रहें न रहें हम
किताब-ए-दिल
का कोई भी पन्ना सादा नहीं होता,
निगाह
उस को भी पढ़ लेती है, जो लिखा नहीं होता|
जी हां
दोस्तों! हम ज़िंदगी भर अनगिनत किताबें पढ़ते हैं और इन किताबों में मन के प्रश्नों
के उत्तर खोजते हैं, ना जाने कितनी किताबें पढ़ डाली होंगी।
अभी तक मैने भी कितनी की किताबें पढ़ी होंगी, कुछ
थोड़ी-थोड़ी
याद रह गईं,
कितनी ही पढ़ कर भूल गई। लेकिन कुछ किताबें ऐसी भी होती हैं, जो हमें ताउम्र याद
रहती हैं।
दोस्तों!
हम सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी जीते हैं, कोई
अपने लिए जीता है, तो कोई किसी और के लिए अपना पूरा जीवन गुज़ार देता है। यह जीवन भी तो एक किताब ही है ना, जिस लिए हम जन्म के दिन से लिख रहे हैं और
अंतिम दिन तक लिखते रहेंगे। कितने हजारों-लाखों शब्दों से अपने जीवन की किताब को लिख डाला, कौन जाने? कैसे लिखा है? अधूरा लिखा है या पूरा
लिखा? खुशी लिखी है या गम लिखा? कभी सोचा ही
नहीं, बस लिखते ही चले गए| कभी इस किताब को पढ़ने की सोची ही नहीं और जिस दिन
पढ़ने बैठे, उस दिन किताब ही रूठ गई, बोली, अब बहुत देर हो चुकी है,अब सो जाओ तुम।
क्यों
समय रहते हमने जीवन की किताब नहीं पढ़ी हमने? भूल
गए क्या? या फिर हम कहीं आलस से भर गए? अंतिम
नींद से पहले हमें सारी किताब पढ़ लेनी चाहिए थी। हम रोज़ नए-नए पन्नों पर हर पल
का हिसाब लिखते चले गए, बही खाते लिख-लिख कर खुश होते चले गए, लेकिन
इन खातों को, इन पोथियों को कभी गलती से भी उलट-पलट कर नहीं देखा। क्या बहुत बिजी
रहे? किसी
दिन फुर्सत मिली भी तो...?
किसी दिन फुर्सत से अगर देखने बैठे, तो
पाएंगे कि हमारी ज़िंदगी का पहला पन्ना हमारे जन्म से शुरू होता है। रोज़ नई इबारत,
रोज़ नई इमारत,
बचपन की वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी, गुड्डे-गुड़िया के ब्याह और इन्हीं
में रंगे-रंगे से कुछ पन्ने, कभी आम के पेड़ से कच्चे आम चुराने के आनंद से सराबोर
कुछ पन्ने, कुछ आगे बढ़ें, तो युवावस्था के
इंद्रधनुषी पन्ने हैं, जिनमें कहीं प्रेम का सुर्ख गुलाब है, तो कहीं पीले-नारंगी एहसासात, मैने पहले भी कहा था ना....इंद्रधनुषी
रंग, ऐसे रंग जो हमारी जवानी के रंग में रेंज थे| कहीं फागुन के रंग हैं, तो कहीं सावन
की भिगोती फुहार से भीगे पन्ने। इस किताब में कुछ पन्ने गुलाबी और थोड़े सुर्ख भी
हैं, जिन पर लिखी हैं प्रेम की, इज़हार की, मिलन की इबारत, ये पन्ने इस किताब के
सबसे चमकीले पन्ने हैं। जो पूरी ज़िंदगी हमें रोमांचित करते रहते हैं, हमें इन्हें बार बार पढ़ना चाहते हैं क्योंकि
प्रेम के ये पन्ने कभी बदरंग नहीं होते, वे
उम्र के हर मोड़ पर हमें लुभाते हैं। इन पन्नों पे हमने अपनी सबसे सुंदर भावनाएं
दर्ज की होती हैं|
लेकिन..लेकिन देखो तो ज़रा इस किताब की
कुछ पन्ने स्याह क्यों हैं? काले-नीले-सलेटी और थोड़े बदरंग...? राख जैसे धूसर से...ज़रूर ये दर्द-दुःख और
पीड़ा के पन्ने होंगे, तन्हाहियों के पन्ने, इंतज़ार के पन्ने, जो आंसुओं से भीग-भीग
कर गल गए हैं। ज़रा ध्यान से....इन्हें ज़रा आराम से उलटना-पलटना, वरना ये चूर-चूर हो जाएंगे और चिंदी-चिंदी हो कर
चारों ओर फैल जाएंगे। ये दर्द के पन्ने, हम दोबारा कभी पढ़ना नहीं चाहते। इन्हें
पढ़ने से हमारा अंतर्मन दुखी होता है, हम दुख के सागर में डूब जाते हैं। ये काले-धूसर
पन्ने हमें बिल्कुल नहीं सुहाते|
चलो
आगे बढ़ाते हैं, आगे
इस किताब में कुछ सतरंगी पन्ने जगमगा रहे हैं। इनमे दर्ज है, किसी की मुस्कराहट,
