जीवन:एक उत्सव
जीवन
क्या है, क्या नहीं है, यह तय करना सरल भी है, और चुनौतीपूर्ण भी| हम में से
अधिकतर लोग जीवन के हर प्रसंग का उत्सव मनाना चाहते हैं| प्रतिदिन
सोना-जागना-उठना-घूमना-खाना-पीना-कमाना आदि-आदि..शायद रोज़मर्रा की एकरसता को बदलने
के लिए हम सब जीवन के हर प्रसंग में सदैव कुछ न कुछ उत्सव करने की सहज चाहना रखते
हैं| कई लोगों को यह लगता है कि मनुष्य द्वारा सृजित उत्सव परंपरा पर मनुष्यों का ही
एकाधिकार है, पर वास्तविकता में ऐसा नहीं है| मनुष्य की उत्सव परंपरा के समान एक
निश्चित प्राकृतिक उत्सव क्रम भी है, जैसे वसंत ऋतु में आम पर बौर आना आम के उत्सव
का प्रारंभ है, आम पर फल लगने की शुरुआत छोटी-छोटी कैरियों से लेकर आम के पेड़ का
आम से लद जाना, आम की उद्यमिता का चरम है| ऐसे ही हरसिंगार के पेड़ पर जो फूलों की
बहार आती है, वो हर सुबह अपनी आधार भूमि को अपनी खुशबू की चादर ओढ़ाकर जीवन-यात्रा
का अभिनंदन करती है| हरीतिमा से सराबोर गेहूं और धान के खेतों में उत्सव की शुरुआत
बालियों की बारात निकलने से होती है, तो मक्का, ज्वार व बाजरा में दाने पड़ने से
अनाज-उत्सव की शुरुआत होती है,जो छोटी-बड़ी चिड़ियों को भोजन-उत्सव का खुला मौन
निमंत्रण देता है| ठंड की शुरुआत होते ही न जाने कितने रंग-बिरंगे फूलों के खिलने
पर रंग-बिरंगी तितलियां निरंतर अठखेलियां कर अपनी उड़ान का उत्सव मनाकर समूची अवनि
और अंबर को रंगीन बना देती हैं| बरखा की बूंदें जीवन-उत्सव ही है, धरती के हर कण-कण में बदलाव का नया दौर ,जीवन के नए-नए
अंकुरों का उदय कर जीवन-उत्सव में भागीदार बनने का अवसर देती हैं।
हम सब
जो जीवन के किसी न किसी रुप में इस धरती पर जीव के रुप में व्यक्त हुए हैं, हम सब चाहें न चाहें, मानें न मानें, हम सबका जीवन ही उत्सव है। तभी तो जीव मात्र की उत्सवधर्मिता जीवन भर
गतिशील रहकर इस धरती में जीवन को सतत प्रवाहमय बनाए हुए है। इसी से हर समय सहज
प्राकृत स्वरूप में उत्सव, हमें और हमारी धरती के सभी जीवों
के जीवन के सनातन क्रम को हर क्षण नए जीवन-चक्र में आगे बढ़ाते हैं और जीवन के
उत्सव-प्रसंगों से जीवन का क्रम तथा अर्थ समझाते रहते हैं। इसी से जीवन और उत्सव
हमारे जीवन में सनातन रूप से रचे-बसे हैं। तभी तो हमारी धरती पर सारे जीवों का
जीवन ही उत्सव है। जीवन को उत्सव कहना तो सरल है, पर जीवन-भर
मनुष्यों का मन आशा-निराशा,राग-द्वेष,लोभ-लालच
और सत्य-असत्य के आसपास ही घूमता रहता है। मनुष्येतर जीवन में यह सब मौजूद नहीं
हैं। जीवन अपने प्राकृत स्वरूप में ऊर्जा की जैविक अभिव्यक्ति है।जिसमें मूलत:
जीवन की जीवंत हलचले ही होती है। जीवन की जीवंत हलचलें ही उत्सवों का सृजनात्मक
स्वरूप हैं, जो सारे जीवों में भिन्न भिन्न रूपों में निरंतर
अभिव्यक्त होता रहता है।
हम
संसार में एक प्रकार की यांत्रिकता से जीते हैं, हम
आदतों से बंधकर जीते हैं। निश्चित ही जीवन के ये बंधन आनंदमय नहीं हो सकते हैं,
देर-अबेर हम इनसे ऊब ही जाएंगे। जो व्यक्ति जितना अधिक संवेदनशील
होगा, उतना ही जल्दी वह ऊबेगा। जीवन सदा अपने क्रम से चलता है, अपनी गति से चलता है और जीवन सदा नया है। जो नया नहीं है, वह हमारी
भावदशाएं, हमारे चित्त की अवस्थाएं हैं। हमारा चित्त अतीत से
बंधा रहता है, ऐसे ही जैसे भैंस खाए हुए चारे की लगातार
जुगाली करती रहती है। भैंस के पास कोई व्यवस्था नहीं है कि वह कहीं से नए को खोज
ले, वह बंधी है और खड़ी-खड़ी जुगाली ही करेगी। लेकिन आदमी की
चेतना पशुओं से कहीं अधिक विकसित है। उसकी चेतना मुक्त गगन में अपने पंख खोलकर उड़ने
