मौन
भी अभिव्यक्ति
है
अत्यधिक मुखर होना
अनिवार्यत:
अच्छे
व्यक्तित्व
की
निशानी
नहीं
है
और
प्राय:
शांत
रहना
दब्बू
होने
का
प्रमाण
नहीं
है।
अगर
मुखरता
वाचालता
के
स्तर
को
छूती
हो
और
चिंतन
की
गहराई
से
वंचित
हो, तो
वह
व्यक्तित्व
का
सकारात्मक
पक्ष
न
होकर
एक
वैयक्तिक
व
सामाजिक
समस्या
बन
जाती
है।
दूसरी
ओर, अगर
किसी
व्यक्ति
का
मौन
आत्मविश्वास
के
अभाव
से
नहीं, बल्कि
चिंतन
की
गहराई
से
पैदा
हुआ
हो, तो
वह
चिंता
की
नहीं, समाज
के
लिए
फ़ायदे
की
बात
है।
हमें
इस
भयानक
सरलीकरण
से
बचना
चाहिए
कि
मुखर
या
बहिर्मुखी
व्यक्ति
अनिवार्यत:
शांत
या
अंतर्मुखी
व्यक्ति
से
बेहतर
होता
है।
कई ऐसी स्थितियां
होती
हैं, जहां
मौन
ही
सबसे
अच्छी
अभिव्यक्ति
बन
सामने
आता
है।
प्रसिद्ध
कवि
‘अज्ञेय’ ने लिखा
है-
मौन
भी
अभिव्यंजना
है/
जितना
तुम्हारा
सच
है/
उतना
ही
कहो। किन संदर्भों
में
मौन
हमारी
ताकत
बन
जाता
है, अगर
यह
समझ
जाएंगे, तो
हमारे
परिपक्व
होने
की
प्रक्रिया
ज्यादा
बेहतर
हो
जाएगी।...
अगर
आप
किसी
को
महत्व
न
देना
चाहते
हों, तो
उसकी
हरकतों
पर
मौन
बने
रहिए।
याद
रखिए, अगर
आप
किसी
का
विरोध
करते
हैं, तो
उसे
महत्व
देते
हैं।
इसी
तरह, अगर
आप
किसी
मुद्दे
पर
अनिर्णय
की
स्थिति
में
हैं, तो
तब
तक
मौन
रहें, जब
तक
अंतरात्मा
कोई
निर्णय
न
सुना
दे।
आप अक्सर ऐसे
लोगों
से
मिलते
होंगे, जो अपनी
अभिव्यक्तियों
में
बेहद
मुखर
होते
हैं।
उनके
पास
हमेशा
बातों
का
असीम
भंडार
होता
है।
किसी
भी
बातचीत
में
वे
सुनते
कम
और
बोलते
ज़्यादा
हैं।
उन्हें
किसी
भी
मुद्दे
पर
अपनी
राय
रखने
में
कोई
संकोच
या
झिझक
महसूस
नहीं
होती।
आमतौर
पर
ऐसे
लोगों
को
स्मार्ट
व्यक्तियों
की
श्रेणी
में
रखा
जाता
है
और
अधिकांश
लोग
चाहते
हैं
कि
वे
भी
उन्हीं
की
तरह
निस्संकोची
तथा
मुखर
व्यक्तित्व
के
धनी
हों।
दूसरी तरफ, आपने
कुछ
ऐसे
व्यक्तियों
को
भी
देखा
होगा
जो
आमतौर
पर
चुप
रहते
हैं।
जिस
मुद्दे
पर
मुखर
व्यक्ति
आपस
में
लड़ने-झगड़ने
की
मुद्रा
में
दिखाई
पड़ते
हैं, उन
मुद्दों
पर
भी
ये
व्यक्ति
एकदम
शांत
बने
रहते
हैं।
आमतौर
पर
धारणा
यही
है
कि
मौन
रहने
वाले
व्यक्तियों
का
व्यक्तित्व
दबा
हुआ
होता
है
और
प्रायः
कोई
भी
व्यक्ति
खुद
को
इस
वर्ग
में
शामिल
नहीं
होने
देना
चाहता।
अधिकांश
माता-पिता
अपने
बच्चों
को
बचपन
से
ही
मुखर
होना
सिखाते
हैं
और
अगर
कोई
बच्चा
शांत
रहता
हो
तो
यह
उसके
परिवार
के
