Monday, 31 October 2022

विविधता में एकता-हिंद की विशेषता

 

विविधता में एकता-हिंद की विशेषता

 


भारतीय संस्कृति में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक तत्वों का एक अनुपम समन्वय देखने को मिलता है। ये विविधताएं भारतीय समाज व संस्कृति में चार चाँद लगाती है। वास्तव में भारतीय संस्कृति में दूसरों के सांस्कृतिक तत्वों को आत्मसात करने और अपने अंदर उनको उपयुक्त स्थान प्रदान करने की अद्भुत शक्ति है। इसी सौंदर्य को देखकर ही अनेक विदेशियों ने भारत में प्रवेश किया। इनकी संस्कृति एक-दूसरे से काफी भिन्न होने के बावजूद भी भारत ने इनको ग्रहण किया और उसे अपने साथ मिला लिया। इसी प्रकार समय की मांग को देखते हुए भारत ने विभिन्न सांस्कृतियों के विभिन्न तत्वों को आत्मसात करके अपनी संपन्नता को बढ़ाया। भारत ने ग्रहण किए जा सकने वाले सभी तत्वों को ग्रहण किया। इन विविधताओं को निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता हैं -

1. भौगोलिक दशाओं की विविधताएँ- भारत का क्षेत्रफल काफी बड़ा है। अतः यहाँ भौगोलिक विविधताओं का पाया जाना स्वाभाविक है। भारत में यदि एक ओर बर्फ़ से ढकी हिमालय पर्वत की चोटियां हैं, तो दूसरी ओर लहराता समुद्र और खाड़ियां भी हैं। भारत में यदि एक और राजस्थान का शुष्क मरुस्थल है, तो दूसरी ओर गंगा का वह मैदान है, जहाँ मानव-जीवन के असंख्य दीप नित्य जल रहे हैं। यहाँ यदि एक ओर सतत प्रवाहमान गंगा विद्यमान है, तो दूसरी ओर दक्षिण की कुछ ऐसी नदियां भी हैं, जिन्हें केवल वर्षा से ही जल-प्राप्त होता है। यहाँ पर न केवल पहाड़ों व नदियों में विविधताएं पाई जाती हैं, बल्कि यहाँ विभिन्न प्रकार की मिट्टी भी पाई जाती है। जैसे- काली मिट्टी, दोमट मिट्टी एवं कहारी मिट्टी आदि ।

2. जलवायु की विविधताएँ-भारत की जलवायु में भी विविधताएं पाई जाती हैं। यहाँ उष्ण, शीतोष्ण और शीत तीनों प्रकार की जलवायु पाई जाती है। यहां यदि एक स्थान पर शरीर कंपकपाने वाली सर्दी पड़ती है, तो दूसरे स्थान पर भीषण गर्मी भी पड़ती है। कोंकण एवं करोमंडल तट पर नमी व गर्मी दोनों है। यहाँ यदि एक ओर दक्षिण के शुष्क पथरीले पठार की सूखी जलवायु है, तो दूसरी ओर बंगाल की मालाबार की आर्द्र जलवायु और मालवा की शीतोष्ण जलवायु भी है। यहाँ एक ओर असम, बंगाल व चेरापूंजी में अधिक वर्षा होती है, वहीं दूसरी ओर राजस्थान व पंजाब के दक्षिणी भाग में बहुत कम वर्षा होती है।

3. प्रजातीय भिन्नताएं- भारत देश में अनेक प्रजातियां निवास करती हैं। यहाँ पर नाटे कद वाले नीग्रिटो प्रजाति के लोग और लंबे कद वाले नीर्डक प्रजाति के लोग रहते हैं। यहाँ पर मंगोल एवं प्रोटो-आष्ट्रोलॉयड प्रजाति के लोग भी रहते हैं। जहाँ एक ओर चौड़े सिर वाले आल्पाइन प्रजाति के लोग भी रहते हैं। इस प्रकार जहाँ विभिन्न प्रजातियां निवास करती हैं।

4. भाषा की भिन्नताएँ- हमारे देश में लगभग 1662 मातृभाषाएँ प्रचलित हैं, जिन्हें 826 भाषाओं के अंतर्गत लाया जा सकता है। इनमें 103 भाषाएँ ऐसी हैं, जो भारतीय नहीं है। हिंदी भाषा को बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक है। इसके बाद क्रमशः तेलुगू व बंगला भाषाओं का स्थान है। इसके अतिरिक्त यहाँ अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं-गुजराती, मराठी, तमिल, उर्दू, कन्नड, मलयालम, बिहारी, राजस्थानी, असमी, पंजाबी, संथाली, उडीसा, काश्मीरी, सिंधी आदि। यहाँ संस्कृत भाषा को बोलने वालों की संख्या काफी कम है। उन भाषाओं को चार अलग-अलग भाषा-परिवारों से संबंध किया जा सकता है, जो कि निम्नलिखित हैं- आर्यन, आगीइन, द्रविडियन एवं चीनी तिब्बती।

5. धर्म की विविधताएँ-हमारे देश में धर्मों में भी विविधताएँ पाई जाती है। यहाँ पर . अनेको धर्म पाये जाते हैं हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिक्ख धर्म, इसाई धर्म एवं इस्लाम धर्म आदि। यहाँ पर केवल हिंदू धर्म के विविध संप्रदाय व मत संपूर्ण देश में फैले हुए हैं जैसे - वैदिक धर्म, सनातन धर्म, पौराणिक धर्म, शैव धर्म, शाक्य धर्म, वैष्णव धर्म, राजा वल्लभ सम्प्रदाय, आर्यसभाजी, ब्रह्मसमाजी एवं नानकपंथी आदि। इनमें से कुछ धर्म, साकार ईश्वर की तथा कुछ निराकार ईश्वर की पूजा करते हैं। किसी में भक्ति मार्ग की प्रधानता है तो किसी में ज्ञान मार्ग की तथा कोई अहिंसा का पुजारी है तो कोई बलि और कोई यज्ञ पर बल देता है।

