Thursday, 23 December 2021

भारत में स्त्री विमर्श और स्त्री संघर्ष: इतिहास के झरोखे से

 

भारत में स्त्री विमर्श और स्त्री संघर्ष: इतिहास के झरोखे से



 

मैंने उसको

 

जब-जब देखा,

लोहा देखा,

लोहे जैसा--

तपते देखा,

गलते देखा,

ढलते देखा,

मैंने उसको

 

गोली जैसा

चलते देखा!

 

स्त्री विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है । हर देश का अपना अलग-अलग बुनियादी सामाजिक ढांचा है। ऐसे आंदोलन वैश्विक विचारधारा के विकास में सहायक हो सकते हैं, लेकिन यह ज़रुरी नहीं है कि हर आंदोलन किसी वैश्विक विचारधारा की सैद्धांतिकी को आधार बना कर चले। किसी एक मुद्दे को लेकर शुरू हुआ आंदोलन अपनी चेतना में कई स्तरों पर न्याय की लड़ाई को समेटे रहता है। भारत में स्त्री संघर्ष और स्त्री अधिकार के आंदोलन को इसी रूप में स्वतंत्रता आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।

राष्ट्रवादी आंदोलन वाला स्त्री आंदोलन: बन गई स्त्री की राष्ट्रमाता छवि

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का मूल ढांचा पितृसत्तात्मक राष्ट्रवाद का है, लेकिन भारत में स्त्री आंदोलन भी इसी ढांचे के साथ विकसित होता हुआ दिखाई देता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के दौरान विकसित होते हुए स्त्री आंदोलन को भारत के तत्कालीन राष्ट्रवादी आंदोलन से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। इस संघर्ष की शुरुआत वहीं से स्पष्ट होने लगती है, जब राष्ट्रवादी आंदोलन के अगुआ स्त्री की तत्कालीन दशा में सुधार तो लाना चाहते हैं, लेकिन उसे परंपरागत परिवार के दायरे में सीमित रखकर और सामाजिक स्तर पर स्त्री की राष्ट्रमाता की छवि निर्मित करके। जहां न तो स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व है, और न ही उसकी अस्मिता।

स्त्री संघर्ष की भूमिका सीमित थी, अंग्रेजों से लड़ने तक

पंडित रमाबाई जैसी जो स्त्रियाँ इस परंपरागत खांचे में फिट नहीं हो पाईं, इसलिए उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया। तत्कालीन परिस्थिति में स्त्री-संघर्ष को इसी राष्ट्रवादी आंदोलन की ज़मीन से स्वयं को अभिव्यक्त करना पड़ा। उस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन और स्त्री आंदोलन को अन्योन्याश्रित भी कहा जा सकता है, जबकि वैश्विक विचारधारा के अनुसार राष्ट्रवाद और स्त्रीवाद एक-दूसरे पर आश्रित नहीं हैं। जिस प्रकार स्त्री-आंदोलन को राष्ट्रवादी आंदोलन के बीच से ही अपना स्वरुप तलाशना पड़ा और अपना आधार बनाना पड़ा, उसी प्रकार राष्ट्रवादी स्वतंत्रता-आंदोलन को भी अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आधी आबादी के संघर्ष की ज़रूरत थी। राष्ट्रवादी आंदोलन के अगुआओं के लिए स्त्रियों के संघर्ष की भूमिका अंग्रेज़ों से लड़ने तक ही थी, न कि उसके साथ स्त्री के अपने सामाजिक और सांस्कृतिक व्यक्तित्व और पहचान के संदर्भ में। स्वतंत्रता के बाद भी स्त्री का पूरा व्यक्तित्व और उसकी अपनी स्थिति पितृसत्तात्मक परिवार के दमघोंटू माहौल से ही बंधे रहने के लिए अभिशप्त रहा है क्योंकि स्त्री के स्तर से इन नेताओं के पास न तो कोई और विकल्प था और न ही उस विकल्प की कोई अवधारणा।

और मंच पर भी संगठित होने लगी स्त्रियाँ, पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ़