लिए
चिंता
का
सबब
बन
जाता
है।
आपमें
से
कुछ
पाठक
भी
ऐसे
होंगे
जो
सामान्यतः
चुप
रहना
पसंद
करते
होंगे
और
उन्हें
अपने
शुभचिंतकों
से
बार-बार
ऐसी
सलाहें
मिलती
होंगी
कि
वे
अपने
व्यक्तित्व
को
सुधारने
के
लिए
गंभीर
प्रयास
करें।
अत्यधिक मुखर होना
अनिवार्यतः
अच्छे
व्यक्तित्व
की
निशानी
नहीं
है
और
प्रायः
शांत
बने
रहना
अनिवार्यतः
दब्बू
होने
का
प्रमाण
नहीं
है।
अगर
मुखरता
वाचालता
के
स्तर
को
छूती
हो
और
चिंतन
की
गहराई
से
वंचित
हो
तो
वह
व्यक्तित्व
का
सकारात्मक
पक्ष
न
होकर
एक
वैयक्तिक
और
सामाजिक
समस्या
बन
जाती
है।
दूसरी
ओर, अगर
किसी
व्यक्ति
का
मौन
आत्मविश्वास
के
अभाव
से
नहीं
बल्कि
चिंतन
की
गहराई
से
पैदा
हुआ
हो
तो
वह
चिंता
की
नहीं
बल्कि
व्यक्ति
और
समाज
के
लिए
फायदे
की
बात
है।
हमें
इस
भयानक
सरलीकरण
से
बचना
चाहिए
कि
मुखर
या
बहिर्मुखी
व्यक्ति
अनिवार्यतः
शांत
या
अंतर्मुखी
व्यक्ति
से
बेहतर
होता
है।
व्यक्ति के परिपक्व
होने
की
प्रक्रिया
में
उसे
यह
समझ
आना
चाहिए
कि
हर
समय
मुखरता
काम्य
नहीं
होती।
कई
ऐसी
स्थितियाँ
भी
होती
हैं
जहाँ
मौन
ही
सबसे
अच्छी
अभिव्यक्ति
बनकर
सामने
आता
है।
हमें
यह
समझना
चाहिए
कि
किन
संदर्भों
में
मौन
हमारी
ताकत
बन
जाता
है।
अगर
यह
समझ
जाएंगे
तो
निस्संदेह
हमारे
परिपक्व
होने
की
प्रक्रिया
ज़्यादा
बेहतर
और
संगत
हो
जाएगी।
मौन की पहली
ज़रूरत
वहाँ
पड़ती
है
जहाँ
व्यक्ति
भावनाओं
के
चरम
स्तर
पर
होता
है।
हमारी
भाषा
सामान्य
स्थितियों
में
भले
ही
संवाद
का
सेतु
बन
जाती
हो
पर
गहन
भावनात्मक
क्षणों
में
वह
निरर्थक
हो
जाती
है।
मौन का दूसरा
महत्त्व
वहाँ
उभरता
है
जहाँ
हमारी
मनःस्थिति
एकआयामी
न
होकर
जटिल
हो
जाती
है।
सरल
मनःस्थितियों
को
भाषा
के
स्तर
पर
व्यक्त
करना
एकदम
आसान
होता
है
किंतु
जैसे
ही
मनःस्थिति
जटिल
होती
है, वैसे
ही
हमारी
भाषा
असहाय
हो
जाती
है।
मौन के तीसरे
महत्त्व
का
अहसास
उन्हें
होता
है
जो
रहस्यवाद
या
अध्यात्म
के
रास्ते
पर
बढ़ते
हैं।
बड़े-बड़े
रहस्यवादियों
ने
रहस्यात्मक
अनुभूति
से
गुजरने
के
बाद
यह
माना
है
कि
उस
अनुभूति
को
भाषा
के
माध्यम
से
वर्णित
नहीं
किया
जा
सकता।
यही
कारण
है
कि
सभी
रहस्यवादी
अपनी
अनुभूतियों
के
बारे
में
मौन
रहना
ही
पसंद
करते
हैं।
कबीर
ने
कहा
है
कि
ईश्वर
की
अनुभूति
‘गूंगे के गुड़’
के
समान
है।
जिस
तरह
कोई
गूंगा
व्यक्ति
गुड़
खाकर
अद्भुत
आनंद
तो
महसूस
करता
है
किंतु
उस
