Monday, 4 August 2025

साहित्य लेखन का बदलता स्वरूप

 साहित्य लेखन का बदलता स्वरूप 

ॐ सह नाववतु।
सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विदविशावै।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
यह श्लोक यजुर्वेद तैत्तिरीय उपनिषद ग्रंथों का एक मंत्र है और इसका अर्थ है- हम दोनों सुरक्षित रहें, अर्थात गुरू एवं शिष्य,हम दोनों का पोषण हो, हम महान ऊर्जा के साथ मिलकर काम करें,हमारा अध्ययन ज्ञानवर्धक हो, औरहमारे बीच कोई बाधा उत्पन्न न हो| ऐसा स+हितं, अर्थात संपूर्ण मानव समुदाय के हित को ध्यान में रखकर सहृदय मनुष्य द्वारा अभिव्यक्त विचार, भावना और भावनाएं साहित्य कहलाते हैं| क्योंकि यह मानव का, मानव के लिए लिखा गया मानव-व्यक्तित्व भी है, इसलिए यह संपूर्ण मानव समुदाय को अपनी ओर आकर्षित करता है| जो घटनाएं किसी भी पात्र के माध्यम से साहित्य में दर्शाई जाती हैं, वे किसी भी व्यक्ति के जीवन में कभी भी घटित हो सकती हैं| कोई भी व्यक्ति कभी भी अपने युग से विलग होकर नहीं रह सकता| युग का प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ ना शाश्वत है| पचास-सौ वर्षों के बाद अपनी व्याख्या में यह कह देना बड़ा आसान होता है कि उस व्यक्ति को उस समय में यह करना चाहिए था| मेरा मानना यह है कि किसी युग-विशेष में यदि किसी युगपुरुष ने कोई कदम उठाया है, तो निश्चित रूप से उस युग की परिस्थितियों वैसी ही रही होंगी| जिस प्रकार से हमने कहा कि किसी भी युग से कट कर कोई भी साहित्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार हम यह भी कह सकते हैं की साहित्य का सीधा संबंध जीवन शैली या जीवन दृष्टि से भी है| साहित्य का केंद्रबिंदु केवल मनुष्य ही होता है|

यह निर्विवादित सत्य है कि हिंदी का साहित्य बहुत समृद्ध है और उसका सृजन भी बेहद सुंदर ढंग से हुआ है| बहुत से लेखकों ने ऐसा सृजन किया कि वह शब्दातीत और कालातीत हो गया| कालक्रम की सीमाओं से परे मानव समुदाय के हित में किए गए कार्य सदैव प्रशंसनीय रहेंगे| एक व्यक्ति विशेष के द्वारा किए गए कार्यों को आदर्श मानकर उसके अनुरूप आचरण करने की प्रवृत्ति सदैव रही है और सदैव रहेगी| संपूर्ण जीवन दृष्टि को समझ पाने के छोटे-छोटे प्रयास प्रत्येक मनुष्य करता रहता है| यही समझने की चाह और न समझ सकने के बीच की दूरी पर ही साहित्य का सृजन होता है, स्वरूप चाहे कोई भी रहा हो, परंतु चाह सभी की जीवन शैली को समझना ही रही है|

पहले मनुष्य सिर्फ बोलना ही जानता था, बाद में पत्तों पर या भोज-पत्र पर लिखना प्रारंभ किया| बाद में गीली मिट्टी या पत्थरों पर लिखा जाने लगा, पर यह लिखना वास्तव में बड़ा कठिन कार्य था, इसलिए इसका विकास बड़ी धीमी गति से हुआ| यही कारण है कि शिक्षा कुछ सीमित लोगों तक ही व्याप्त रही| मध्य युग में जाकर कागज़ का आविष्कार हुआ| तभी से छपाई का प्रचलन आरंभ हो गया| यही कारण है कि प्राचीन समस्त सामग्री विलुप्त हो गई| यह कार्य भी इतना व्यय साध्य था कि सभी तक इसकी पहुंच संभव नहीं थी| हम यह भी देखते हैं, जो भाषाएं लिखी जाती हैं, वे ही प्रगति करती हैं, बाकी विलुप्त होती जाती हैं| लिखने के कई फायदे बोलने से कहीं अधिक बताए गए हैं| बोलने से कही गई बात, हो सकता है कि एक बार किसी को समझ में ना आई हो, पर लिखने से वह उसे दोबारा पढ़ सकता है| कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात हम कह सकते हैं, लिखे हुए विचार सुरक्षित रहते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान के विस्तार में सहायक सिद्ध होते हैं| हमारे ऋषि मुनियों ने हर एक क्षेत्र में इतनी खोज की, परंतु हमें उनकी जानकारी सिर्फ़ श्रव्य-स्त्रोतों से प्राप्त होती है, जिसका कोई स्पष्ट आधार नहीं होता| अगर वह सारी बातें उसे समय लिखी गई होतीं, तो उनका ठोस आधार होता| ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति की खोज का लाभ दूसरे व्यक्ति को तभी मिल पाता है, जबकि वह समकालीन होता है| अगर कहीं इसकी कड़ी टूटी, तो प्राप्त ज्ञान समाप्त हो जाता है| अतः हम यह मानते हैं कि निःसंदेह काफी सारी उपलब्धियां रही होगी ऋषि मुनियों की, परंतु लिखित स्वरूप के अभाव में वे सारी विलुप्त हो गईं| जब से भाषा का लिखित स्वरूप चला है, तभी से विचारों का स्थायीकरण प्रारंभ हुआ है| फिर लिपि का एक फायदा यह भी है कि बोली गई बात को एक सीमित जनसमुदाय ही सुन पाएगा परंतु लिखी गई बात को प्रामाणिक तौर पर कोई भी कभी भी सुन-पढ़ सकता है| इस प्रकार लिपि भाषा का स्थायी रूप है|