उन्नीसवीं सदी तक समाजसुधार और राष्ट्रवाद की ओर उन्मुख स्त्री-संघर्ष बीसवीं सदी के आरंभ में स्त्री अधिकारों के प्रति भी सचेत हुआ। यह समय ऐसा रहा, जब पूरे भारत में स्त्रियाँ राष्ट्रीय स्तर के मंचों पर संगठित हुईं और अनेक स्थानीय संगठन भी इनसे जुड़े। 1908 में हुआ लेडिज़ कांग्रेस का सम्मलेन हो या 1917 में गठित विमेंस इंडियन असोसिएशन, ऐसे ही बड़े संगठन थे। भारत में स्त्रियों के ऐसे संगठनों की सबसे बड़ी विडंबना रही, हिंदू धर्म और उस समय की पुनरुत्थानवादी राष्ट्रीय विचारधारा। एक ओर जहाँ रमाबाई जैसी स्त्री को हिंदू धर्म छोड़ना पड़ा, वहीँ दूसरी ओर होमरूल जैसे आंदोलन का हिंदुत्व से ओत-प्रोत धार्मिक स्वरुप लिए था, जिसमें स्त्रियों की बड़े स्तर पर सक्रिय भागीदारी थी। यही एक बड़ा कारण रहा कि दलित-आंदोलन और स्त्री-आंदोलन की संवेदनात्मक स्तर की दूरी का भी। फिर भी संघर्ष की इस लंबी परंपरा को किसी भी स्तर से नकारा नहीं जा सकता है, जहाँ स्त्रियाँ अपने अधिकारों की मांग के साथ खड़ी हो रही थीं। सरला देवी जैसी पुनरुत्थानवादी स्त्री ने भी विधवाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों की मांग की थी। इस रूप में उस समय स्त्रियों की लड़ाई दोहरे स्तर पर चल रही थी, एक तो उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ़, दूसरे अपने घर में उनकी नियति निर्धारित करने वाली पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ़।

उठने लगी अधिकारों की मांग

1918 ई. के कांग्रेस बैठक में स्त्रियों को दिए गए मताधिकार को भी राष्ट्रवादी आंदोलन की अपनी ज़रूरतों और उसमें से उभरते स्त्री-आंदोलन के संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। राष्ट्रवादी ज़रूरतों से तात्पर्य साम्राज्यवादियों की उस विचारधारा से लड़ने के परिप्रेक्ष्य में है, जो मेयो के ‘मदर इंडिया’ में दिखाई देती है। स्त्रियों के अपने अधिकारों की मांग और साम्राज्यवादी ताकतों से लड़ने में उनकी भूमिका इस मताधिकार की पृष्ठभूमि निर्मित करता है। स्त्री का मताधिकार भी स्त्री के हक़ और न्याय की उन तमाम मांगों से जुड़ा हुआ था, जिसके लिए सावित्रीबाई, रमाबाई, काशीबाई कानितकर, आनंदीबाई, मैरी भोरे, गोदावरी समस्कर, पार्वतीबाई, सरला देवी, भगिनी निवेदिता से लेकर भिकाजी कामा, कुमुदिनी मित्रा, लीलावती मित्रा जैसी स्त्रियों ने अनेक स्तरों पर संघर्ष किया और ऐसे हज़ारों नाम इतिहास के पन्ने पर लिखे जा सकते हैं। एनी बेसेंट ने मार्गरेट कूजिंस, सरोजिनी नायडू आदि के साथ स्त्रियों के मताधिकार की माँग की थी। कांग्रेस की राष्ट्रवादी विचारधारा का पूरा प्रभाव एनी बेसेंट और सरोजिनी नायडू जैसी स्त्रियों के ऊपर था।

दूसरे शब्दों में कहें, तो साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक ऐसी स्त्री राष्ट्रवाद के अंतर्गत गढ़ी जा रही थी, जो एक ओर तो उपनिवेशवाद के खिलाफ़ अपना सर्वस्व झोंक दे, लेकिन दूसरी ओर स्त्रियों के लिए बनाए गए नियमों के आधुनिक रूप में बंधी रहे और स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व या अस्मिता से उसका कोई सरोकार न हो। यही कारण है कि सरोजिनी नायडू जैसी महिला ने भारत के स्त्री-आंदोलनों को स्त्रीवादी आंदोलन नहीं माना और उसे पश्चिम में चल रहे स्त्रीवादी आंदोलन से अलगाया। फिर भी स्त्रियाँ अपने हक़ और न्याय की लड़ाई को आगे बढ़ाती रहीं क्योंकि कोई भी आंदोलन कुछ नीतिनिर्धारक तत्वों के आधार पर जीवित नहीं रहता, खासतौर से तब, जब उस आंदोलन की लड़ाई बहुस्तरीय हो। राष्ट्रवादी विचारधारा के आग्रहों के बावजूद स्त्री के सामाजिक अधिकारों के प्रति एनी बेसेंट जैसी स्त्रियों की जागरूकता को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है।