भारतीय संस्कृति की विविधताओं में मौलिक अखंड एकता

भारत की उपरोक्त विविधताओं की अध्ययन करने के पश्चात् निष्कर्ष रूप में यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत विविधताओं का विशाल देश है। यद्यपि भारत में विभिन्न जातियां निवास करती हैं, जिनकी अपनी भाषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, धर्म तथा आदर्श एक-दूसरे से भिन्न हैं। लेकिन भारतीय समाज व जन जीवन का गहरा अध्ययन करने पर इस बात का पता चलता है कि इन विविधताओं के पीछे आधारभूत अखंड मौलिक एकता भी भारतीय समाज में संस्कृति की अपनी एक विशिष्ट विशेषता है। इस निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है -

1. भौगोलिक एकता-भौगोलिक दृष्टि से भारत को कई भागों में विभक्त किया जा सकता है। इस विशाल देश के अंदर न तो ऐसे पर्वत है, और न ही ऐसी नदियां व वन है, जिनको पार न किया जा सकता है। इस प्रकार भारत एक संपूर्ण भौगोलिक ईकाई है। इसके साथ ही उत्तर में हिमालय की विशाल पर्वतमाला तथा दक्षिण समुद्र ने भारत में एक विशेष प्रकार की ऋतु पद्धति बना दी है। जो जल भाप बनकर ऊपर उठता है यह बर्फ की चोटियों में जम जाता है, फिर गर्मी पाकर यही बर्फ पानी के रूप में नदियों और समुद्र में बहता है। सनातन काल से हिमालय और समुद्र में बहता है। सनातन काल से हिमालय और समुद्र के मध्य आदान प्रदान करने का क्रम निरंतर रूप से चल रहा है। यहाँ एक निश्चित क्रम के अनुसार ऋतुएँ आती जाती है। इस प्रकार स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भारत में पूर्ण भौगोलिक एकता विद्यमान है।

2. धार्मिक एकता-भारत की एकता और अखंडता भारतीयों के धार्मिक विश्वासों और कृत्यों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। वैसे तो यहां पर अनेक धर्म व सम्प्रदाय है, किंतु गहराई से देखने पर यह पता चलता है कि वे सभी समान दार्शनिक व नैतिक सिद्धांतों पर आधारित है। भारत की सात पवित्र नदियां एवं पर्वत भारत के विभिन्न भागों में स्थित है, जिनके प्रति देश के प्रत्येक भाग के निवासी समान रूप से श्रद्धा व आदर भाव रखते है। इतना ही नहीं राम, कृष्ण, हनुमान, शिव एवं माँ दुर्गा का गुणगान संपूर्ण भारत में किया जाता है। इसी प्रकार चारों दिशाओं के चार धाम-उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिका भारत में धार्मिक एकता और अखंडता के प्रमाण है। इसी प्रकार गाय को सभी हिन्दु पवित्र मानकर पूजते है। इस प्रकार भारतीयों के समक्ष भारत की एकता एवं अखंडता की कल्पना सदैव मूर्तिमान रही है।

3. सांस्कृतिक एकता-भारत में प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक एकता विद्यमान रही है। विभिन्न जातियों व धर्मावलंबियों के होने के बावजूद उनकी संस्कृति भारतीय संस्कृति का एक अंग बनकर रह गयी है। संपूर्ण भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का मौलिक आधार एक सा है। इस संबंध में प्रो. हुमायूँ कबीर ने लिखा है कि भारतीय संस्कृति की कहानी, एकता और समाधानों का समन्वय है तथा प्राचीन परम्पराओं और नवीन मानों के पूर्ण संयोग के उन्नति की कहानी है। यह प्राचीनकाल में रही है और जब तक यह विश्व रहेगा तब तक सदैव रहेगी। दूसरी संस्कृतियां नष्ट हो गयी पर भारतीय संस्कृति व इसकी एकता अमर है।

4. सामाजिक एकता-भारत के विभिन्न भागों में सामाजिक जीवन में भी संतुलन पाया जाता है। सभी स्थानों पर संयुक्त प्रथा का प्रचलन है। जाति प्रथा ने किसी न किसी रूप में भारत के सभी निवासियों को प्रभावित किया है। संपूर्ण भारत के लगभग सभी स्थानों में दीपावली, होली, रक्षाबन्धन व दशहरा आदि त्योहारों को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इसी प्रकार संपूर्ण देश में जन्म-मरण के संस्कारों व विधियों, विवाह प्रणालियों, शिष्टाचार मेलों, उत्सवों, सामाजिक रूढ़ियों एवं परंपराओं में भी पर्याप्त समानता देखने को मिलती है।

5. राजनीतिक एकता-भारत में राजनीतिक दृष्टि से भी सदैव एकता रही है। यद्यपि भारत में अनेकों राज्य विद्यमान रहे है, किंतु भारत के सभी महान सम्राटों का उद्देश्य संपूर्ण भारत पर एकपत्र साम्राज्य स्थापित करता रहा है, जिसके लिए विभिन्न प्रकार के यज्ञ किये जाते रहे है। प्राचीन ग्रंथों में इस प्रकार के अनेक राजाओं की गाथाओं का वर्णन है कि उन्होंने पूर्व से पश्चिम तक तथा उत्तर से दक्षिण तक भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया और यह व्यक्त किया कि भारत का विस्तृत भूखंड राजनीतिक दृष्टि से वास्तव में एक है।