साहित्य की सबसे रुचिकर बात यह रही है कि केवल यही साधारणीकरण को जन्म देता है| जब मनुष्य अपने मन के भावों को विस्तारित करने लगता है, तो वह किसी पराए या दूसरे के जीवन में घटी घटनाओं से भी इतना अधिक प्रभावित हो जाता है कि वह दूसरे के जीवन की घटनाओं के अनुरूप हंसने और रोने लगता है, केवल उन घटनाओं के अनुरूप व्यवहार ही करता है, अपितु घटना निस्तारण ऐसे स्वरूप में चाहता है, जो कि संपूर्ण मानव-जाति के हित में हो, इसलिए कथा से जब श्रोता या पाठक जुड़ता है, तो अंत तक उसके साथ रहना चाहता है तथा जो समस्या उक्त कथा में खड़ी की गई है, उसका समाधान भी मानव-हित के अनुरूप चाहता है| ऐसे में कहा जा सकता है कि व्यावहारिक जीवन में चाहे यह माना जाए कि मानव मानव का दुश्मन है, परंतु वास्तविक रूप से उसका अंतर्मन मानव-जाति का विनाश नहीं चाहता है, दूसरे के हित में ही वह अपना हित का अनुभव करता है|

साहित्य मानव-मन की अभिव्यक्ति है| प्रत्येक युग का मानव-मन उसे युग के अनुरूप ही सोचता है| एक आम आदमी और एक साहित्यकार में फर्क भी यही होता है कि आम आदमी स्थिति के अनुरूप सोचता तो है, परंतु सटीक अभिव्यक्ति का सामर्थ्य उसमें नहीं होता ऐसे में परिस्थिति चाहे कुछ भी रही हो परंतु साहित्यकारों ने हर युग को लिखा है| जब सारे कवियों के साहित्यिकों को उसे युग की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के सापेक्ष में हम देखते हैं, तो पाते हैं कि एक निश्चित काल विशेष से एक निश्चित काल विशेष तक सारे ही साहित्यकार एक जैसा लिख रहे हैंं, क्योंकि जिन परिस्थितियों से उस युग का आम आदमी गुजरता है, उन्हीं परिस्थितियों से उस समय का साहित्यकार भी गुजरता है, गुजरता ही नहीं, अपितु उस युग को भोगता और जीता भी है, तभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में उस युग की मांग और समय को लिख पाता है|

 

यदि हिंदी का अर्थ हम सिर्फ़ और सिर्फ़ खड़ी बोली से लेते हैं, तो निश्चित तौर पर हमारे पास आधुनिक काल के अलावा कुछ नहीं बचता क्योंकि इससे पहले खड़ी बोली हिंदी में इतना कुछ लिखा ही नहीं गया था और जो लिखा भी गया था, वह संरक्षित नहीं रहा| ऐसी स्थिति में ही हम अपने साहित्य में ब्रज अवधि और राजस्थानी में लिखे गए साहित्य को भी शामिल करते हैं| तत्कालीन युग में इन भाषाओं में लिखने वालों की गलती नहीं थी क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि आगे चलकर खड़ी बोली को इतना महत्व मिलेगा| वरना आज के समय में जिस प्रकार देश के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति खड़ी बोली हिंदी में लिख रहा है, वैसा ही लिखता| फिर दूसरी समस्या और भी थी कि स्वयं भारत भी सदैव खंड-खंड रहा है| भारत का भी ठीक-ठाक यह स्वरूप नहीं था, जो आज और अब नजर आता है| ऐसी स्थिति में छोटे-छोटे गणराज्य ही राष्ट्र हुआ करते थे और वे सभी अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा में लिख रहे थे| सभी राज्यों की परिस्थितियां अलग-अलग रहीं इसलिए लेखन के क्षेत्र में भी सब अलग-अलग रहे| ऐसे में कहा जाए कि विशुद्ध हिंदी में तो हमें आधुनिक काल में ही साहित्य नज़र आता है, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी| हां, यदि हम इसे थोड़ा विस्तारित संदर्भ में लें, तो जिन राज्यों की भाषाओं की लिपि देवनागरी है और कुछ-कुछ हिंदी जैसी प्रतीत होती है, उन सभी का साहित्य हिंदी साहित्य है| तभी हम इतिहास को संवत 1000 तक विस्तारित कर सकते हैं| उसमें भी उपलब्ध साक्ष्यों और काव्य के आधार पर अनेक ऐसा साहित्य भी रहा है, जो लिखा गया, परंतु संरक्षण के अभाव में वह समाप्त हो गया|

