Wednesday, 26 May 2021

काश ! ज़िंदगी सचमुच किताब होती !

 काश ! ज़िंदगी सचमुच किताब होती !





काश ! ज़िंदगी सचमुच किताब होती !


पढ़ सकती उसे पृष्ठ दर पृष्ठ।     

उत्सुक रहती जानने की,          

न जाने अगले पन्ने में कौन से रंग होंगे ?

लाल-नीला-पीला-हरा..

या फिर सफ़ेद ?

या काला ?

कौन सी तस्वीर होगी....

क्या फूल-तितली-आसमान-बादल की?

या फिर रातों के स्याह काजल की? 

न जाने आगे क्या-क्या होगा? 

कोई कहानी होगी ?

जिसे पढ़कर मेरा दिल खो जाएगा?

कब थोड़ी खुशी मिलेगी, कब दिल रो जाएगा? 


काश ! ज़िंदगी सचमुच किताब होती !

फाड़ सकती मैं उन लम्हों को

जिन्होंने मुझे रुलाया है.. 

जोड़ सकती कुछ पन्नों को, 

जिन्होंने  ने मुझे हँसाया है... 

जीवन के इस सफ़र में

कितना खोया और कितना पाया है?

कम से ऐनक लगाकर

हिसाब तो लगा पाती, आखिर कितना ?

काश ! ज़िंदगी सचमुच किताब होती !


वक्त से आँखें चुराकर पीछे चला जाती.. 

कुछ टूटे सपनों को फिर से अरमानों से सजाती

उन घरौंदों को फिर से बनाती

जिनमें सुकून था..

मां की डांट थी..

पिता का स्नेह था..

उन पलों को फिर से जी लेती...

कुछ पल के लिए मैं भी मुस्कराती  


काश ! ज़िंदगी सचमुच किताब होती !

काश ! ज़िंदगी सचमुच किताब होती !

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