खंड-खंड में बंटना प्रवृत्ति
नहीं है हमारी
कुछ तो बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़हां हमारा।।
सारे जहाँ से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा ।
हम बुलबुलें हैं इसकी,ये गुलिस्तां हमारा ॥
इतिहास गवाह है
कि सैकड़ों वर्षों तक किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने भारतीय जनसमूह की भावनाओं
को किस प्रकार रौंदा है। जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक” डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के
अनुसार जब फ़तेह हासिल करने वालों का यह कायदा था कि हारे हुए लोगों को या तो गुलाम
बना लेते थे या उन्हें बिल्कुल मिटा देते थे, तब वर्ण-व्यवस्था ने एक शांतिवाला हल पेश किया और बढ़ते हुए धंधे के
बंटवारे की ज़रूरत ने इसमें मदद पहुंचाई। समाज में दर्ज़े कायम हुए। किसान जनता में
से वैश्य बने, जिनमें किसान, कारीगर और व्यापारी लोग शामिल थे। क्षत्रिय हुए, जो हुकूमत करते थे या युद्ध करते थे। ब्राह्मण
बने, जो पुरोहिती करते थे, विचारक थे, जिनके
हाथ में नीति की बागडोर थी और जिनसे यह उम्मीद की जाती थी कि वे जाति के आदर्शों
की रक्षा करेंगे। इन तीनों वर्णों के नीचे शूद्र थे, जो मज़दूरी या फिर ऐसे धंधे करते थे, जिनमें खास कौशल की जरूरत नहीं होती थी और जो किसानों से अलग थे ।
इतिहासकार राम
कृष्ण शर्मा के अनुसार, वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई
वजूद नहीं था। वैदिक काल में सामाजिक बंटवारा धन आधारित न होकर जनजाति एवं कर्म
आधारित था। वैदिक काल के बाद धर्मशास्त्रों में वर्ण-व्यवस्था का विस्तार से वर्णन
किया गया है। उत्तर वैदिक काल के बाद वर्ण-व्यवस्था कर्म आधारित न होकर जन्म
आधारित हो गया।
फिर मुगल
साम्राज्य शुरू हुआ। अधिकतर मुगल शासक तुर्क और सुन्नी मुसलमान थे। मुगलों का शासन
19वीं शताब्दी के मध्य में समाप्त हुआ। मुग़ल
सम्राट तुर्क-मंगोल पीढ़ी के तैमूरवंशी थे और इन्होंने अति परिष्कृत मिश्रित हिंद-फ़ारसी
संस्कृति को विकसित किया। सन् 1700 के
आसपास, अपनी शक्ति की ऊंचाई पर, भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश भाग को नियंत्रित
किया। इसका विस्तार पूर्व में वर्तमान बांग्लादेश से पश्चिम में बलूचिस्तान तक और
उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कावेरी घाटी तक था। सन् 1725 के बाद इनकी शक्ति में तेज़ी से गिरावट आई।
उत्तराधिकार के कलह, कृषि संकट की वजह से स्थानीय विद्रोह, धार्मिक असहिष्णुता का उत्कर्ष और ब्रिटिश
उपनिवेशवाद से कमज़ोर हुए साम्राज्य का अंतिम सम्राट बहादुर ज़फ़र शाह था, जिसका शासन दिल्ली शहर तक सीमित रह गया था, को अंग्रेज़ों ने कैद में रखा । सन् 1556 में, जलालुद्दीन
मोहम्मद अकबर, जो महान अकबर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, के पदग्रहण के साथ इस साम्राज्य का उत्कृष्ट
काल शुरू हुआ और औरंगज़ेब के निधन के साथ समाप्त। हालांकि, यह साम्राज्य और 150 साल तक चला। इस दौरान, विभिन्न क्षेत्रों को जोड़ने में एक उच्च
केंद्रीकृत प्रशासन निर्मित किया गया था। मुग़लों के सभी महत्वपूर्ण स्मारक इसी अवधि के हैं।
उसके बाद 24 अगस्त, 1608 को व्यापार के उद्देश्य से भारत के सूरत बंदरगाह पर अंग्रेज़ों का
आगमन हुआ था, लेकिन सात वर्षों के बाद सर थॉमस रो
(जेम्स प्रथम के राजदूत) की अगुआई में अंग्रेज़ों को सूरत में कारखाना स्थापित करने
के लिए शाही फरमान प्राप्त हुआ। धीरे-धीरे अंग्रेज़ों ने अपनी कूटनीति के माध्यम से