6. भाषा की एकता-भारत में विभिन्न प्रकार की भाषाएँ प्रचलित अवश्य हैं किंतु वे सभी एक ही सांचे में ढली हुई है। सभी भाषाओं पर संस्कृत भाषा का प्रभाव देखने को मिलता है तथा अधिकांश भाषाओं की वर्णमाला एक है। फलस्वरूप भारत की प्रायः सभी भाषाएँ बहुत अर्थों में समान बन गयी है। ईसा से पूर्व तृतीय शताब्दी में इस विशाल देश की एक ही राष्ट्रभाषा प्राकृत भाषा थी, जो महामान्य सम्राट अशोक का संदेश उसकी प्रजा के निम्नस्थ श्रेणी के व्यक्ति द्वार तक ले जाने में भी समर्थ हुई। कुछ शताब्दियों के पश्चात् संस्कृत नामक एक अन्य भाषा ने इस महाद्वीप के एक कोने में अपना स्थान बना लिया। इसी के द्वारा समस्त धर्मों का प्रचार हुआ। संस्कृत में ग्रन्थ आज भी रुचिपूर्ण संपूर्ण भारत में पढ़े जाते है। संपूर्ण देश के समाज को एक सूत्र में पिरोने का कार्य पहले प्राकृत व संस्कृत भाषा नें, फिर अंग्रेजी और बाद में हिन्दी द्वारा किया जा रहा है। भाषा की एकता की इस निरंतरता को कदापि खण्डित नहीं किया जा सकता है।

7. भारत के निवासियों की एकता-यद्यपि भारत में अनेक जातियां व प्रजातियां निवास करती है। इनमें कुछ बाहरी प्रजातियां भी हैं, किंतु ये आज हिन्दुओं में इतना मिलजुल चुकी है कि उनका पृथक अस्तित्व लगभग समाप्त हो चुका है। इसके अतिरिक्त बहुसंख्यक इसाई व मुसलमान, जो आज भारत के नागरिक हैं, वास्तव में मूलतः हिन्दु ही हैं, केवल धर्म परिवर्तन के द्वारा वे इसाई या मुसलमान बन गये है। धर्म परिवर्तन कर लेने पर हृदय परिवर्तन नहीं होता, यही कारण है कि हिन्दु, मुसलमान व इसाई में काफी समानता पाई जाती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत के निवासियों की एकता में और भी अधिक वृद्धि हुई, क्योंकि वे सभी आज धर्म निरपेक्ष भारत संघ के नागरिक है और उन्हें सभी क्षेत्रों में समान अधिकार प्राप्त है।

8. कला की एकता-भारतीय जीवन में कला की एकता भी उल्लेखनीय विषय है चित्रकला, मूर्तिकला, नृत्य एवं संगीत आदि के क्षेत्रों में हमें काफी समानता देखने को मिलती है। इन सभी क्षेत्रों में देश की विभिन्न कलाओं का एक अपूर्ण मिलन हुआ। इस मिलन का आभास देश के विभिन्न भागों में बने मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों एवं गिरिजाघरों में होता है। संपूर्ण भारत वर्ष में पाश्चात्य धुनो का भी विस्तार है। इसी प्रकार भारत नाट्यम, कत्थक एवं मणिपुरी आदि नृत्यों से भारत के सभी भागों में लोग परिचित है। इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि कला के क्षेत्र में भी भारत में अखंड एकता है।

अंत में श्री गोपाल सिंह नेपाली के शब्दों में-

लो गंगा-यमुना-सरस्वती या लो मंदिर-मस्जिद-गिरजा

ब्रह्मा-विष्णु-महेश भजो या जीवन-मरण-मोक्ष की चर्चा

 

सबका यहीं त्रिवेणी-संगम, ज्ञान गहनतम, कला रसीली

मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली ॥

 

मीता गुप्ता

Wednesday, 26 October 2022

जीवन:एक उत्सव

 

जीवन:एक उत्सव





जीवन क्या है, क्या नहीं है, यह तय करना सरल भी है, और चुनौतीपूर्ण भी| हम में से अधिकतर लोग जीवन के हर प्रसंग का उत्सव मनाना चाहते हैं| प्रतिदिन सोना-जागना-उठना-घूमना-खाना-पीना-कमाना आदि-आदि..शायद रोज़मर्रा की एकरसता को बदलने के लिए हम सब जीवन के हर प्रसंग में सदैव कुछ न कुछ उत्सव करने की सहज चाहना रखते हैं| कई लोगों को यह लगता है कि मनुष्य द्वारा सृजित उत्सव परंपरा पर मनुष्यों का ही एकाधिकार है, पर वास्तविकता में ऐसा नहीं है| मनुष्य की उत्सव परंपरा के समान एक निश्चित प्राकृतिक उत्सव क्रम भी है, जैसे वसंत ऋतु में आम पर बौर आना आम के उत्सव का प्रारंभ है, आम पर फल लगने की शुरुआत छोटी-छोटी कैरियों से लेकर आम के पेड़ का आम से लद जाना, आम की उद्यमिता का चरम है| ऐसे ही हरसिंगार के पेड़ पर जो फूलों की बहार आती है, वो हर सुबह अपनी आधार भूमि को अपनी खुशबू की चादर ओढ़ाकर जीवन-यात्रा का अभिनंदन करती है| हरीतिमा से सराबोर गेहूं और धान के खेतों में उत्सव की शुरुआत बालियों की बारात निकलने से होती है, तो मक्का, ज्वार व बाजरा में दाने पड़ने से अनाज-उत्सव की शुरुआत होती है,जो छोटी-बड़ी चिड़ियों को भोजन-उत्सव का खुला मौन निमंत्रण देता है| ठंड की शुरुआत होते ही न जाने कितने रंग-बिरंगे फूलों के खिलने पर रंग-बिरंगी तितलियां निरंतर अठखेलियां कर अपनी उड़ान का उत्सव मनाकर समूची अवनि और अंबर को रंगीन बना देती हैं| बरखा की बूंदें जीवन-उत्सव ही है, धरती के हर कण-कण में बदलाव का नया दौर ,जीवन के नए-नए अंकुरों का उदय कर जीवन-उत्सव में भागीदार बनने का अवसर देती हैं।