जो कभी उसके होठों पर हमने सजाई थी, या किसी ने रख दी थी हमारे होंठो पर| ये हँसी-ख़ुशी
के पन्ने....मुहब्बत के पन्ने...मुरव्वत के पन्ने...इंसानियत के पन्ने....सतरंगी-इंद्रधनुषी
पन्ने......सब झूम-झूम कर मुझे बुलाते हैं...देखो न...कितने मासूम..कितने कोमल हैं
ये पन्ने|
अरे
यह क्या?...हमने
किताब में ये कुछ पन्ने, मोड़ कर क्यों रखे हैं? ये
तो शायद बिल्कुल निजी हैं, मेरे अपने पन्ने हैं, शायद
इनमें मैने अपने निजी पलों में छिपा कर रखा है। ये पन्ने, मेरे गिर कर उठने का हिसाब रखते हैं, फ़र्श से अर्श की हमारी सीढ़ी की ऊंचाई
पर नज़र रखते हैं, मेरे आंसू कब मेरी शक्ति बं गए, इसका ब्योरा रखते हैं, ज़िंदगी की किताब के ये पन्ने हमें
जीने का हौसला देते हैं। तन्हाइयों में जब कोई पास नहीं होता, तो ये हमें प्यार से
थपकी देते हैं। कभी हमारे कंधे पर हाथ रख देते हैं, हमें सहारा देते हैं, कहीं जब हम फिसलने लगते हैं, गिरने
लगते हैं, तो
एक छोटी-सी ऊँगली का सहारा देकर ये हमें उठा लेते हैं, हमारा संबल बनते हैं और फिर
हमारी आँखों से आंसुओं की गर्म धारा बहने लगती है| पर इन्हें छूना नहीं, हाथ जल
सकते हैं।
चलो!
अब अगले पन्ने पलट कर देखते हैं, पर इन पर तो कुछ लिखा ही नहीं हैं, बिल्कुल कोरे...आखिर क्यों? इन पन्नों में शायद
कुछ ख़ास है.....ये पन्ने उन भावनाओं, उन ख्वाहिशों के नाम के पन्ने हैं, जिन्हें
कभी व्यक्त नहीं किया जा सका, बहुत-सी अनकही बातें छुपी हैं यहाँ, बहुत-सी अनकही
बातें लिखी जाएँगी यहाँ, कुछ नहीं लिखी गयी हैं और कुछ लिखी हैं, पर दिखती नहीं
हैं....ऐसी हैं ये बातें। इसलिए ये पन्ने आज खाली दिखाई देते हैं....संवेदनाओं के
नाम लिखे गए ये पन्ने हैं...छोड़े गए ये पन्ने हैं| वैसे शब्दों में इतना सामर्थ्य
है भी कहां कि वे किसी की भावनाओं को, संवेदनाओं को, इच्छाओं को पूरी तरह व्यक्त
कर दे?
सारा अनकहा इन्हीं पन्नों में लिखा है। चाहे वे टूटी-फूटी ख्वाहिशें हों, आधे-अधूरे
अरमान हों, कुछ रिश्ते हों, कुछ प्रेम भरे ख़त हों, जो कभी लिखे ही नहीं गए
और अगर लिखे भी गए, तो कभी भेजे नहीं गए। कुछ आंसू, जो गालों पर ही सूख गए, कुछ अनकही बातें, जो होंठो के किनारे पर ही चिपककर रह गई हों| दोस्तों!
इन पन्नों को पढ़ने की नहीं, महसूसने की ज़रुरत है। इन्हें आप छुए नहीं, बहुत कोमल हैं, इनके मुरझाने का डर है|
ज़िंदगी
की किताब कई पन्नों से पूरी है,
पर
कुछ कहानियाँ है, जो लफ़्ज़ों में भी अधूरी है.
और इस
किताब के आख़िरी कुछ पन्ने फटे हुए से दिखते हैं। ज़रुर ये वो पन्ने होंगे, जो ज़िंदगी
की किताब से हमेशा के लिए दूर हो गए होंगे। मगर उनसे अलग होने के निशान किताब पर
बखूबी देखे जा सकते हैं। बहुत से रिश्ते, बहुत से नाते, बहुत से प्रिय, बहुत से अपने...जो हमसे छूट गए, जो
हमसे रूठकर सदा-सदा के लिए चले गए, जिनके लिए मन आज भी तड़पता है और कहता है, कहाँ
गया उसे ढूंढो....ऐसे रिश्तों के निशान अमिट होते हैं, हम इन्हें भूलना भी चाहें, तो भी दिल इन्हें भूलने नहीं देता|
तो दोस्तों, ये है ज़िंदगी की किताब...हर एक की
अपनी किताब होती है...अब हमें तय यह करना है कि हम उसे किस तरह संजोते हैं? पढ़ते
हैं? लिखते हैं? या फिर पन्नों को फाड़ डालते हैं? हमारे जाने के बाद हमारे पन्नों
को कोई प्रेम से क्यों पढ़ना चाहेगा? क्यों न ऐसी किताब बन जाएं, जिसमें सूखे हुई गुलाब के फूल सदियों-सदियों
तक महका करें और यह कह सकें- रहें न रहें हम, महका करेंगे बनके कली,बनके सबा बागे
वफ़ा में....
No comments:
Post a Comment