हरितालिका तीज: परंपरा और युवा दृष्टिकोण
आज परब हे खास जी, तीजा तीज तिहार ।
आथे मइके मा बहिन, पाथे
मया दुलार ।।
भादो महिना आय जी, पुरखौती ये रीत ।
सबो सुहागिन मन सदा, गावँय सुमधुर गीत ।।
पहिरे लुगरा पोलका, टिकली चमके माथ ।
चूरी कंगन हे
सुघर, लगे महेंदी
हाथ ।।
घर-घर मा खुरमी बरा, सुघर बने हे आज ।
शिव भोला के जाप ले, पूरन होवय काज ।।
भारत त्योहारों की भूमि है। हर पर्व न
केवल धार्मिक आस्था से जुड़ा होता है, बल्कि उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक
और मानवीय मूल्य भी निहित होते हैं। हरितालिका तीज, ऐसा ही एक पर्व
है, जो विशेष रूप से नारी शक्ति, प्रकृति प्रेम, आत्मसंयम और
पारिवारिक रिश्तों का प्रतीक है। हरितालिका तीज भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख
त्योहार है, जो विशेष रूप से उत्तर भारत में महिलाओं द्वारा श्रद्धा, उमंग
और उल्लास से मनाया जाता है। यह पर्व सावन मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को
मनाया जाता है, जब चारों ओर हरियाली , बारिश की रिमझिम, और
प्रकृति का उल्लास चरम पर होता है। यह पर्व भगवान शिव और माता पार्वती के
पुनर्मिलन के प्रतीक रूप में भी जाना जाता है। हरितालिका तीज का पारंपरिक स्वरूप
स्त्रियों के लिए विशेष महत्व रखता है। इस दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी
उम्र के लिए व्रत रखती हैं और कुंवारी कन्याएं मनचाहा वर पाने की कामना करती हैं।
झूले झूलना, हरी चूड़ियाँ, मेंहदी, हरे वस्त्र
पहनना, लोकगीत गाना, नृत्य करना, पारंपरिक पकवान
बनाना और तीज माता की पूजा-ये सभी परंपराएं इस पर्व को जीवंत बनाती हैं।
परंतु आधुनिक दौर में यह प्रश्न उठना
स्वाभाविक है कि क्या आज की युवा पीढ़ी इस पर्व को केवल परंपरा के रूप में देखती
है या वह इसे एक प्रेरणास्रोत भी मानती है? आज के दौर में,
जब
नवीनता और वैश्वीकरण ने जीवनशैली को काफी हद तक प्रभावित किया है, तब
भी हरितालिका तीज अपनी सांस्कृतिक जड़ों से लोगों को जोड़ने में सक्षम है। बदलती
जीवनशैली, शहरीकरण, और व्यस्त दिनचर्या के बावजूद, महिलाएं और
युवतियाँ इस पर्व को न केवल धार्मिक आस्था से, बल्कि सामाजिक
उत्सव के रूप में भी मनाने लगी हैं। वर्किंग वुमन, छात्राएं और
युवा महिलाएं भी इस पर्व के प्रति आकर्षित हो रही हैं, क्योंकि यह
उन्हें सौंदर्य, सामूहिकता और सांस्कृतिक पहचान से जुड़ने का अवसर देता है।
युवा वर्ग के लिए हरितालिका तीज अब
केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि एक फैशन, फोटोग्राफी और
सोशल मीडिया ट्रेंड भी बन चुका है। लड़कियाँ इंस्टाग्राम और फेसबुक पर अपनी मेंहदी
लगी हथेलियों, पारंपरिक पोशाकों और झूला झूलती तस्वीरों को शेयर करती हैं। कॉलेज और
संस्थानों में तीज महोत्सव का आयोजन किया जाता है, जहाँ युवा अपनी
सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ देते हैं। कई युवा इसे पर्यावरण संरक्षण से भी जोड़ रहे
हैं — वृक्षारोपण, प्लास्टिक-मुक्त तीज, इको-फ्रेंडली पूजा सामग्री का उपयोग कर
नए संदर्भों में पर्व को ढालने का प्रयास हो रहा है। सांस्कृतिक जागरूकता बढ़ाने
वाले कार्यक्रमों और फेमिनिज़्म के सकारात्मक दृष्टिकोण से अब यह पर्व पुनः
प्रासंगिक बनता जा रहा है।
कहीं-कहीं ऐसा देखा जा रहा है कि
हरितालिका तीज का त्योहार एक ऐसा जीवंत
उदाहरण बन कर उभरता है, जहाँ परंपरा और आधुनिकता
(ट्रेडिशन वर्सेज ट्रांजिशन)
एक-दूसरे से टकराते नहीं, बल्कि एक-दूसरे को समृद्ध करते हैं|
तीज
सदियों से माता पार्वती और शिव के मिलन की कथा से जुड़ा है, जो प्रेम,
तपस्या
और सौभाग्य का प्रतीक है। इसमें व्रत, सोलह श्रृंगार, तीज गीत,
और
झूला झूलना जैसी परंपराएं शामिल हैं, जो स्त्री-जीवन की भावनात्मक और
सांस्कृतिक गहराई को दर्शाती हैं। जब हम आधुनिकता की रोशनी में इसे देखते हैं तो,
फैशन
शो, सोशल मीडिया चैलेंज, और ऑफिस सेलिब्रेशन के रूप में बदलती
जा रही है। पारंपरिक साड़ियों के स्थान पर
अनुपमा स्टाइल जैसे डिज़ाइन शामिल हो गए हैं, जो परंपरा को
ट्रेंडी अंदाज़ में पेश करते हैं। डिजिटल माध्यमों पर भी तीज की धमक सुनाई देती है|
ऑनलाइन
मेंहदी प्रतियोगिता और वर्चुअल तीज मिलन, जैसे नवाचारों ने इसे नई पीढ़ी से जोड़
दिया है। वास्तव में, जहाँ हर परिवर्तन एक नया अर्थ रचता है, और हर उत्सव में
एक पहचान की पुनर्रचना करता है। तीज पर आधुनिकता के प्रभाव ने सामाजिक और
सांस्कृतिक पहचान को कई स्तरों पर प्रभावित किया है और यह प्रभाव सकारात्मक भी है, तो
कहीं-कहीं चिंताजनक भी।
एक ओर, तीज का त्यौहार
नारी सशक्तिकरण का मंच तैयार करता है| तीज अब महिलाओं के लिए केवल धार्मिक
अनुष्ठान नहीं, बल्कि स्वतंत्रता और आत्म-अभिव्यक्ति का अवसर बन गया है। वे अपने
अनुभव, विचार और अधिकारों को गीतों और संवादों के माध्यम से साझा करती हैं।
दूसरी ओर, तीज का त्यौहार हमारे समाज में लैंगिक समानता की पहल भी करता है|
पुरुषों
की भागीदारी और तीज को एक समावेशी उत्सव के रूप में देखे जाने से लैंगिक सीमाएँ
धुंधली हुई हैं।
लेकिन यह भी देखने में आता है कि
आधुनिकता के चलते हरितालिका तीज का उत्सव
फीका पड़ता जा रहा है। अब स्वाभाविक रूप से पेड़ों पर झूले नहीं पड़ते। सावन के गीत
भी अब कम ही सुनाई पड़ते हैं। यदि होते भी हैं तो एक मैनेज्ड इवेंट जैसा आयोजन होता
है| बुजुर्गों ने अभी भी परंपराओं का दामन थाम रखा है, लेकिन
युवा पीढ़ी आधुनिकता के नाम पर सांस्कृतिक
परंपराओं से दूर भाग रहे हैं। आजकल होटलों में तीज मनाया जा रहा है उसमें बहुत कम
गिनती में ही महिलाएं हैं, जो तीज में पहनने के लिए भी पारंपरिक