हम सब जो जीवन के किसी न किसी रुप में इस धरती पर जीव के रुप में व्यक्त हुए हैं, हम सब चाहें न चाहें, मानें न मानें, हम सबका जीवन ही उत्सव है। तभी तो जीव मात्र की उत्सवधर्मिता जीवन भर गतिशील रहकर इस धरती में जीवन को सतत प्रवाहमय बनाए हुए है। इसी से हर समय सहज प्राकृत स्वरूप में उत्सव, हमें और हमारी धरती के सभी जीवों के जीवन के सनातन क्रम को हर क्षण नए जीवन-चक्र में आगे बढ़ाते हैं और जीवन के उत्सव-प्रसंगों से जीवन का क्रम तथा अर्थ समझाते रहते हैं। इसी से जीवन और उत्सव हमारे जीवन में सनातन रूप से रचे-बसे हैं। तभी तो हमारी धरती पर सारे जीवों का जीवन ही उत्सव है। जीवन को उत्सव कहना तो सरल है, पर जीवन-भर मनुष्यों का मन आशा-निराशा,राग-द्वेष,लोभ-लालच और सत्य-असत्य के आसपास ही घूमता रहता है। मनुष्येतर जीवन में यह सब मौजूद नहीं हैं। जीवन अपने प्राकृत स्वरूप में ऊर्जा की जैविक अभिव्यक्ति है।जिसमें मूलत: जीवन की जीवंत हलचले ही होती है। जीवन की जीवंत हलचलें ही उत्सवों का सृजनात्मक स्वरूप हैं, जो सारे जीवों में भिन्न भिन्न रूपों में निरंतर अभिव्यक्त होता रहता है।

हम संसार में एक प्रकार की यांत्रिकता से जीते हैं, हम आदतों से बंधकर जीते हैं। निश्चित ही जीवन के ये बंधन आनंदमय नहीं हो सकते हैं, देर-अबेर हम इनसे ऊब ही जाएंगे। जो व्यक्ति जितना अधिक संवेदनशील होगा, उतना ही जल्दी वह ऊबेगा। जीवन सदा अपने क्रम से चलता है, अपनी गति से चलता है और जीवन सदा नया है। जो नया नहीं है, वह हमारी भावदशाएं, हमारे चित्त की अवस्थाएं हैं। हमारा चित्त अतीत से बंधा रहता है, ऐसे ही जैसे भैंस खाए हुए चारे की लगातार जुगाली करती रहती है। भैंस के पास कोई व्यवस्था नहीं है कि वह कहीं से नए को खोज ले, वह बंधी है और खड़ी-खड़ी जुगाली ही करेगी। लेकिन आदमी की चेतना पशुओं से कहीं अधिक विकसित है। उसकी चेतना मुक्त गगन में अपने पंख खोलकर उड़ने में समर्थ है। कभी-कभी ऐसा होता भी है कि कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई नानक, कोई कबीर, कोई मीरा इतनी ऊंची उड़ान भरते हैं कि 'अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा करते हैं। ये वे हैं, जो भगवत्ता की ऊंचाई छू लेते हैं। ऐसे रहस्यदर्शियों को हम महाचेता कहते हैं। जैसा विज्ञान के जगत में अणु का विस्फोट होता है, ऐसे ही उनमें चैतन्य का विस्फोट होता है और वे चेतना के गौरीशंकर बन जाते हैं और सारे बंधनों से पूर्णत: मुक्त हो जाते हैं।

क्या ऐसा संभव है? निश्चित ही संभव है?  ये सभी इस अवस्था के पहले साधारण व्यक्ति ही थे। उन्होंने ध्यान किया, साधना की। वे जीवन को पल-पल जीने लगे, उन्होंने यांत्रिकता तोड़ दी, उससे मुक्ति के लिए संघर्ष किया, तपश्चर्या की, उनकी मूर्च्छा टूटी, वे सजग हुए और ऐसी परम उपलब्धि की, जिससे उनके लिए जीवन प्रतिपल नया और आनंदमय हो गया। तब उन्हें आनंद मनाने के लिए नए वर्ष के पहले दिवस का इंतज़ार करने की ज़रूरत  नहीं रही। उनके लिए तो हर पल नया हो गया। जैसा कि हरिवंश राय बच्चन 'मधुशाला’ में कहते हैं- दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला! इसलिए भविष्य के किसी उत्सव का इंतज़ार नहीं करना चाहिए, हर क्षण उत्सवमय ढंग से जीना चाहिए। आप जो भी कार्य करते हैं, उसे बोधपूर्वक करें, तो उसमें आनंद होगा, तब कर्म ही पूजा, प्रार्थना और आनंद हो जाएगा और हर क्षण उत्सव|

मशीन में दो यंत्र होते हैं, दिशा दिखाने वाला और गति बढ़ाने वाला। दोनों की आवश्यकता होती है। वैसे ही मनुष्य के चित्त में एक 'बुद्धि है और दूसरी 'धृति, धारणा-शक्ति, अपने को रोकने की शक्ति। मराठी में कहावत है: कलते पण वलत नाहीं। गुजराती में कहा : भण्या पण गुण्यां नथी। हिंदी में कहा जा सकता है कि पढ़े, पर गुने नहीं। समझने के बाद समझे हुए विचार को इंद्रियों का विषय बनाने के लिए थोड़ा नियंत्रण करना पड़ता है। वह माता-पिता का, गुरु का हो सकता है। अपना खुद का नियंत्रण हो, तो बहुत अच्छा होगा। जिसकी बुद्धि को एक विचार जंच गया, तो इसके आगे उस पर अमल करने के लिए कुछ करना ही नहीं है। अमल हो ही जाता है।