अन्य यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को भारत से बाहर खदेड़ कर अपने व्यापारिक
संस्थाओं का विस्तार किया। दुनिया के कुल उत्पादन का एक चौथाई माल भारत में तैयार
होता था। इसी वजह से इस मुल्क को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। तब दिल्ली के तख़्त पर मुग़ल
बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर की हुकूमत थी। दूसरी तरफ़ उसी दौर में ब्रिटेन
गृहयुद्ध से उबर रहा था। उसकी अर्थव्यवस्था खेती-बाड़ी पर निर्भर थी और दुनिया के
कुल उत्पादन का महज तीन फ़ीसद माल वहां तैयार होता था। ब्रिटेन में उस वक़्त
महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम की हुकूमत थी। यूरोप की प्रमुख शक्तियां पुर्तगाल और
स्पेन, व्यापार में ब्रिटेन को पीछे छोड़ चुकी
थीं। उसी दौरान घुमंतू ब्रिटिश व्यापारी राल्फ़ फ़िच को हिंद महासागर, मेसोपोटामिया, फ़ारस की खाड़ी और दक्षिण पूर्व एशिया की व्यापारिक यात्राएं करते
हुए भारत की समृद्धि के बारे में पता चला।
इतने सारे
झंझावातों, सैकड़ों वर्षों की गुलामी, विभिन्न संस्कृतियों के बीच से उभरकर भारत 15 अगस्त 1947 को
अपनी संस्कृति का निर्माण करने अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हुआ।
विश्व का शायद
ही कोई देश ऐसा रहा होगा, जो इतने वर्षों की गुलामी से आज़ाद होकर अपनी संस्कृति का निर्माण
किया हो। बिंस्टन चर्चिल यही तो कहा करता था कि भारतीय नेतागण उस योग्य नहीं हैं, जो देश चला सकें। चूंकि वे अयोग्य हैं, इसलिए कुछ ही वर्षों में हिंदुस्तान के सैकड़ों
टुकड़े हो जाएंगे और खंड—खंड में विभाजित हो कर स्वत: नष्ट हो जाएगा, इसलिए हिंदुस्तान को आज़ाद नहीं करना चाहिए। आज
चर्चिल जीवित होता, तो संभवत: भारत के विकास और उसकी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक
एवं सामरिक शक्ति को देखकर अपना मानसिक संतुलन खो देता।
देश तो अंत में अंग्रेज़ों
से आज़ाद हो गया, लेकिन उनके द्वारा फैलाई गई द्वेष-भावना
अब तक हम भारतीय झेल रहे हैं। आज सूचना के किसी मध्यम पर जाएं, चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक या
डिजिटल… सुबह—सुबह कुछ भी देखेंगे—सुनेंगे-पढ़ेंगे तो विचलित हो जाएंगे, क्योंकि समाज को खंड-खंड करने की कोशिश करने
वाली खबरों के अतिरिक्त आप यहां ज्ञानवर्धक कोई जानकारी नहीं पाएंगे। हां, यह सच है कि इस प्रकार मन को विकृत करने की
प्रवृति आज की देन नहीं है, परंतु आज़ादी के पिचहत्तरवें वर्ष में भी हम यह नहीं समझंगे, तो कब समझेंगे ? आज समय आ गया है कि हम अपनी
जाति-संप्रदाय-वर्ण-धर्म आदि की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठ कर अपने देश से प्रेम
करें। हमारे पूर्वजों ने वर्षों की तपस्या के बाद हमें यह सुंदर तपोभूमि
उपहार-स्वरूप प्रदान की है, यह हमारी धरोहर है, हमारी आन-बान-शान है। यहां यह प्रश्न भी विचारणीय है कि यदि देश ही
नहीं रहेगा, तो
क्या हम रहेंगे ? नहीं,कदापि नहीं..... देश से ही हमारा अस्तित्व है......देश है,तो हम हैं……भारत है, तभी हमारी पहचान एक भारतीय के रूप में
है.....और हमारी यही पहचान हमें विश्व-पटल पर सम्मान दिलाती है । कविवर जयशंकर
प्रसाद जी के शब्दों में..
वही
है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही
है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान
जियें
तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष
निछावर
कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष
जय हिंद! जय भारत!
मीता गुप्ता
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