में समर्थ है। कभी-कभी ऐसा होता भी है कि कोई बुद्ध, कोई
महावीर, कोई नानक, कोई कबीर, कोई मीरा इतनी ऊंची उड़ान भरते हैं कि 'अहं ब्रह्मास्मि’ की घोषणा करते हैं। ये
वे हैं, जो भगवत्ता की ऊंचाई छू लेते हैं। ऐसे रहस्यदर्शियों
को हम महाचेता कहते हैं। जैसा विज्ञान के जगत में अणु का विस्फोट होता है, ऐसे ही उनमें चैतन्य का विस्फोट होता है और वे चेतना के गौरीशंकर बन जाते
हैं और सारे बंधनों से पूर्णत: मुक्त हो जाते हैं।
क्या
ऐसा संभव है? निश्चित ही संभव है? ये सभी इस अवस्था के पहले साधारण
व्यक्ति ही थे। उन्होंने ध्यान किया, साधना की। वे जीवन को
पल-पल जीने लगे, उन्होंने यांत्रिकता तोड़ दी, उससे मुक्ति के लिए संघर्ष किया, तपश्चर्या की,
उनकी मूर्च्छा टूटी, वे सजग हुए और ऐसी परम
उपलब्धि की, जिससे उनके लिए जीवन प्रतिपल नया और आनंदमय हो
गया। तब उन्हें आनंद मनाने के लिए नए वर्ष के पहले दिवस का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं रही। उनके लिए तो हर पल नया हो गया। जैसा
कि हरिवंश राय बच्चन 'मधुशाला’ में कहते हैं- ‘दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला!’ इसलिए भविष्य के किसी उत्सव का इंतज़ार नहीं करना चाहिए, हर क्षण उत्सवमय ढंग से जीना चाहिए। आप जो भी कार्य करते हैं, उसे बोधपूर्वक करें, तो उसमें आनंद होगा, तब कर्म ही
पूजा, प्रार्थना और आनंद हो जाएगा और हर क्षण उत्सव|
मशीन
में दो यंत्र होते हैं, दिशा दिखाने वाला और गति बढ़ाने
वाला। दोनों की आवश्यकता होती है। वैसे ही मनुष्य के चित्त में एक 'बुद्धि’ है और
दूसरी 'धृति’, धारणा-शक्ति, अपने को रोकने की शक्ति। मराठी में
कहावत है: कलते पण वलत नाहीं। गुजराती में
कहा : भण्या पण गुण्यां नथी। हिंदी में कहा
जा सकता है कि पढ़े, पर गुने नहीं।
समझने के बाद समझे हुए विचार को इंद्रियों का विषय बनाने के लिए थोड़ा नियंत्रण
करना पड़ता है। वह माता-पिता का, गुरु का हो सकता है। अपना खुद
का नियंत्रण हो, तो बहुत अच्छा होगा। जिसकी बुद्धि को एक
विचार जंच गया, तो इसके आगे उस पर अमल करने के लिए कुछ करना
ही नहीं है। अमल हो ही जाता है।
हम
प्रतिपल नया जीवन जीने की कला सीखें,
देना....देना....और देना सीखें। नया जीवन यानी नए उत्साह, नई
उमंग, नई प्रेरणा, नई लय, नई ताल,नया सुर आदि से परिपूर्ण जीवन…..तभी हमारा जीवन नया होगा, और हम एक नए मनुष्य होंगे, अद्यतन होंगे....जैसा कंप्यूटर की भाषा में कहा जाता है, अप्डेटेड रहेंगे। ऐसा नया मनुष्य जीवन की प्रत्येक भावभंगिमा का भरपूर
आनंद ले सकेगा और जीवन को सच्चे अर्थों में भोग सकेगा, मुक्त
हो सकेगा……तब उसके रोदन में भी रागोत्सव होगा और वह
जीवन-उत्सव का भरपूर आनंद ले सकेगा और आनंद दे सकेगा........
जीवन
एक उत्सव है-
उमंग भरे पलों का
आनंद का, उत्साह का
सुख-दुःख के मिलन का।
जीवन एक उत्सव है-
ग़म भुला कर खुश रहने का,
गलतियां माफ़ कर दिल से अपनाने का,
मिल-जुल कर साथ बढ़ने का।
जीवन एक उत्सव है-
विकारों को त्याग करने का,
नकारात्मकता के विनाश का,
अंधकार के समापन का।
जीवन एक उत्सव है-
सकारत्मक ऊर्जा के जागरण का,
खुद को संतुलित करने का,
हर परिस्थिति में अविचलित रहने का।
जीवन एक उत्सव है-
अंतरात्मा को जानने का,
आत्ममंथन करने का,
परमात्मा से आत्मा के पुनर्मिलन का।
जीवन एक उत्सव है-
दिव्य तरंगों के संचरण का,
परमज्ञान की प्राप्ति का,
अपनी दिव्य स्थिति में आने का।
हां, जीवन एक उत्सव है!!
मीता
गुप्ता
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