हम प्रतिपल नया जीवन जीने की कला सीखें, देना....देना....और देना सीखें। नया जीवन यानी नए उत्साह, नई उमंग, नई प्रेरणा, नई लय, नई ताल,नया सुर आदि से परिपूर्ण जीवन…..तभी हमारा जीवन नया होगा, और हम एक नए मनुष्य होंगे, अद्यतन होंगे....जैसा कंप्यूटर की भाषा में कहा जाता है, अप्डेटेड रहेंगे। ऐसा नया मनुष्य जीवन की प्रत्येक भावभंगिमा का भरपूर आनंद ले सकेगा और जीवन को सच्चे अर्थों में भोग सकेगा, मुक्त हो सकेगा……तब उसके रोदन में भी रागोत्सव होगा और वह जीवन-उत्सव का भरपूर आनंद ले सकेगा और आनंद दे सकेगा........

जीवन एक उत्सव है-
उमंग भरे पलों का
आनंद का, उत्साह का
सुख-दुःख के मिलन का।
जीवन एक उत्सव है-
ग़म भुला कर खुश रहने का,
गलतियां माफ़ कर दिल से अपनाने का,
मिल-जुल कर साथ बढ़ने का।
जीवन एक उत्सव है-
विकारों को त्याग करने का,
नकारात्मकता के विनाश का,
अंधकार के समापन का।
जीवन एक उत्सव है-
सकारत्मक ऊर्जा के जागरण का,
खुद को संतुलित करने का,
हर परिस्थिति में अविचलित रहने का।
जीवन एक उत्सव है-
अंतरात्मा को जानने का,
आत्ममंथन करने का,
परमात्मा से आत्मा के पुनर्मिलन का।
जीवन एक उत्सव है-
दिव्य तरंगों के संचरण का,
परमज्ञान की प्राप्ति का,
अपनी दिव्य स्थिति में आने का।

हां, जीवन एक उत्सव है!!

 

मीता गुप्ता

 

 

 

Friday, 21 October 2022

आइए, इस दिवाली मन-मंदिर में दीप जलाएं

 

आइए, इस दिवाली मन-मंदिर में दीप जलाएं





 

दीपावली सुख-समृद्धि के आहवान का पर्व है। लक्ष्मी की पूजा की जाती है। कहते हैं दीपावली के दिन लक्ष्मी साफ-सुथरे घरों में ही प्रवेश करती हैं गंदे घरों में नहीं। घर साफ-सुथरा और स्वच्छ है, तो उसमें रहने वाले भी स्वस्थ और सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर होंगे। इसीलिए हम सब दीपावली आने से कुछ पहले ही घरों की गहन सफाई में जुट जाते हैं, साल भर का जमा कूड़ा-करकट और रद्दी निकाल कर कबाड़ी को बेच देते हैं और उनकी जगह नई उपयोगी चीज़ें  लाते हैं…अपने घर को सजाते हैं, दीपों को रोशन कर अंधकार को ख़त्म करते हैं…कितना अच्छा लगता है न ये सब!

बचपन की दिवाली मन की दिवाली होती थी। दीपावली आते ही मन में होने लगता था, कई सारी चीज़ों  का उत्साह। नए कपड़े, पटाखे, रंगोली का नया डिज़ाइन आदि कई चीज़ें कौतूहल का विषय होती थीं और इन सबके बीच बनती थीं, मठरी, कचौरी, नमकीन और मावे से भरी गुझिया और...और चकरी, फुलझड़ी, अनार-से दैदीप्यमान हमारे सपने। आज समय बदला है, जीवन बदला है और बदली है हमारी दिवाली|

इन बदलावों के बीच एक अटल सत्य नहीं बदला, कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह सबके बीच रहता है, अतः समाज के प्रति उसके कुछ कर्तव्य भी होते हैं। सबसे बड़ा कर्तव्य है एक-दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होना एवं यथाशक्ति सहायता करना। मनोवैज्ञानिक मानते हैं खुशी का कोई निश्चित मापदंड नहीं होता। एक मां बच्चे को स्नान कराने पर खुश होती है, छोटे बच्चे मिट्टी के घर बनाकर, उन्हें ढहाकर और पानी में कागज की नाव चलाकर खुश होते हैं। इसी तरह विद्यार्थी परीक्षा में अव्वल आने पर उत्साहित हो सकता है। सड़क पर पड़े सिसकते व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाना या भूखे-प्यासे-बीमार की आहों को कम करना, अन्याय और शोषण से प्रताड़ित की सहायता करना या सर्दी से ठिठुरते व्यक्ति को कम्बल ओढ़ाना, किसी नेत्रहीन को नेत्र ज्योति देने का सुख है या जीवन और मृत्यु से जूझ रहे व्यक्ति के लिए रक्तदान करना-ये जीवन के वे सुख हैं, जो इंसान को भीतर तक खुशियों से सराबोर कर देते हैं। इन सबको परोपकार कहकर विभूषित किया गया है।बड़े-बड़े संतों ने इसकी अलग-अलग प्रकार से व्याख्या की है। तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में श्रीराम के मुख से वर्णित परोपकार के महत्व का उल्लेख किया है-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

