आइए, इस दिवाली
मन-मंदिर में दीप जलाएं
दीपावली सुख-समृद्धि के
आहवान का पर्व है। लक्ष्मी की पूजा की जाती है। कहते हैं दीपावली के दिन लक्ष्मी
साफ-सुथरे घरों में ही प्रवेश करती हैं गंदे घरों में नहीं। घर साफ-सुथरा और
स्वच्छ है, तो उसमें रहने वाले भी स्वस्थ और सकारात्मक
ऊर्जा से भरपूर होंगे। इसीलिए हम सब दीपावली आने से कुछ पहले ही घरों की गहन सफाई
में जुट जाते हैं, साल भर का जमा कूड़ा-करकट और रद्दी निकाल
कर कबाड़ी को बेच देते हैं और उनकी जगह नई उपयोगी चीज़ें लाते हैं…अपने घर को सजाते हैं, दीपों को रोशन कर अंधकार को ख़त्म करते हैं…कितना अच्छा लगता है न ये सब!
बचपन की दिवाली मन की
दिवाली होती थी। दीपावली आते ही मन में होने लगता था, कई सारी चीज़ों का उत्साह। नए कपड़े,
पटाखे, रंगोली का नया डिज़ाइन आदि कई चीज़ें
कौतूहल का विषय होती थीं और इन सबके बीच बनती थीं, मठरी,
कचौरी, नमकीन और मावे से भरी गुझिया और...और
चकरी, फुलझड़ी, अनार-से दैदीप्यमान
हमारे सपने। आज समय बदला है, जीवन बदला है और बदली है हमारी
दिवाली|
इन बदलावों के बीच एक अटल
सत्य नहीं बदला, कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह सबके
बीच रहता है, अतः समाज के प्रति उसके कुछ कर्तव्य भी होते
हैं। सबसे बड़ा कर्तव्य है एक-दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होना एवं यथाशक्ति
सहायता करना। मनोवैज्ञानिक मानते हैं खुशी का कोई निश्चित मापदंड नहीं होता। एक
मां बच्चे को स्नान कराने पर खुश होती है, छोटे बच्चे मिट्टी
के घर बनाकर, उन्हें ढहाकर और पानी में कागज की नाव चलाकर
खुश होते हैं। इसी तरह विद्यार्थी परीक्षा में अव्वल आने पर उत्साहित हो सकता है।
सड़क पर पड़े सिसकते व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाना या भूखे-प्यासे-बीमार की आहों को
कम करना, अन्याय और शोषण से प्रताड़ित की सहायता करना या
सर्दी से ठिठुरते व्यक्ति को कम्बल ओढ़ाना, किसी नेत्रहीन को
नेत्र ज्योति देने का सुख है या जीवन और मृत्यु से जूझ रहे व्यक्ति के लिए रक्तदान
करना-ये जीवन के वे सुख हैं, जो इंसान को भीतर तक खुशियों से
सराबोर कर देते हैं। इन सबको परोपकार कहकर विभूषित किया गया है।बड़े-बड़े संतों ने
इसकी अलग-अलग प्रकार से व्याख्या की है। तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में श्रीराम
के मुख से वर्णित परोपकार के महत्व का उल्लेख किया है-
परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
अर्थात् परोपकार के
समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के समान कोई अधर्म नहीं। संसार
में वे ही सुकृत मनुष्य हैं, जो दूसरों के हित के लिए
अपना सुख छोड़ देते हैं। हंसमुख, विनोदप्रिय, आत्मविश्वासी लोग प्रत्येक जगह अपना मार्ग बना ही लेते हैं। ईसा, मोहम्मद साहब, गुरु नानकदेव, बुद्ध,
कबीर, गांधी, सुभाषचंद्र
बोस, भगत सिंह, झांसी की रानी, गोस्वामी तुलसीदास और हज़ारों-हज़ार महापुरुषों ने हमें जीवन में खुश,
नेक एवं नीतिवान होने का संदेश दिया है। इनका समूचा जीवन मानवजाति
को बेहतर अवस्था में पहुंचाने की कोशिश में गुज़रा। इनमें से किसी की परिस्थितियां
अनुकूल नहीं थीं। हर किसी ने संघर्षा करके, जूझकर उन्हें
