7 अहा ज़िंदगी!!
आज की बात की शुरुआत उस महान शख्सियत को याद करते हुए....जो भारत के कण-कण में, यहां की मिट्टी की सोंधी खुशबू में, यहां की ठंडी बयार में, फ़िज़ाओं में, पत्ती-पत्ती में, डाली-डाली में, कण-कण में बसा है....आप समझ गए न...जी हां! मैं बात कर रही हूं, हमारे प्यारे बापू की....उन दिनों बापू पद यात्रा पर थे। वे अपने सामान में नहाने के लिए एक पत्थर रखा करते थे। वे उसी से शरीर रगड़ा करते थे। एक दिन मनु बहन उनका वह पत्थर पिछले पड़ाव पर ही भूल गईं। जब बापू को इसका पता चला तो उन्होंने उन्हें पिछले पड़ाव जाकर वह पत्थर लाने को कहा।
सुनकर मनु बहन ने कहा- “बापू! आप भी कैसी बात करते हैं? यहीं आसपास कितने पत्थर पड़े हैं, इन्हीं में से एक उठा लेती हूं। वहां जाने-आने में तो पूरे तीन घंटे लग जाएंगे"।
इस पर बापू ने कहा- ''मनु, तुम वही पत्थर लेकर आओ! यहां इतने पत्थर पड़े हैं, तो क्या हुआ, ये किसी न किसी काम तो आएंगे ही, अभी नहीं तो पांच बरस बाद। हमें इस तरह अन्य पत्थरों बिगाड़ने का कोई हक नहीं। हां, तुम तुरंत जाओ और उसी पत्थर को ढूंढकर लाओ।”
मनु वह पत्थर लेने चल पड़ी। तीन घंटे बाद लौटीं। उन्होंने जैसे ही बापू को वो पत्थर दिया, बापू ने खुश होते हुए उसे लेकर अपने थैले में रख लिया और बोले “यों तो प्रकृति की गोद में असंख्य पत्थर बिखरे पड़े हैं, लेकिन हमें अपनी आवश्यकता के अनुसार ही उनका उपयोग करना चाहिए"।
इस प्रसंग के बारे में सोचते-सोचते विचार करने लगी कि हम ज़िंदगी भर जिन मूल्यों को तलाशते रहते हैं, परखते रहते हैं, उनका अर्थ खोजने की जद्दोजहद में जुटे रहते हैं, बापू ने उसे कितनी सहजता से कह दिया....कि प्रकृति से हमें अपनी आवश्यकता, अपनी ज़रूरत के अनुसार ही लेना चाहिए...उससे अधिक नहीं...और उसका दोहन तो कतई नहीं। हालांकि एक बात आपने कभी गौर की है कि ज़िंदगी को परखने की कोशिश में हम एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते हैं कि ज़िंदगी की विशिष्ट परिभाषाएं दरअसल, हमारे सामान्य होने में छुपी हैं। इनमें से ही एक अहम बात है-प्रकृति से हमारा जुड़ाव। कुदरत का मतलब मिट्टी, पानी, पहाड़, झरने तो है ही, पांचों तत्व भी तो प्रकृति से ही मिले हैं। हमारी देह में, हमारे दुनियावी वजूद में शामिल पंच तत्व। और फिर, दुनिया में अगर हम मौजूद हैं, तो प्रकृति की नियामतों के बिना कैसे जिएंगे? क्या सांस न लेंगे? तरह-तरह के फूलों की खुशबुओं से मुलाकात नहीं करेंगे क्या? भोजन और पानी के बगैर कैसे गुज़रेगी ज़िंदगी की रेलगाड़ी?
तो आइए, आज प्रकृति में यानी पेड़ों की फुनगी पर, पत्तों पर बिछी ओस की बूंदों में, फूलों की खुशबू में, निर्बाध झरनों के तेज़ वेग से गिरते जल में, नदियोंके सर्पाकार मोड़ों के संग-संग ही तलाशते हैं अपनी ज़िंदगी का अर्थ! कुदरत महज हमारे जन्म और जीने के लिए ही ज़रूरी नहीं है, यह कल्पना भी सिहरा देने वाली होगी कि हमारे आसपास प्राणतत्व की उपस्थिति नहीं होगी। सोचकर देखिएगा कि आप किसी ऐसी जगह मौजूद हों, जहां सबकुछ अदृश्य हो, आपके पैरों तले मिट्टी न हो, न आंख के सामने धरती हो, पीने के लिए पानी और बातें करने के लिए परिंदे न हों.. क्या वहां ज़िंदगी संभव हो सकेगी?