ड्रेस साड़ी, पंजाबी सूट, पैरों में पंजाबी जूती और परांदा पहनती
हैं। अधिकतर महिलाएं वेस्टर्न ड्रेस पहनकर ही तीज सेलिब्रेट करती है। यह भी सच है
कि हमारे तीज-त्यौहार इसलिए विलुप्त होते जा रहे थे, पर कोरोना काल
में ऑनलाइन और सोशल मीडिया ने त्यौहारों में फिर से नई जान डाल दी है। अब हर
छोटे-मोटे त्योहार को आधुनिकता का जामा पहनाकर नए रंग-ढंग से मनाने लगे हैं। सोशल
मीडिया पर फ़ोटो और वीडियो पोस्ट किए जाते हैं। सभी एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर हर त्यौहार
को मना रहे हैं। विभिन्न प्रकार के मनोरंजन को त्यौहारों के साथ जोड़ दिया जाता है
जिससे मज़ा दोगुना हो जाता है। नई पीढ़ी में हमारे संस्कार और संस्कृति झलकने लगे
हैं, पर परिवार और समाज के बड़े-बुजुर्गों को यह बदलाव रास नहीं आ रहा है।
आज की युवा पीढ़ी इस बदलाव के कारण ही हमारे रीति-रिवाजों में रुचि ले रही है,
पर
समाज का एक वर्ग इस परिवर्तन का विरोध भी कर रहा है।
पिछले कुछ वर्षों से हमारे पारंपरिक
त्योहार विलुप्त से होते जा रहे थे। आधुनिकता की ओर बढ़ती नई पीढ़ी को तीज-त्यौहारों
को मनाने में बिल्कुल भी रुचि नहीं थी। परंतु आज हमारे तीज-त्यौहार आधुनिकता का
आवरण ओढ़कर पुर्नजीवित हो रहे हैं। चूँकि सबकी दिनचर्या अतिव्यस्त होने लगी है,
इसलिए
नई पीढ़ी तीज-त्योहारों को अपनी सुविधानुसार परिवर्तित कर मनाने लगी है।
तीज को गेट-टूगेदर का रुप देकर
मिलने-जुलने का एक नया तरीका निकाल लिया है। किटी-पार्टियों की थीम त्योहारों के
अनुसार रखी जा रही हैं। नई पीढ़ी त्योहारों को पारंपरिक रूढ़िवादी तरीके से ना मनाकर
उसे नया आवरण पहनाकर अपनी रुचियों के अनुसार मनचाहा परिवर्तन कर रही है।
ऐसा करने से अब उन्हें तीज का त्योहार
बोझ प्रतीत नहीं होते और उनमें त्योहार मनाने की उत्सुकता भी बढ़ने लगी है। दूसरे
शब्दों में कहा जा सकता है त्यौहार मनाने का पारंपरिक तरीका बदलने से हमारे
तीज-त्यौहार फिर से जीवंत हो रहे हैं। हाँ, इससे फिजूलखर्ची
और दिखावे में भरपूर इज़ाफा हुआ है। कुछेक उच्च धनाढ्यों के तीज का त्योहार तो
रंगीनमिजाज़ भी होने लगे हैं। इससे मूल संस्कारों और पारंपरिक संस्कृति को ठेस
पहुंच रही है जो सामाजिक दृष्टिकोण से शर्मनाक और चिंताजनक है। व्रत तो मानो अब
दूर के ढोल हो गया है, कुछ वर्किंग व्यस्तताओं के कारण और कुछ वैवाहिक संस्थान वैडिंग
इंस्टीट्यूशन में अविश्वास के कारण|
फिर भी सकारात्मक पक्ष को देखना अधिक
श्रेयस्कर है| समय के साथ परिवर्तन संसार का नियम है, पर परिवर्तन से
हमारे संस्कारों और मूल संस्कृति का अपमान नहीं होना चाहिए। परिवर्तन सदैव
परंपराओं को संजोकर अक्षुण्ण रखने के हित में होना चाहिए तभी तो पीढ़ी दर पीढ़ी
हमारी धरोहर, हमारे संस्कार, हमारी संस्कृति नया जामा पहनकर भी