अर्थात् परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के समान कोई अधर्म नहीं। संसार में वे ही सुकृत मनुष्य हैं, जो दूसरों के हित के लिए अपना सुख छोड़ देते हैं। हंसमुख, विनोदप्रिय, आत्मविश्वासी लोग प्रत्येक जगह अपना मार्ग बना ही लेते हैं। ईसा, मोहम्मद साहब, गुरु नानकदेव, बुद्ध, कबीर, गांधी, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, झांसी की रानी, गोस्वामी तुलसीदास और हज़ारों-हज़ार महापुरुषों ने हमें जीवन में खुश, नेक एवं नीतिवान होने का संदेश दिया है। इनका समूचा जीवन मानवजाति को बेहतर अवस्था में पहुंचाने की कोशिश में गुज़रा। इनमें से किसी की परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं। हर किसी ने संघर्षा करके, जूझकर उन्हें अपने अनुकूल बनाया और जन-जन में खुशियां बांटी। हमें बस इतनी शुद्ध बुद्धि तो अवश्य ही रखनी होगी कि केवल अपने लिए न जीएं। कुछ दूसरों के हित के लिए भी कदम उठाएं क्योंकि परोपकार से मिलने वाली प्रसन्नता तो एक चंदन है,  जो दूसरे के माथे पर लगाइए, तो आपकी अपनी अंगुलियां उससे महक उठेगी। सच में, मित्रों! परोपकार को अपने जीवन में स्थान दीजिए, मन-मंदिर का दीप जल उठेगा।

असतो मा सद्गमय्।

तमसो मा ज्योतिर्गमय ।

मृत्योर्मा अमृतं गमय ॥

हमारे मन का प्रत्येक कोना एक दीपक की राह तकता है, ऐसा दीपक, जिसमें मन के भीतरी कोनों को रोशन करने, प्रकाशित करने की शक्ति हो, सामर्थ्य हो। कभी ऐसे प्रकाश का ख्‍याल आया है आपको? दिल के वे तहखाने, जो बरसों से भरे पड़े हैं, जहां कुछ कड़वी बातें, कुछ आहत लम्‍हें और कुछ चोटिल स्‍मृतियां रहती हैं। चलिए, कुछ साफ़-सफ़ाई करते हैं, कुछ से माफ़ी मांगते हैं, कुछ को माफ़ करते हैं। कब तक इस कचरे के बोझ को उठाए रखेंगे, कंधे थक नहीं गए आपके? अनेक धर्मग्रंथों में क्षमा के महत्व को दर्शाया गया है। शास्त्रों में कहा गया है ‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’ अर्थात् क्षमा वीरों का आभूषण है। बाणभट्ट के हर्षचरितं में उल्लेख किया गया है ‘क्षमा हि मूलं सर्वतपमास’ अर्थात् क्षमा सभी तपस्याओं का मूल है । महाभारत में कहा गया है ‘क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण और समर्थ मनुष्यों का आभूषण है’। महाभारत में यह भी कहा गया है कि ‘दुष्टों का बल हिंसा है, राजाओं का बल दंड है और गुणवानों का बल क्षमा है’। क्षमा मांगने और क्षमा करने से वास्तव में खुद का ही भला होता है। ऐसा करना सकारात्मक पहल होता है। क्षमा के भाव मनुष्य के भीतर से अहंकार के भाव को नष्ट कर देता है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि हम अपने मन के भीतर क्षमा का दीपक जलाकर जग को उजियारा दे सकते हैं।

रोशनी से किसे प्यार नहीं होता। अंधेरे संसार में जब सूरज की एक किरण अपनी छटा बिखेरती है, तो दुनिया का कोना-कोना उमंग की चहचहाहट से झूमने लगता है। हम यदि एक अंधेरे कमरे को भी देखें, तो एक छोटा-सा मिट्टी का दीपक भी उस कमरे के हर कोने को रोशनी से भर देता है। यह उजियारा आखिरकार महत्वपूर्ण हो भी क्यों न, इसी उजियारे से तो हम हर एक वस्तु को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं। हम यह समझ पाते हैं कि कैसे एक छोटा-सा दीपक समग्र विश्व में उजाला करने के का साहस रखता है। हमारे मन में ऐसा ही एक दीपक जलता रहता है, जो पूरी दुनिया में ज्ञान की रोशनी बांट सकता है। ज्ञान का सत्य उसकी व्यावहारिक उपयोगिता में निहित है। मानव जीवन की समस्त विकृतियाँ, अनुभव होने वाले सुख-दुःख, अशांति आदि सबका मूल कारण अज्ञानता ही है। यह मनुष्य का परम शत्रु है। प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो के अनुसार, अज्ञानी रहने से जन्म न लेना ही अच्छा है क्योंकि अज्ञान ही समस्त विपत्तियों का मूल है। इस तरह अज्ञान जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। यही जीवन की समस्त विकृतियों और विसंगतियों का कारण है। समस्त विकृतियों, बुराइयों, शारीरिक, मानसिक अस्वस्थता का कारण अज्ञान और अविद्या ही है। ज्ञान आत्मा की अमरता का, परमात्मा की न्यायशीलता का और मानव जीवन के कर्त्तव्यों का बोध कराता है। ज्ञान के द्वारा ही सुविचारों का अनुसरण करने एवं सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होती है। तो चलिए, मन-मंदिर का दीप जलाएं और किसी अनपढ़ को पढ़ना सिखाएं। आपके घर में मदद करने वाले लोग होंगे, जैसे आपका माली, सफ़ाईकर्मी, बाई, गाड़ी साफ़ करने वाला....या कोई और... यदि वह पढ़ा-लिखा नहीं है, तो कम-से-कम उसे अक्षर-ज्ञान कराने का संकल्प लें.....कम-से-कम ह्स्ताक्षर करना सिखाएं...किसी गरीब बच्चे की फ़ीस देने का निश्चय करें... स्कूल जाने वाली किसी लड़की के लिए यूनिफ़ॉर्म, साइकिल, किताबें, स्टेशनरी....जो कुछ आप उपलब्ध करवा सकते हैं, ज़रूर करें। सच कहती हूं मित्रों! यह दीपक शाश्वत रहेगा और एक दीप से अनेक दीप जल उठेंगे।

