उम्मीद का दीपक जले...
इन दिनों छटपटा रहा है वह,
अच्छी लगने वाली बातों के अलावा
और सब कुछ तो हो रहा है
इन दिनों....
अब पहले वाला वह समय कहाँ?
चले जाते हैं सिलसिले
बढ़ी जाती है बेकरारी
गुज़र जाते हैं दिन-पर-दिन
अनचीन्हे-से
अनजाने-से
नपहचाने-से....
भीड़ के गुबार में गुम होने से पहले
आएगा क्या कोई ऐसा दिन ?
चीन्हा-सा
जाना-सा
पहचाना-सा...
जिस दिन वह थाम सकेगा दिल को..
भावनाओं को...
वजूद को....अपने
आज की सारी अच्छी न लगने वाली सारी बातें
तब बन जाएंगी
अंतिम तनाव
अंतिम पीड़ा
अंतिम कुंठा
अंतिम भूख
अथ से इति तक
अच्छी लगने वाली
उस दिन हवा वैसे ही चले
वैसे ही दुनिया भी चले
लोग भी वही करें
रोटियाँ भी वैसे ही पकें
जैसे बरसों से पकती आई हैं...
मां के पल्लू के तले..
पिता के साए भले...
फिर वह वक्त न टले...
उम्मीद का दीपक जले...
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