अपने अनुकूल बनाया और जन-जन में खुशियां बांटी। हमें बस इतनी शुद्ध बुद्धि तो
अवश्य ही रखनी होगी कि केवल अपने लिए न जीएं। कुछ दूसरों के हित के लिए भी कदम
उठाएं क्योंकि परोपकार से मिलने वाली प्रसन्नता तो एक चंदन है, जो दूसरे के माथे पर लगाइए,
तो आपकी अपनी अंगुलियां उससे महक उठेगी। सच में, मित्रों! परोपकार को अपने जीवन में स्थान दीजिए, मन-मंदिर
का दीप जल उठेगा।
असतो मा सद्गमय्।
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
मृत्योर्मा अमृतं गमय ॥
हमारे मन का प्रत्येक
कोना एक दीपक की राह तकता है, ऐसा दीपक, जिसमें मन के भीतरी कोनों को रोशन करने, प्रकाशित
करने की शक्ति हो, सामर्थ्य हो। कभी ऐसे प्रकाश का ख्याल
आया है आपको? दिल के वे तहखाने, जो
बरसों से भरे पड़े हैं, जहां कुछ कड़वी बातें, कुछ आहत लम्हें और कुछ चोटिल स्मृतियां रहती हैं। चलिए, कुछ साफ़-सफ़ाई करते हैं, कुछ से माफ़ी मांगते हैं, कुछ को माफ़ करते हैं। कब तक इस कचरे के बोझ को उठाए रखेंगे, कंधे थक नहीं गए आपके? अनेक धर्मग्रंथों में क्षमा
के महत्व को दर्शाया गया है। शास्त्रों में कहा गया है ‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’ अर्थात् क्षमा वीरों का आभूषण है। बाणभट्ट
के ‘हर्षचरितं’ में उल्लेख किया गया है ‘क्षमा हि मूलं
सर्वतपमास’ अर्थात् क्षमा सभी तपस्याओं का मूल है । महाभारत में कहा
गया है ‘क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण और समर्थ
मनुष्यों का आभूषण है’। महाभारत में यह भी कहा गया है कि ‘दुष्टों का बल हिंसा है, राजाओं का बल दंड है और गुणवानों का बल क्षमा
है’। क्षमा मांगने और क्षमा करने से वास्तव में
खुद का ही भला होता है। ऐसा करना सकारात्मक पहल होता है। क्षमा के भाव मनुष्य के
भीतर से अहंकार के भाव को नष्ट कर देता है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि हम अपने
मन के भीतर क्षमा का दीपक जलाकर जग को उजियारा दे सकते हैं।
रोशनी से किसे प्यार
नहीं होता। अंधेरे संसार में जब सूरज की एक किरण अपनी छटा बिखेरती है, तो दुनिया का कोना-कोना उमंग की चहचहाहट से झूमने लगता है। हम यदि एक
अंधेरे कमरे को भी देखें, तो एक छोटा-सा मिट्टी का दीपक भी
उस कमरे के हर कोने को रोशनी से भर देता है। यह उजियारा आखिरकार महत्वपूर्ण हो भी
क्यों न, इसी उजियारे से तो हम हर एक वस्तु को स्पष्ट रूप से
देख पाते हैं। हम यह समझ पाते हैं कि कैसे एक छोटा-सा दीपक समग्र विश्व में उजाला
करने के का साहस रखता है। हमारे मन में ऐसा ही एक दीपक जलता रहता है, जो पूरी दुनिया में ज्ञान की रोशनी बांट सकता है। ज्ञान का सत्य उसकी
व्यावहारिक उपयोगिता में निहित है। मानव जीवन की समस्त विकृतियाँ, अनुभव होने वाले सुख-दुःख, अशांति आदि सबका मूल कारण
अज्ञानता ही है। यह मनुष्य का परम शत्रु है। प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो के अनुसार, ‘अज्ञानी रहने से जन्म
न लेना ही अच्छा है क्योंकि अज्ञान ही समस्त विपत्तियों का मूल है।‘ इस तरह अज्ञान जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। यही जीवन की समस्त विकृतियों
और विसंगतियों का कारण है। समस्त विकृतियों, बुराइयों,
शारीरिक, मानसिक अस्वस्थता का कारण अज्ञान और