किसी के चेहरे पर छोटी सी मुस्कान लाना, थोड़े समय के लिए किसी के मन को उमंग से भर देना, बहुत सरल है, बस एक छोटे-से प्रयास की ज़रूरत है। हम स्वयं की उलझनों में इतना उलझे रहते हैं कि  हम अपने लिए ही उम्मीद का दिया नहीं जला पाते, तो भला दूसरों को क्या ही उजियारे देंगे। हम दूसरों को खुशियां तभी दे सकते हैं, जब हम स्वयं प्रफुल्लित, उत्साहित, तरंगित और सकारात्मक रहेंगे। और हां, यहां अपने अहंकार को गलाने का ज़िक्र भी ज़रूरी है। श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते है, 'हे अर्जुन! अहंकार, बल और कामना के अधीन होकर प्राणी परमात्मा से ही द्वेष करने लगता है क्योंकि अहंकार उसे जीत लेता है। अहंकार हमारे विवेक को नष्ट कर देता है और हमारी समस्त अच्छाइयों पर कुहासा-सा छा जाता है।  अहंकारवश हम वे सभी कार्य करने लगते हैं, जो अनैतिक हैं। इसलिए मित्रों, क्यों न इस दिवाली मन-मंदिर के दीपक में अपने अहं को स्वाहा कर दें, जिससे हमारे हृदय में बसी अच्छाई की आभा हमें और हमारे आस-पास विद्यमान लोगों को प्रकाशित कर सके। दिवाली के अवसर पर किसी भी अच्छे काम की शुरुआत घर से ही होती है, इसलिए पहले अपने मन-मंदिर में उजियारा कीजिए, फिर दूसरों की दुनिया को प्रकाशित कीजिए-

दिवाली, इस बार आओ, तो साथ लेते आना,

खुशियों की वो फुलझड़ी, जो साथ कर दी थी पिछली बार।

तुम आना ज़रूर, अपने सच्चे स्वरूप में,

जैसे पहले आते थे, बिना गिफ्ट रैप के,

सच्चे सीधे गले मिलने।

जैसे मिट्टी के दीयों में कपास से बनाई बाती,

जैसे ईद पर बड़ी बी के हाथ से गुंथी सेवई,

जैसे लंगर में बना कढ़ाह प्रसाद,

जैसे घर के बच्चों के अनगढ़ हाथों से सजी रंगोली।

जैसे साल के दो जोड़ नए कपड़ों की चमक,

जैसे पूरे घर में पकवानों की गमक।

सच बताना, क्या तुम ये सब मिस नहीं करतीं?

करती हो? तो फिर वैसे ही आती क्यों नहीं?

तुम आती हो, तो खुशियां खिलखिलाती हैं,

उम्मीदों के दीये जलते हैं, मां मिठाई बनाती है।

तुम आओ तो सही, उसी पुराने रूप में,

हम भी फिर से पुराने बन जाएंगे।

शिकवे-शिकायतें सब दूर करके,ठहाकों से आसमान गुंजाएंगे।

क्योंकि तुम आती हो, तो दिलासा-सा लगता है।

क्योंकि तुम आती हो, तो कुहासा-सा छंटता है।।

मीता गुप्ता

 

 

 

 

 

Friday, 14 October 2022

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम-ज़िंदगी के हर मोड़ पर रहे बेमिसाल

 

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम-ज़िंदगी के हर मोड़ पर रहे बेमिसाल




“अगर किसी देश को भ्रष्टाचार मुक्त और सुन्दर विचार वाले लोगों का देश बनाना है, तो मेरा दृढ़तापूर्वक मानना है कि समाज के तीन प्रमुख सदस्य माता, पिता, और गुरु ये कर सकते हैं ” – डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम



भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम को “मिसाइल मैन ऑफ इंडिया”, के नाम से जाना जाता है। कलाम को भारत के प्रमुख वैज्ञानिक, लेखक, प्रोफेसर, एयरोस्पेस इंजीनियर जैसे नाम दिए गए  हैं, जो भारत के सबसे प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में सदैव याद किए जाते रहेंगे । डॉ. अब्दुल पाकिर जैनुलआब्दीन अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु के रामेश्वरम में हुआ था। उन्होंने सेंट जोसेफ कॉलेज तिरुचिरापल्ली में भौतिकी और मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) चेन्नई में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग का अध्ययन किया।

डॉ. कलाम भारत के रक्षा अनुसंधालय में काम करते थे और भारत को अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में मजबूत बनाना चाहते थे। 1998 में, भारत के परमाणु हथियार के सफल परीक्षण के बाद, वे राष्ट्रीय नायक बन गए और "मिसाइलमैन" कहलाए। डॉ. कलाम बहुत ही प्रेरक और करिश्माई व्यक्तित्व के साथ एक सच्चे आदर्शवादी नेता माने जाते थे। डॉ. कलाम ने कई पुस्तकें भी लिखीं और उनकी बहुत ही लोकप्रिय पुस्तकों में से एक, “भारत 2020” है, जिसमें उन्होंने भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के उपाय प्रस्तुत किए हैं। वे चाहते थे कि भारत एक महाशक्तिशाली देश बने। डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने भारत के विकास लिए, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता जैसे तीन सपने देखे थे ।

