10 अक्टूबर-विश्व मानसिक स्वास्थ्य
दिवस के अवसर पर विशेष
मन स्वस्थ, तभी शरीर स्वस्थ
आज देश
आज़ादी के 77 से अधिक साल पूरे कर चुका है। साल
1947 से अब तक देश ने अनेक क्षेत्रों में विजय-गाथा लिखी। दुनिया ने भारत की दृढ़
इच्छाशक्ति का लोहा माना। बात अगर स्वास्थ्य के क्षेत्र की उपलब्धियों की करें, तो आज़ादी
के बाद पोलियो जैसी गंभीर बीमारी को हमने मात दी, कोरोना महामारी के दौरान सबसे पहले वैक्सीन
तैयार कर देश के लोगों को गंभीर संक्रमण से न सिर्फ़ सुरक्षित किया, बल्कि विदेशों में भी वैक्सीन की सप्लाई की। हालांकि पिछले सात दशकों के सफ़र पर नजर डालें, तो पता चलता है कि मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अब
भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। 21वीं सदी में भी लोगों के भीतर मानसिक स्वास्थ्य
को लेकर स्टिग्मा का भाव देखने को मिल रहा है।
स्वास्थ्य
विशेषज्ञ कहते हैं कि किसी भी बीमारी को लेकर समाज में व्याप्त स्टिग्मा का एक
प्रमुख कारण लोगों में उस समस्या को लेकर जानकारियों का अभाव होना माना जाता है।
मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए अभी भी
बहुत प्रयास की आवश्यकता है। आज के दौर में आबादी का बड़ा हिस्सा किसी न किसी रूप
में मानसिक बीमारियों का शिकार होता जा रहा है। चिंता की बात ज्यादा इसलिए है कि
अब बच्चे भी मानसिक समस्याओं की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। कारण भले कुछ भी हों, लेकिन मानसिक समस्याओं और रोगों का तेजी से
बढ़ना समाज और सरकार के लिए गंभीर चिता का विषय तो है ही। अवसाद और खुदकुशी की
लगातार बढ़ती घटनाएं हालात की गंभीरता को बताने के लिए काफ़ी हैं। कहने को पिछले कुछ
समय में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी गहराते संकट को देखते हुए सरकारें जागी तो हैं, पर समस्या के दायरे को देखते हुए लगता है कि
लोगों को मानसिक समस्याओं से उबारने और स्वास्थ्य रखने के लिए अभी काफ़ी कुछ करने
की ज़रूरत है।
मानसिक
स्वास्थ्य के संकट से निपटने के लिए न केवल सरकारों को, बल्कि समाज को भी आगे आना होगा। इसे
गंभीरता से लेने की ज़रूरत इसलिए भी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) पहले
ही चेतावनी दे चुका है कि कुछ ही सालों में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारी-अवसाद
(डिप्रेशन) दुनिया की दूसरी बड़ी बीमारी बन जाएगी। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान
परिषद (आइसीएमआर) की दो साल पहले की एक रिपोर्ट बताती है कि हर सात में से एक
भारतीय किसी न किसी मानसिक विकार से पीड़ित है। कोविड-19 संक्रमण की दोनों लहरों की
भयावहता के बाद ये आंकड़े और भी ज्यादा चौंकाने वाले हो सकते हैं। तनाव होना और
गुस्सा आना एक सहज मानवीय स्वभाव है। लेकिन इन पर ध्यान नहीं दिया जाए, तो मुश्किलें बढ़ती जाती हैं। आज भारत
में अवसाद के मामले जिस तेज़ी से बढ़ रहे हैं, खासतौर
से बच्चों और नौजवानों में, वे इसी का नतीजा है कि हम समय रहते
मानसिक व्याधियों को जान नहीं पाते। तनाव के दौरान विभिन्न प्रतिक्रियाओं के बारे