खिलखिलाते रहेंगे। हमारे पुराना रिवाज़ रहें, पर अंदाज़ नए हों|
‘थोड़ा
तुम बदलो, थोड़ा हम बदलें’ यह भी अपनाना आवश्यक है। समय का चक्र जिस तरह घूम रहा
है, इस चक्र के साथ हमें भी यदि चलना है तो नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी दोनों
का सहयोग ज़रूरी है। कई वर्षों से चले आ रहे अपने त्योहारों को पुरानी पीढ़ी ने बहुत
ही आदर-सम्मान और एकजुट होकर मनाया है।
नई पीढ़ी इन्हें परिवर्तित कर अपनाने की
कोशिश कर रही है, तो इस परिवर्तन में बड़े बुजुर्गों का भी साथ यदि नई पीढ़ी को मिलता है,
तो
तीज का त्योहार प्रेममय वातावरण में परिवर्तित हो जाएगा, जिससे परिवार में एकजुटता और प्रेम भी
बढ़ेगा। जब तीज के मूल रूप यानी उसमें छिपी शिक्षा, आस्था, विश्वास,
अपनापन,
आपसी
भाईचारा, स्नेह आदि के साथ कुछ परिवर्तित अंदाज भी शामिल होगा, तो
वह युवा पीढ़ी को अत्याधिक आकर्षित करेगा,
जैसे पारंपरिक उपहार कुछ नई लुभावनी सी सजावट के संग भेंट किया गया
हो। यदि हम तीज के त्योहार को कुछ रोचक, मनोरंजक बनाएं तो युवा वर्ग अपनी
संस्कृति से भी जुड़ेंगे और बिना किसी दबाव के अपने रीति-रिवाज़ों को सहर्ष
अपनाएंगे।
भारत एक उत्सव प्रधान देश है। हमारी
उत्सव प्रियता जग ज़ाहिर है। त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, जिनसे
हम भावनात्मक रूप से सपरिवार जुड़ते हैं। त्योहार आते ही घरों की रौनक़ अद्भुत हो
जाती है और फिर यदि शहर से दूर पढ़ने या नौकरी करने वाले बच्चे घर आ जाएँ, तो
उस वातावरण का कहना ही क्या? युवा पीढ़ी को यदि अपनी संस्कृति,
संस्कार
और त्योहारों से जोड़े रखना है तो उसके मूल स्वरूप को बनाये रखने के साथ थोड़ा बहुत
परिवर्तन करने में कोई हर्ज़ नहीं।
जब भी प्रथाओं में कुछ नवीन परिवर्तन
होता है तो प्रारंभ में उनका विरोध स्वाभाविक है किंतु उसके दीर्घक़ालीन परिणाम
सकारात्मक होते हैं तो ये विरोध स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। अत: नई पीढ़ी को अपनी
संस्कृति, संस्कार, परंपराएं और त्योहारों की धरोहर हस्तरांतरित करने के लिए उसके स्वरूप
में थोड़े बहुत परिवर्तन श्लाघ्य हैं।
‘फूल की जगह पंखुड़ी हो, तो
भी अच्छा’ यह कहावत तो हम अपने बचपन से ही सुनते आ रहे हैं। यह इस विषय पर भी
सार्थक है। आधुनिक युग में तीज त्योहारों के मूल रूप में परिवर्तन तो हुआ है,
लेकिन
यही परिवर्तन अगर युवा पीढ़ी को जोड़ रहा है तो यह उचित है। कुछ नहीं करने से तो
अच्छा है कुछ करें, अगर युवा पीढ़ी परिवर्तन के साथ त्योहारों को अपना रही है और उनमें
अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रही है तो यह समाज के लिए अच्छा है।
जब वे तीज के त्योहार को मनाएँगे,
बड़ों
के साथ रहेंगे, तो उनकी सोच में भी परिवर्तन आएगा। वह धीरे-धीरे ही सही पर अपने