अधिकारों के लिए हर कदम पर किया संघर्ष

यह सही है कि पश्चिम में स्त्रियों को मताधिकार के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा और उस रूप में भारत में कोई मताधिकार आंदोलन नहीं चला। इससे यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है कि भारत में मताधिकार आंदोलन इसलिए नहीं हुआ क्योंकि यहां स्त्रियों में अपने अधिकारों को लेकर कोई चेतना जागृत नहीं हुई। यहाँ भी स्त्रियों को अपने अधिकारों को लेकर कदम-कदम पर संघर्ष करना पड़ा है और यह तभी संभव हो सका, जब उनके भीतर भी स्वाधिकार की चेतना जगी, स्वयं को एक ऑब्जेक्ट के बदले एक संवेदनात्मक इंसान समझने की चेतना जगी और अपनी देह को किसी के उपभोग की वस्तु न बनने देने की चेतना जगी।  

मनुष्यता की पहचान के आधार रचा गया स्त्री संघर्ष का लंबा इतिहास

सुमन राजे ने स्पष्टतः लिखा है कि निरपेक्ष स्वतंत्रता जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती। स्वतंत्रता का मूल अभिप्राय है ‘निर्णय की स्वतंत्रता’ और स्त्री स्वतंत्रता का रूप क्या होगा, यह स्वयं स्त्रियों को ही तय करना है, यह निर्णय कुछ ‘विशिष्ट’ महिलाओं द्वारा नहीं लिया जा सकता। यह भी सच है कि ये विशिष्ट महिलाएं किसी भी सैद्धांतिकी से प्रभावित हो सकती हैं और नया सिद्धांत भी गढ़ सकती हैं, लेकिन साथ ही स्वतंत्रता का एक बड़ा सामाजिक सरोकार है और यहीं से स्त्री-पुरुष के बदले मनुष्यता की ज़मीन तैयार होती है।

ज़रूरी है स्त्री विमर्श के नए आयाम की तलाश

स्त्री विमर्श केवल पूर्वाग्रहों या व्यक्तिगत विश्वासों तक ही सीमित नहीं है। उसके अन्य भी आयाम हैं और इन आयामों को भी तलाशने की ज़रूरत हमारे आलोचकों को है, न कि सिर्फ चंद नामों के आधार पर स्त्री विमर्श को एक खास दायरे में बाँधने की। स्त्री विमर्श की बात करते हुए वर्तमान के सामाजिक जीवन के हर विचारधारात्मक संघर्ष, समय और समाज के परिवर्तनों को भी ध्यान में रखना ज़रुरी है। जहाँ तक हिंदुस्तान में संस्कृति को बदलने की लड़ाई के शुरू होने की बात है, तो वह उसी दिन से शुरू हो गई होगी, जिस दिन पहली स्त्री ने अपने अधिकारों की मांग करके वर्चस्वशाली संस्कृति के समक्ष प्रतिरोधात्मक संस्कृति की शुरुआत की होगी। हम नहीं जानते कि वह स्त्री कौन थी या उसकी माँग क्या थी! हो सकता है उसकी पहली लड़ाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर ही रही हो! या फिर सामाजिक दर्ज़े की...! जो भी रहा हो, इससे निश्चित ही एक मज़बूत पृष्ठभूमि हुई है, इसे नकारा नहीं जा सकता। इसी के फलस्वरूप आज भी स्त्री अपने सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई के लिए निरंतर प्रयत्नशील है.....और यह मानवता के संतुलित विकास और भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य की बानगी भी है ।

 

 

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Description automatically generated मीता गुप्ता

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