में तमाम तरह के अनुभव देखने को मिलते हैं, जैसे
कुछ लोग चीज़ें तोड़ देते हैं, तो
कुछ गाली बकने लगते हैं, दरवाज़ा बंद करके रोते हैं, बोलना बंद कर देते हैं, आदि-आदि। दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं, जो तनाव की स्थिति में संगीत सुनते
हैं, बाहर घूमने निकल जाते हैं, गुनगुनाते हैं।
मानसिक
स्वास्थ्य को लेकर लोगों को जागरूक करने के लिए कुछ प्रयास किए जा सकते हैं।स्वास्थ्य
विशेषज्ञ कहते हैं, जब भी बात संपूर्ण स्वास्थ्य की होती है, तो इसे अक्सर शरीर की तमाम बीमारियों तक ही
सीमित करके देखा जाता है,
पर स्वस्थ मन के बिना स्वस्थ शरीर की
कल्पना ही नहीं की जा सकती है। मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कोरोना महामारी के बाद से
लोगों में जिज्ञासा ज़रूर बढ़ी है, हालांकि
अब भी ग्रामीण क्षेत्रों में मानसिक समस्याओं को लेकर लोग भ्रमित रहते हैं।
चिंता-तनाव जैसी समस्याओं से शुरू होकर यह अवसाद जैसी गंभीर स्थितियों का रूप ले
सकता है, इस बारे में लोगों को सजग और जागरूक
करने की आवश्यकता है।
मनोरोग विशेषज्ञ
कहते हैं, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े सामाजिक
स्टिग्मा या इसे कलंक मानने के कारण लंबे समय से इस समस्या को अनदेखा किया गया है।
लोग मानसिक स्वास्थ्य की बात ही नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा करने
से लोगों का उनके प्रति नज़रिया बदल जाएगा। इससे मानसिक स्वास्थ्य और बीमारियां उस
व्यक्ति को खतरनाक या अलग बना देती हैं और उनमें कई अन्य नकारात्मक गुण आ जाते
हैं। इस
तरह की सोच साफ दर्शाती है कि ज़मीनी स्तर पर अब तक लोगों को हम इस गंभीर और तेज़ी
से बढ़ती दिक्कत के बारे में समझा ही नहीं पाए हैं। यही कारण है कि ज़्यादातर लोगों
में अवसाद जैसे गंभीर मामलों को अनदेखा कर वैकल्पिक विधियों से इसे ठीक करने का
प्रयास किया जाता रहा है।
स्वास्थ्य
विशेषज्ञ कहते हैं सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में ध्यान दिया है, पर शुरुआत हमें अपने व्यवहार में परिवर्तन लाने
के साथ करनी होगी। मानसिक स्वास्थ्य को अपनी बातचीत का हिस्सा बनाएं। लोगों से
पूछें कि वे कैसा महसूस कर रहे हैं? दोस्तों, परिवार के साथ इस पर बात की जाए, अगर किसी को समस्या है, तो उसे संबंधित मनोचिकित्सक तक ले
जाने में बिल्कुल संकोच न करें।
मानसिक
स्वास्थ्य समस्याओं के शिकार लोगों को आपके साथ की ज़रूरत होती है, उनसे अच्छा व्यवहार करें, यह बीमारी को ठीक करने में विशेष मददगार हो
सकता है। उन्हें यह महसूस न कराएं कि किसी भी रूप में वे अलग हैं या उनके साथ अलग
व्यवहार किया जाना चाहिए। उनके प्रति असभ्य न हों। लोगों को मानसिक स्वास्थ्य के
प्रति जागरूक करना बहुत आवश्यक है।
इन समस्याओं को
ध्यान में रखते हुए सरकारी स्तर से लेकर तमाम संस्थाएं बच्चों, शिक्षकों, शैक्षिक
कार्यकर्ताओं और आमजन के मानसिक स्वास्थ्य की उलझनों को दूर करने की दिशा में
अग्रसर हो रही हैं। पिछले कुछ महीनों में विभिन्न मनोचिकित्सक, शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता भी इस
निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज के विभिन्न तबकों से