स्वतंत्रता – लगभग 3,000 वर्ष पहले, भारत पर दुनिया भर के कई आक्रमणकारियों ने आक्रमण करके यहाँ की संपत्ति को लूट लिया, हमारी संस्कृति को हानि पहुँचाया और अपनी इच्छा के अनुसार भारत का निर्माण करने की कोशिश भी की थी। लेकिन भारत ने कभी भी किसी देश पर हमला नहीं किया है, क्योंकि भारत दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान और उनकी संस्कृति का आदर करता है। इसलिए उनका पहला सपना स्वतंत्रता था क्योंकि सम्मान आप को तभी मिल सकता है, जब आपके पास स्वतंत्रता होती है।

विकास- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से आज भी हमारा देश विकासशील देशों मे से एक है। लेकिन आज समय यह है कि विकासशील देश से एक विकसित देश का निर्माण किया जाए। हालाँकि हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है, और हमारी उपलब्धियों को वैश्विक स्तर पर पहुँचाया जा रहा है, फिर भी हमारे पास एक विकसित राष्ट्र के निर्माण का आत्मविश्वास नहीं है। उनका दूसरा सपना भारत का विकास था।

आत्मनिर्भरता- दूसरे देश, हमारा तब ही सम्मान करेंगे, जब हम आत्मनिर्भर  होंगे और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सैन्य और आर्थिक दोनों शक्तियों को एकजुट करेंगे।

वर्तमान में, भारतीय लोग विदेशी उत्पादों से घिरे हुए हैं। केवल सम्मान की बात की जाए, तो यदि आपके पास जरा सा भी आत्मसम्मान हो तो भारत में बने उत्पादों का ही उपयोग करें, क्योंकि भारत के लिए आत्म-साक्षात्कार बहुत महत्वपूर्ण है।

डॉ कलाम के अनुसार हमें अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्ति पर ज़ोर देना चाहिए। रचनात्मकता, साहस और धार्मिकता ज्ञान के तीन घटक हैं, जिससे विवेकशील नागरिकों की पहचान होती है। सकारात्मक सोच और ज्ञान का सही जगह प्रयोग आपको महान बनाता है। धार्मिकता आपको सही दिशा और गुणवान बनाने में मदद करती है। साहस आपको नई सोच को विकसित करने में मदद करता है। जिससे आप जीवन में सफलता के लिए कड़ी से कड़ी बाधाओं का सामना कर सकते हैं। वे कहते थे कि शिक्षकों को दूरदर्शी और उत्साहवर्धी होना चाहिए क्योंकि उनके ज़रिए ही एक सामान्य बच्चे का एक चरित्रवान बनाना संभव हो सकता है। शिक्षा बिना भेदभाव प्रदान की जानी चाहिए, ताकि सभी बच्चे अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को दिखाने में सक्षम हों। डॉ. कलाम ने हमेशा रचनात्मकता और नवीनता पर ज़ोर गया। उन्होंने भारत को एक विकसित देश बनाने का एक उद्देश्य बनाया था। उनका सपना था कि हमारा भारत फिर से एक विकसित अर्थव्यवस्था के साथ एक समृद्ध और शांतिपूर्ण समाज बने। यदि आप इस अभियान का हिस्सा बनना चाहते हैं, तो आपको समाज को बनाए रखने में और अपने व्यक्तिगत कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों को समय से पूरा करना होगा ।

भारत के लोकप्रिय ग्यारहवें राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को शिक्षक की भूमिका बेहद पसंद थी। उनकी पूरी ज़िंदगी शिक्षा को समर्पित रही। वैज्ञानिक कलाम साहित्य में रुचि रखते थे, कविताएं लिखते थे, वीणा बजाते थे और अध्यात्म से भी गहराई से जुड़े थे। कलाम ने अपने पिता से ईमानदारी व आत्मानुशासन की विरासत पाई थी और माता से ईश्वर-विश्वास तथा करुणा का उपहार लिया था। वे भारत को अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया का सिरमौर राष्ट्र बनना देखना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने अपने जीवन में अनेक उपलब्धियों को भारत के नाम भी किया। 27 जुलाई, 2015 को डॉ. कलाम जीवन की अंतिम सांसें लेने से ठीक पहले एक कार्यक्रम में विद्यार्थियों से बातें कर रहे थे, वे शायद इसी तरह संसार से विदा होना चाहते थे। उनका मानना था कि बच्चे ही देश का भविष्य हैं। किसी ने उनसे उनकी मनपसंद भूमिका के बारे में सवाल किया था तो उनका कहना था कि शिक्षक की भूमिका उन्हें बेहद पसंद आती है। वे 'रहने योग्य उपग्रह' विषय पर अपनी बात रखना चाहते थे कि क्रूर नियति ने उन्हें हमसे छीन ले लिया| कलाम हमेशा युवाओं से कहते थे कि अलग ढंग से सोचने का साहस करन ज़रूरी है। आविष्कार का साहस करो, अज्ञात पथ पर चलने का साहस करो, असंभव को खोजने का साहस करो और समस्याओं को जीतो और सफल बनो। ये वे महान गुण हैं, जिनकी दिशा में तुम अवश्य काम करो। उनके अनुसार जब हम बाधाओं का सामना करते हैं, तो हम पाते हैं कि हमारे भीतर साहस और लचीलापन मौजूद है, जिसकी हमें स्वयं जानकारी नहीं थी, और यह तभी सामने आता है जब हम असफल होते हैं। ज़रूरत हैं कि हम इन्हें तलाशें और जीवन में सफल बनें। अंत में उन्हें नमन करते हुए उनकी एक सीख,जो हमें सदैव उत्प्रेरित करती रहेगी-

“सपने सच हों, इसके लिए सपने देखना ज़रूरी है। सपने सिर्फ वे नहीं होते, जो आप सोते हुए देखते हैं, बल्कि सपने वे होते हैं, जो आपको सोने नहीं देते।“

 

 

मीता गुप्ता

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...