रीति-रिवाजों को अपनाएंगे। उन्हें अपनी समृद्ध विरासत और तीज त्योहार के पीछे का
विज्ञान भी पता चलेगा तो वह भी अपनी इस परंपरा को गर्व से अपनाएँगे।
आधुनिक युग की आपाधापी में सभी
त्योहारों को मूल रूप से मनाना आज की युवा पीढ़ी के लिए संभव नहीं है, लेकिन
इसका मतलब यह नहीं कि वह परिवर्तन के साथ अपनाएँ तो वह गलत है। हमारे ग्रंथ और
पुराण समय से बहुत पहले की सोच लेकर लिखे गए हैं। तब त्योहारों की जो परंपराएं
बनीं, वे उस समय के हिसाब से बनी हुई थीं, वे आज के समय
में प्रासंगिक नहीं हैं, तो बदलाव के साथ अपनाना सर्वथा उचित
है। तीज परंपरा में
आए आधुनिक परिवर्तनों को समाज में अपनाने के लिए हमें एक ऐसा रास्ता चुनना होगा जो
संवेदनशीलता, संवाद, और सांस्कृतिक समझ से होकर गुज़रता हो| यह केवल बदलाव
नहीं है, बल्कि एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण है।
अब समाज में आ रहे इन परिवर्तनों को
अपनाया कैसे जाए?
कहते हैं कि बात करने से बात बन ही
जाती है| संवाद की संस्कृति को बढ़ावा देने से बात कुछ बन सकती है| बुज़ुर्गों
और युवाओं के बीच संवाद सत्र आयोजित किए जाएँ, जहाँ परंपरा और
आधुनिकता पर खुलकर चर्चा हो। स्कूलों और कॉलेजों में लोक उत्सवों पर कार्यशालाएँ
हों, जिससे युवा जड़ से जुड़ें। तीज को थीम आधारित उत्सवों, फ्यूज़न
संगीत और नवगीतों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाए और पारंपरिक कथाओं को डिजिटल
माध्यमों से घर-घर पहुंचाया जाए|
हरितालिका तीज केवल एक पर्व नहीं,
बल्कि
प्रकृति, प्रेम, नारी शक्ति और परंपरा का उत्सव है| यह एक
आत्म-यात्रा है, एक स्त्री की संवेदनशील पुकार और उसका सशक्त स्वर है। आज के युग में
यह पर्व नारीत्व के सशक्त और आत्मनिर्भर स्वरूप को भी उजागर करता है। आवश्यकता है
कि हम युवा पीढ़ी को इसकी गहराई, संदेश और सौंदर्य से अवगत कराएं,
ताकि
यह उत्सव केवल रीति-रिवाज तक सीमित न रहे, बल्कि संवेदनशीलता, पर्यावरण
प्रेम और सांस्कृतिक गर्व का प्रतीक बनकर उभरे और इसकी आत्मा में वही अमृत,
वही
पावनता और वही हर्षोल्लास रहे, जिसकी सीख भारतीय संस्कृति हमें देती
है, और युवा भी समवेत स्वर में गा सकें, कि-
मैं तीज हूँ, सौंदर्य का गीत हूँ,
श्रृंगार में बसती मैं रीत हूँ।
व्रत में है मेरी आस्था की बात,
हर स्त्री के मन की सौगात।
झूले की डोर में सपने संजोती,
गीतों में भावनाएँ पिरोती।
परंपरा की माटी में पली,
अब आधुनिक हवा भी चली।
मैं संस्कार हूँ, मैं रौशनी हूँ,
मैं आस्था हूँ, मैं शक्ति भी हूँ।
मैं तीज हूँ, बदलते युग की पहचान,
संवेदनाओं में गुँथी मेरी शान।
मैं तीज हूँ, सौंदर्य का गीत हूँ,
श्रृंगार में बसती मैं रीत हूँ।
-डॉ मीता गुप्ता
शिक्षाविद,विचारक,साहित्यकार
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