधिकार है। उनका यह निर्णय रूढ़ियों और सामाजिक अपेक्षाओं
को चुनौती देता है, विवाह को अब सामाजिक अनिवार्यताओं की नहीं, बल्कि
व्यक्तिगत चाहतों की कसौटी पर कसता है।
अब
जानें कि भविष्य की सोच क्या होनी चाहिए? परिवार
और समाज को चाहिए कि वे संवाद की जगह दबाव न बनाएँ, सवाल पूछें और सुनें। संस्थानों को
लचीली नीतियाँ अपनानी चाहिए—जहाँ देर से विवाह करने वाली या अविवाहित महिलाएँ समान
अवसर पा सकें। आज हर
प्रकार की मुहिम के लिए मीडिया की भूमिका अहम बनती जा रही है। मीडिया
और साहित्य में इन अनुभवों को संवेदनशीलता से दिखाना चाहिए, न कि
उन्हें कलंकित करना। शायद ऐसा सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण अपनाने से ‘विवाह’
की पारंपरिक डोरी नई आज़ादी की हवा में उड़ती दिखाई देगी और ये दोनों ही आयाम
मिलकर आधुनिक भारतीय महिला की कथा को समृद्ध करेंगे, जहाँ व्यक्तिगत विकल्प और सामाजिक
परिवर्तन एक साथ यात्रा पर चल पड़ेंगे।
डॉ
मीता गुप्ता
विचारक, शिक्षाविद, साहित्यकार
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