Sunday, 19 December 2021

पुस्तक समीक्षा:तोत्तो-चान: द लिटिल गर्ल एट द विंडो

पुस्तक समीक्षा:तोत्तो-चान: द लिटिल गर्ल एट द विंडो


 

 येषां न विद्या, न तपो, न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।

 ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।

अर्थात जो विद्या के लिए प्रयत्न नहीं करते, न तप करते हैं, न दान देते हैं, न ज्ञान के लिए यत्न करते हैं, न शील है और न ही जिनमें और कोई गुण हैं, न धर्म है (सही आचरण है), ऐसे लोग मृत्युलोक में इस धरती पर बोझ ही हैं, मनुष्य रुप में वे वास्तव में जानवर ही हैं।

कोविड 19 के इन दुर्दिनों में मैंने अपनी सकारत्मकता बनाए रखने के लिए अच्छी पुस्तकें पढ़ने का निर्णय लिया । मुझे ‘तोत्तो-चान: द लिटिल गर्ल एट द विंडो’ पुस्तक अपनी हिंदी शिक्षिका श्रीमती मीता गुप्ता के माध्यम से प्राप्त हुई । पहली नज़र में ऐसा लगा कि मैं बाल-साहित्य पढ़ने जा रही हूँ,पर मैं जैसे-जैसे 1981 में प्रकाशित हुई इस पुस्तक को पढ़ती गई , वैसे-वैसे मुझे यह समझ आ गया कि अपने पहले वर्ष में इस पुस्तक की 4.5 मिलियन प्रतियां क्यों बिकी होंगी ?

यह संभवत: पहली बार हुआ कि जब किसी पुस्तक ने मुझे एक ही समय में मुस्कराने, हंसने, रोने और भावुक होने के लिए प्रेरित किया होगा । सरल प्रसंगों और उदाहरणों के माध्यम से हम तोत्तो चान की आँखों से दया, ईमानदारी, दोस्ती और सम्मान का मूल्य सीखते हैं। 

यह पुस्तक जापानी टेलीविज़न हस्ती और यूनिसेफ सद्भावना राजदूत टेत्सुको कुरोयानागी द्वारा लिखित है ।यह मूल रूप से 1981 में ‘मदोगिवा नो तोत्तो-चान’ के रूप में प्रकाशित हुई ,जो कालांतर में जापान की बेस्टसेलर पुस्तक बन गई। लेखक के बचपन का संस्मरण मानी जाने वाली यह पुस्तक, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान शिक्षक सोसाकु कोबायाशी द्वारा स्थापित टोक्यो प्राथमिक विद्यालय, टोमो गाकुएन में दी जाने वाली अपरंपरागत शिक्षा का वर्णन करती है।

यह एक आकर्षक, अद्भुत, सुंदर और समझदार कहानी है,जो एक छोटी लड़की तोत्तो-चान के बचपन की यादों और रोमांच को चित्रित करती है। उसके स्कूल की शिक्षा प्रणाली और विद्यार्थियों ने अपने विषयों को अलग तरीके से पढ़ने का आनंद कैसे लिया, को अच्छी तरह से चित्रित करती है।

कहानी टेटसुको कुरोयानागी की वास्तविक जीवन की घटनाओं पर आधारित है, जो इस पुस्तक के लेखक हैं और शरारती छोटी लड़की तोत्तो-चान, जिसे अपनी पहली कक्षा में एक स्कूल से निकाल दिया गया और प्रधानाध्यापक द्वारा इसी स्कूल में भर्ती कराया गया। सोसाकु कोबायाशी इस स्कूल के संस्थापक हैं। यह स्कूल किसी आम स्कूल की तरह नहीं है, यहाँ तक कि क्लासरूम भी बहुत अलग हैं और रेलरोड कारों से बने हैं। स्कूल के पाठ्यक्रम में अंतिम संस्कार में शामिल होना, अस्पताल में सैनिकों से मिलना आदि भावुक कर देने वाला है ।

इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली का मकसद न केवल जीवन में सफलता प्राप्त करना है, बल्कि बच्चों को एक अच्छा इंसान बनना भी है, जो दूसरे जीवों से प्यार करे, उनकी परवाह करे, निर्बलों और असमर्थों का सम्मान करे और दूसरों के प्रति संवेदना रखे । 

उपसंहार से पता चलता है कि उस स्कूल के विद्यार्थियों ने अपने रुचि के क्षेत्रों में कैसे उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। प्रत्येक अध्याय को समझदारी से लिखा गया था और अच्छी तरह से अनूदित किया गया था। यदि मैं पुस्तक के अंशों और टिप्पणियों को उद्धृत करना शुरू कर दूं, तो मैं पूरी पुस्तक को लिप्यंतरित कर सकती हूं, परंतु यह एक संभावित पाठक की जिज्ञासा को नष्ट कर देगा ।

यह एक ऐसी पुस्तक है, जिसे हर माता-पिता और शिक्षक को पढ़ना चाहिए।यह बच्चों के बारे में लिखी एक पुस्तक है परंतु इसे वयस्कों को भी पढ़ना चाहिए, यदि वे अपने हृदय में छुपे बच्चे को ज़िंदा रखना चाहते हैं ।

पुस्तक सादगी से परिपूर्ण है, जापानियों की तरह। इसमें कोई 'होग्वर्टिश' जादू का स्कूल नहीं है, जीवन और सीखने के बारे में कोई दार्शनिक-रूपक नहीं है, कोई राक्षस नहीं, कोई परी नहीं। लेकिन हर पंक्ति दिल को छू जाती है। हर शब्द बचपन की याद दिलाता है। अपने बचपन को याद करने के लिए पुस्तक पढ़ें। अच्छे लेखन की तीक्ष्णता का स्वाद लेने के लिए पुस्तक पढ़ें। अपने बच्चों और खुद को सिखाने के लिए पुस्तक पढ़ें कि मोबाइल से पहले भी जीवन था और यह बात 'एलेक्सा' और 'नेटफ्लिक्स'  के सामने भी उजागर हो। यह याद रखने के लिए पुस्तक पढ़ें कि एक बच्चे को बच्चा होने के लिए समय और स्थान की आवश्यकता होती है; और यह कि उसे एक ट्यूशन एक कक्षा से दूसरी कक्षा में ले जाने से उसका बचपन नष्ट होता है।

धन्यवाद,इस पुस्तक का, जिसने मेरे दृष्टिकोण को एक नई दिशा दी ।

 

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