अविद्या ही है। ज्ञान आत्मा की अमरता का, परमात्मा की
न्यायशीलता का और मानव जीवन के कर्त्तव्यों का बोध कराता है। ज्ञान के द्वारा ही
सुविचारों का अनुसरण करने एवं सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होती है। तो
चलिए, मन-मंदिर का दीप जलाएं और किसी अनपढ़ को पढ़ना सिखाएं।
आपके घर में मदद करने वाले लोग होंगे, जैसे आपका माली, सफ़ाईकर्मी, बाई, गाड़ी साफ़
करने वाला....या कोई और... यदि वह पढ़ा-लिखा नहीं है, तो
कम-से-कम उसे अक्षर-ज्ञान कराने का संकल्प लें.....कम-से-कम ह्स्ताक्षर करना
सिखाएं...किसी गरीब बच्चे की फ़ीस देने का निश्चय करें... स्कूल जाने वाली किसी
लड़की के लिए यूनिफ़ॉर्म, साइकिल,
किताबें, स्टेशनरी....जो कुछ आप उपलब्ध करवा सकते हैं, ज़रूर करें। सच कहती हूं मित्रों! यह दीपक शाश्वत रहेगा और एक दीप से अनेक
दीप जल उठेंगे।
किसी के चेहरे पर छोटी
सी मुस्कान लाना, थोड़े समय के लिए किसी के मन को
उमंग से भर देना, बहुत सरल है, बस एक
छोटे-से प्रयास की ज़रूरत है। हम स्वयं की उलझनों में इतना उलझे रहते हैं कि हम अपने लिए ही उम्मीद का दिया नहीं जला पाते, तो भला दूसरों को क्या ही उजियारे देंगे। हम दूसरों को खुशियां तभी दे
सकते हैं, जब हम स्वयं प्रफुल्लित,
उत्साहित, तरंगित और सकारात्मक रहेंगे। और हां, यहां अपने अहंकार को गलाने का ज़िक्र भी ज़रूरी है। श्रीमद्भगवद्गीता के
सोलहवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते है, 'हे अर्जुन! अहंकार,
बल और कामना के अधीन होकर प्राणी परमात्मा से ही द्वेष करने लगता है
क्योंकि अहंकार उसे जीत लेता है। अहंकार हमारे विवेक को नष्ट कर देता है और हमारी
समस्त अच्छाइयों पर कुहासा-सा छा जाता है।
अहंकारवश हम वे सभी कार्य करने लगते हैं, जो अनैतिक
हैं। इसलिए मित्रों, क्यों न इस दिवाली मन-मंदिर के दीपक में
अपने अहं को स्वाहा कर दें, जिससे हमारे हृदय में बसी अच्छाई
की आभा हमें और हमारे आस-पास विद्यमान लोगों को प्रकाशित कर सके। दिवाली के अवसर पर किसी भी अच्छे काम की शुरुआत घर से ही होती है, इसलिए पहले अपने मन-मंदिर में उजियारा कीजिए, फिर
दूसरों की दुनिया को प्रकाशित कीजिए-
दिवाली, इस बार आओ, तो साथ लेते आना,
खुशियों की वो फुलझड़ी, जो साथ कर दी थी पिछली बार।
तुम आना ज़रूर, अपने सच्चे स्वरूप में,
जैसे पहले आते थे, बिना गिफ्ट रैप के,
सच्चे सीधे गले मिलने।
जैसे मिट्टी के दीयों में कपास से
बनाई बाती,
जैसे ईद पर बड़ी बी के हाथ से गुंथी
सेवई,
जैसे लंगर में बना कढ़ाह प्रसाद,
जैसे घर के बच्चों के अनगढ़ हाथों से
सजी रंगोली।
जैसे साल के दो जोड़ नए कपड़ों की चमक,
जैसे पूरे घर में पकवानों की गमक।
सच बताना, क्या तुम ये सब मिस नहीं करतीं?
करती हो? तो फिर वैसे ही आती क्यों नहीं?
तुम आती हो, तो खुशियां खिलखिलाती हैं,
उम्मीदों के दीये जलते हैं, मां मिठाई बनाती है।
तुम आओ तो सही, उसी पुराने रूप में,
हम भी फिर से पुराने बन जाएंगे।
शिकवे-शिकायतें सब दूर करके,ठहाकों से आसमान गुंजाएंगे।
क्योंकि तुम आती हो, तो दिलासा-सा लगता है।
क्योंकि तुम आती हो, तो कुहासा-सा छंटता है।।
मीता गुप्ता
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