आनंद
की
अभिव्यक्ति
करने
में
असमर्थ
होता
है, वैसे
ही
रहस्यवादी
व्यक्ति
अपनी
अनूठी
अनुभूति
को
शब्दों
की
असमर्थ
भाषा
में
व्यक्त
नहीं
कर
पाता।
मौन का चौथा
लाभ
यह
होता
है
कि
हमारा
संबंध
कुछ
समय
के
लिए
बाहरी
दुनिया
से
कट
जाता
है
और
हमें
खुद
अपने-आप
से
संवाद
करने
का
मौका
मिलता
है।
जो
लोग
जीवन
भर
बोलते
ही
रहते
हैं, उन्हें
इस
बात
का
अहसास
नहीं
है
कि
उन्होंने
क्या
खो
दिया
है।
बोलने
के
सुख
से
कहीं
बड़ा
मौन
का
सुख
है, बशर्ते
उस
मौन
के
भीतर
अपने
ही
साथ
आंतरिक
संवाद
होता
रहे।
यही
कारण
है
कि
महात्मा
गांधी
सहित
बहुत
से
गहरे
व्यक्तियों
ने
जीवन
के
कई
अवसरों
पर
मौनव्रत
का
सहारा
लिया।
मौन के और
भी
ढेरों
फायदे
हैं।
अगर
आप
किसी
को
महत्त्व
न
देना
चाहते
हों, तो उसकी
हरकतों
पर
मौन
बने
रहिए।
याद
रखिए
कि
अगर
आप
किसी
का
विरोध
करते
हैं
तो
इसमें
निहित
है
कि
आप
उसे
महत्त्व
देते
हैं।
किसी
को
महत्त्व
नहीं
देने
का
सबसे
अच्छा
तरीका
उसके
प्रति
तटस्थ
या
निरपेक्ष
हो
जाना
है
और
इसके
लिए
मौन
से
बढ़कर
कोई
हथियार
नहीं
है।
इसी
तरह, अगर
आप
किसी
मुद्दे
पर
अनिर्णय
की
स्थिति
में
हैं
तो
तब
तक
मौन
ही
रहिए
जब
तक
आपकी
अंतरात्मा
कोई
सीधा
और
स्पष्ट
निर्णय
न
सुना
दे।
अगर
आप
अनिर्णय
की
स्थिति
के
दौरान
कोई
प्रतिबद्धता
जाहिर
कर
देंगे
तो
वह
आगे
चलकर
आपके
लिए
गले
की
फाँस
बन
जाएगी।
सार यह है
कि
मौन
भी
अभिव्यक्ति
का
ही
एक
प्रबल
रूप
है, जिसके महत्त्व
की
अनदेखी
नहीं
करनी
चाहिए।
कोशिश
करनी
चाहिए
कि
हम
कम
किंतु
काम
का
बोलें।
हमारी
बातों
में
विस्तार
कम
और
गहराई
ज़्यादा
हो।
ज़्यादा
सोचना
और
कम
बोलना
समझदारी
का
लक्षण
है
और
बिना
सोचे-समझे
बोलते
रहना
मूर्खता
का।
चिंतन
और
अभिव्यक्ति
की
परिपक्वता
की
इस
यात्रा
में
मौन
का
महत्त्व
समझना
एक
अनिवार्य
चरण
है, यथा-
शब्द सीमित हैं मगर, मौन तो विस्तार है,
श्रम ही श्रम है शब्द में, मौन में विश्राम है।
मौन में ही शक्ति है, मौन में ही भक्ति है,
ध्यान में भी मौन है, मौन में विरक्ति है।
सूर्य चंद्र मौन हैं, आकाश सारा मौन है,
धैर्य जो धारण करे, यह धरा भी मौन है।
शब्द क्या पढ़े, जो मौन ही ना पढ़ सका,
पार्थ हो या बुद्ध हों, ज्ञान मौन में खिला,
मौन में ही प्रश्न था, मौन में उत्तर मिला।
मौन रह के हिम गला, मौन ही गंगा बही,
ज्ञान कृष्ण का लिए, मौन ही गीता चली।
-मीता
गुप्ता
No comments:
Post a Comment