बातचीत करना और उन्हें जागरूक बनाना ज़रूरी है। जब तक लोगों को मानसिक बीमारियों के
बारे में बताया नहीं जाएगा,
तब तक वे इससे अनजान ही रहेंगे और
दिनों-दिन मर्ज़ बढ़ता चला जाएगा। मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से निपटने में
एक बड़ी बाधा तो यही है कि लोगों को पता ही नहीं चल पाता कि वे किसी मानसिक व्याधि
से घिरते जा रहे हैं। जब समस्या बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, तब वे किसी मनोचिकित्सक के पास
पहुंचते हैं। इसलिए आज सबसे पहली ज़रूरत मानसिक स्वास्थ्य के बारे में लोगों को
जागरूक बनाने की है। साथ ही इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि इन मुश्किल हालात
में उत्साह और सकारात्मकता बनाए रखने के लिए एक दूसरे को कैसे सहयोग किया जा सकता
है, स्वयं की देखभाल कैसे की जा सकती है और
मानसिक तनाव से कैसे मुक्ति पाई जा सकती है।
कई अध्ययनों में
सामने आया है कि महामारी के दौरान चिड़चिड़ाहट बढ़ जाती है, घबराहट ज़्यादा होती है और कुछ नहीं कर पा सकने
की स्थिति में अपराध बोध पैदा होने लगता है। यह सब महामारी के दौरान देखा भी गया।
कोरोना महामारी को लेकर लंबे समय से जिस तरह की खबरें, सूचनाएं देखने और पढ़ने को मिलती रहीं, उससे भी एक डरावना वातावरण बन गया था। शिक्षकों
में भी बच्चों में आए शैक्षिक पिछड़ेपन का सामना करने और विशेष आवश्यकता वाले
बच्चों की सहायता न कर पाने को लेकर चिंता देखने को मिली। इसलिए महामारी ने सभी को
पहला सबक यही सिखाया है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में अपनी मानसिक सेहत को मज़बूत
बनाए रखना कितना ज़रूरी है।
राष्ट्रीय
शिक्षा नीति 2020 में भी यह कहा गया है कि जब बच्चे कुपोषित या अस्वस्थ होते हैं, तो वे बेहतर रूप से सीखने में असमर्थ
हो जाते हैं। इसलिए बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य (मानसिक स्वास्थ्य सहित) पर ध्यान
दिया जाए। इसमें पौष्टिक भोजन, अच्छी
तरह से प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ताओं और स्कूली शिक्षा प्रणाली में समुदाय की
भागीदारी की बात भी कही गई है। सभी स्कूली बच्चों की स्वास्थ्य जांच होगी और उनके
स्वास्थ्य कार्ड जारी किए जाएंगे। स्वास्थ्य में बुनियादी प्रशिक्षण जिसमें निवारक
स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, अच्छा पोषण, व्यक्तिगत
और सार्वजनिक स्वच्छता, आपदा प्रतिक्रिया और प्राथमिक चिकित्सा
को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।
विभिन्न राज्यों
के शिक्षा विभाग नई शिक्षा नीति लागू करते समय मानसिक स्वास्थ्य के मसले पर भी
सार्थक और व्यावहारिक योजना बना रहे हैं। अब बस उन्हें समुचित ढंग से लागू करने की देर है। कहा जा रहा है कि द्वितीय
विश्व युद्ध के बाद जीवन प्रत्याशा में कमी सबसे ज्यादा कोरोना महामारी के दौर में
आई है। ज़ाहिर है, मौजूदा संकट से निकलने में अभी लंबा
वक्त लगेगा। ऐसे में सरकारों, सामाजिक संगठनों, समाज और घर-परिवार सबकी महती भूमिका होगी।
मीता
गुप्ता
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