हमने अलग-अलग कालों का विभाजन उस समय के उपलब्ध साहित्य के आधार पर किया और इस आधार पर उसका नामकरण भी किया| परंतु प्रश्न यह भी उठता है कि क्या वे परिस्थितियों संपूर्ण भारत में एक जैसी थीं? शायद नहीं| मेरे कहने का अर्थ है कि हमारा दृष्टिकोण एकांगी रहा है| यही कारण है कि हमारे उत्तर भारत के साहित्य का दक्षिण भारतीयों ने विरोध किया| यही कारण है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा मनाने के लिए वे अभी भी तैयार नहीं हैं, परंतु यह अलग विषय है कि राष्ट्रभाषा क्या हो? मुख्य विषय है कि हिंदी साहित्य ा बदलता स्वरूप| मैं भी अन्य पाठकों की तरह यह मान लेती हूं कि हिंदी का अर्थ देवनागरी में लिखी गई संपूर्ण भाषाएं हैं, ताकि हमारे पास इतिहास की कुछ सामग्री मिल सके|

साहित्य का इतिहास बदलती हुई अभिरुचियों और संवेदनाओं का इतिहास होता है| अभिरुचि और संवेदनाओं के बदलाव का सीधा संबंध आर्थिक और चिंतनात्मक परिवर्तन से है| कुछ लोगों की दृष्टि में आर्थिक परिवर्तनों के साथ साहित्यिक परिवर्तनों का तालमे बैठा देना ही साहित्य का इतिहास होता है| कुछ लोग संस्कृति के धरातल पर ही अभिरुचियों का विकासक्रम निर्धारण करते हैं| वस्तुतः आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों में पेचीदा संबंध है| शुद्ध रूप से दोनों के कारण व कार्य का संबंध स्थापित करके सरलीकरण नहीं किया जा सकता| अतः साहित्य इतिहास के संदर्भ में दोनों के संबंधों की विवेचना की अतिरिक्त अवधारणा की अपेक्षा करता है| आधुनिक काल के पूर्व भारतीय गांव का आर्थिक ढांचा अपरिवर्तनशील और स्थिर रहा| गांव अपने आप में स्वतःपूर्ण आर्थिक इकाई थे| उनकी अपरिवर्तनशीलता को लक्ष्य करते हुए सर चार्ल्स मेटिकॉफ ने लिखा है-गांव छोटे-छोटे गणतंत्र थे| उनकी अपनी आवश्यकताएं गांव में पूरी हो जाती थीं| बाहरी दुनिया से उनका कोई संबंध नहीं था| एक के बाद दूसरा राजवंश आया, एक के बाद दूसरा उलटफेर हुआ| हिंदू ,पठान, मुगल, सिख आदि के राज्य बने और बिगड़े| पर गांव वैसे के वैसे ही बने रहे| गांव की ज़मीन पर सबका समान अधिकार था| किसान खेती करता था, लुहार, बढ़ई, कुम्हार, नाई, गोंड, तेली आदि गांव की सभी आवश्यकताएं पूरी करते थे| पेशा जाति के अनुसार निश्चित होता था| एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति के पेशे का प्रयोग पैसा कमाने के लिए नहीं कर सकता था क्योंकि वह इसके लिए स्वतंत्र नहीं था| अब यह स्पष्ट है कि हिंदी का स्वरूप परिवर्तन मनुष्य की जीवन दृष्टि के बदलने के साथ हुआ और वैसे-वैसे ही साहित्य भी बदलता गया| हर काल की अंतर्दशा ने मनुष्य को बाधित किया, उसके अनुरूप लिखने के लिए| यथा-

साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः

साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।

तृणं न खादन्नपि जीवमानः

तद्भागधेयं परमं पशूनाम्॥

No comments:

Post a Comment

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...