खैर, अस्तित्व से आगे निकलकर इससे भी विराट संदर्भो में अर्थ तलाशें, तो हम पाएंगे कि जन्म से लेकर ज़िंदगी और फिर नश्वर संसार से अलविदा कहने तक प्रकृति हमारे साथ अलग-अलग रूपों में अपनी पूर्ण सकारात्मकता समेत मौजूद है। पहाड़ की छाती चीरकर, झरने पानी लेकर हाज़िर हैं। उनकी सौगात आगे बढ़ाती हैं नदियां...जो फिर सागर में मिल जाती हैं। समंदरों से यही पानी सूरज तक पहुंचता है और होती है बारिश। बारिश न हो, तो खेत कैसे लहलहाएंगे?
हां, खुशबुएं न हों, रास्ते न हों, जंगलों का नामोनिशां न हो, तो हमारे होने का, इस ज़िंदगी का ही क्या मतलब होगा? प्रकृति की हर धड़कन में कुदरत के रचयिता के श्रृंगारिक मन की खूबसूरत अभिव्यक्ति होती है। कितने किस्म के तो हैं उत्सव।
मौसमों की रंगत भी कुछ कम अनूठी नहीं। जाड़े में ठिठुरन, बारिश में भीगने में, गर्मी में छांव में और बारिश की उमंग में अनिर्वचनीय सुख है। सब के सब मौसम कुछ न कुछ बयां करते हैं। सच कहें, तो प्रकृति में एक अनूठे ज्ञान की पाठशाला समाई हुई है। ज़रूरत बस इस बात की है कि हम कुदरत की स्वाभाविक उड़ान को, उसके योगदान को समझें, सराहें और पहचानें। स्वाभाविक तौर पर हर दिन बिना कोई विलंब किए उगने वाले सूरज को, बगैर थके उसकी परिक्रमा करने वाली पृथ्वी को और उनके पारस्परिक संबंध के कारण होने वाले बदलावों को समझ पाएंगे। हम जान पाएंगे कि वृक्ष बिना कुछ लिए महज फल और छाया देते हैं। नदियां कुछ भी नहीं कहतीं, पर पानी की सौगात देती हैं। मौसम अपने रंग बिना किसी कीमत के बिखेरते हैं। हम जब तक प्रकृति की ओर से मिल रही सीख समझते हैं और उसे आहत नहीं करते, उसकी तरफ से आनंद की वर्षा होती है। हम उसमें भीगते रहते हैं, लेकिन जब-जब हम कारसाज़ कुदरत को आदर करना बंद कर देते हैं, कई तरह की सुनामियों का सामना भी करना पड़ता है।
किस-किस को निहारूं? किस-किस की कहानी सुनाऊं? मेरी ज़िंदगी को किस-किस ने ‘अहा’ बना दिया। ये विशालकाय वृक्ष, फलों से लदी उनकी शाखाएं, वृक्ष, जो राहगीरों को आश्रय देता है, हवाएं, जो शीतल शांत है, समुद्र, जिसमें अद्भुत प्रवाह है, जो बहता अपनी ही राह है, मानो जलमाला महाकुंभ है, कितना विचित्र दृश्य मनोहर है, पर्वत...पर्वत तो अमर अटल है, धराशील गगनचुंबीय हैं, कहता झुके ना शीश मेरा, चक्रब्यूह सा वह अभेद है। सच कहूं दोस्तों! प्रकृति एक संपदा है, जिसके कारण अजर-अमर यह वसुंधरा है, बस इतनी-सी इसकी कहानी है, क्या सचमुच इसकी इतनी-सी ही कहानी है? यह तो अमूल्य-अनुपम-अतुलनीय हैं, जन-जन का विश्वास है और युगों-युगों की कहानी है।
मुझे याद आता है अपना बचपन... जब हम नानी के पास सर्दियों में जाते, रात के समय, सब कामों से फ़ारिग हो होकर, वे सब बच्चों को रज़ाई में अपने पास लिटा लेतीं। हम सब बच्चे दिन भर रात हो होने वाली इस अनोखी पाठशाला की धमाचौकड़ी का इंतज़ार करते। सारे बच्चे नानी के सुरीले गले के साथ अपने बेसुरे गले मिलाते और कभी गाते- छोटी-छोटी गइया छोटे-छोटे ग्वाल, छोटौ सो मेरौ मदन गोपाल, कभी मेरौ बारौ सो कन्हैंया कालीदह पै खेलन आयो री, कभी जमुना किनारे मेरौ गाँव आ जइयो, कभी सुन महादेवा हो,जटा गंगाधारी, कभी तेरी जटा में गंग बिराजी, माथे पे चन्द्र सोहे, कभी सासू पनिया भरन कैसे जाऊँ, रसीले दोऊ नैना ।बहू ओढ़ो चटक चुनरिया, सर पै राखो गगरिया, बहू मेरी छोटी नणद लो साथ, रसीले दोऊ नैना , कभी अरे बरसन लागे बुंदिया चला भागा पिया, अरे घूंघटा भीगे तो भिजन दे....कभी कागा की चोंच कबूतर के डैना उड़त चिरया की आँख रे....,ससुराल गेंदा फूल, सास गारी देवे, देवर समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल….इस गीत की तो न जाने कितनी ही यादें हैं, इस गीत पर जिसका ठुमका नानी को भाता, उसे गोंद का आधा लड्डू मिलता...उस लड्डू का स्वाद आज भी नहीं भूली हूं। तो मैं बात कर रही थी इन लोक गीतों की...यदि ये गीत न होते, तो छोटे ग्वालों की गैया बड़ी न हो जाती, कन्हैया कालिंदी में कैसे खेलते, मां गंगा कहां बिराजतीं, चंद्रमा शिव के मस्तक की शोभा कैसे बढ़ाता, बहू अपनी सास से पानी न भरने के बहाने कैसे ढूंढती, और तो और बुंदियों के बरसने पर गोरिया का घूंघट कैसे भीगता और ससुराल गेंदा फूल कैसे बन पाता? देखा न दोस्तों! प्रकृति के इस रूपों से हमारी ज़िंदगी को कितना रोमानी, दिलखुश और ‘अहा’ हो जाती है....है न दोस्तों!
कभी उषा बेला में बाल सूरज को उदित होते तो देखिए, कभी अपने प्रियतम को मधुमालती लिपटी है मुंडेर पर बुला कर तो देखिए.... तुलसी के क्यारी में सिर नवाकर, शीश झुका कर तो देखिए, गुलाब के गमले में लगी मुस्कानों के साथ मुस्करा कर तो देखिए, क्षितिज पर शाम के समय लालिमा लिए सूरज को अपनी मुट्ठी में बांधकर तो देखिए और रात्रि के समय आसमान में जुगनुओं के समान टिमटिमाते तारों को अपनी चुनरी में टांक कर तो देखिए, ऐसे में क्या होगा? होगा यह कि आपका सारा अहम, नाराज़गी, मन की चटकन, व्यस्तताएं, नकारात्मक भावनाएं, सब काफ़ूर हो जाएंगी....और आप....आप एक शरारती बच्चे के समान किलोलने लगेंगे, मृदंग की तरह बजने लगेंगे.....पतंग की अदृश्य डोर से बंधकर उड़ने लगेंगे।
अच्छा हो, अगर हम प्रकृति का सम्मान करना सीख लें और उसके ज़रिए मानव-मात्र की होने वाली सेवा से ज़रूरी संदेश ग्रहण कर लें। ऐसा हो सका तो यकीनन, हमारी आंखों में आशा, संतोष, उम्मीद और खुशी के कई दीये जल उठेंगे और हम कह सकेंगे.....
अहा ज़िंदगी!!
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