Wednesday, 2 July 2025

23 रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई

23 रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई


सद्दो मैनूं धीदो रांझा हीर ना आखो कोई।


दोस्तों! बुल्ले शाह ने यह क्या कह दिया? उनके शब्दों में हीर कहती है कि राँझा-राँझा करती हुई मैं खुद ही राँझा हो गई हूँ, अब सब मुझे राँझण धीदो पुकारा करें, कोई मुझे हीर कहकर न पुकारे| अब भई, कहानी में एक था रांझा, जो प्रेम का देवता था, और एक थी हीर, जो सुंदरता की देवी थी। पंजाब की धरती पर दोनों का जन्म हुआ। विदेशी घोड़ों की टापों से देश की धरती उखड़ रही थी। इतिहास का ध्यान लगा था राजनीतिक उथल-पुथल की ओर, किसी का ध्यान इस ओर जाता तो जाता कैसे कि हीर को भी इतिहास के पन्नों में दर्ज कर दें। ऐसे में मन में यह सवाल उठाना लाज़मी है कि क्या हीर सचमुच थी?  झंग में हीर की समाधि, जिस पर प्रति वर्ष हज़ारों श्रद्धालु एकत्रित होते हैं, इस बात की घोषणा करती है कि हीर सचमुच में थी|

झंग, जहाँ हीर का जन्म हुआ, रांझे के जन्मस्थान तख़्त हज़ारे से अस्सी मील की दूरी पर है। पास से चनाब गुज़रती है। 'चनाब' शब्द का पंजाबी रूप है 'झनां'। और झनां शायद आज भी हीर को याद करती होगी, इसकी लहरों के सम्मुख ही तो पहले-पहल उसने रांझा के लिए अपने हृदय का द्वार खोला था। पहली बार जब लोकगीत ने हीर की कथा को अपनाया होगा, तब क्या अकेली हीर को ही अमर पदवी दी गई थी? झनां नदी भी तो इसमें आई थी। और हीर संबंधी प्रथमतम गान अब हम कहाँ ढूँढ़ें? लोकगीत तो स्वयं झनां की तरह बहता है, पानी आगे बढ़ता जाता है समुद्र में मिलने के लिए; उधर से आकर फिर जो बादल बरसते हैं, उनमें जैसे एक बार का गया हुआ पानी फिर झनां में लौट आता हो। लोकगीत भी बहता है, मर-मरकर फिर सुरक्षित होता है। भाषा का बहाव, इसकी रूपरेखा वही रहती है; पुराने शब्द जाते हैं और नए बन-बनकर लौटते हैं। 

झंग के समीप कभी इसके तीर पर बैठकर जल की ओर निहारिए, तो शायद यह आपके कान में कुछ कह जाए, निराश होकर एक दिन रांझे ने किस तरह आँसू गिराए थे, शायद झनां आपको बतला सके। जिस झनां ने रांझे की बंझली का गान सुना था, दिन-रात लगातार, जिसने उसे हीर के पिता की भैंसें चराते देखा था, जिसने हीर को रांझे के लिए मिष्ठं पकवान लाते देखा था, वह क्या आज बोल न उठेगी?

हीर और रांझा की प्रेमकथा की मोटी-मोटी रेखाएँ दो जाट-परिवारों से संबंध रखते हैं| रांझा का असल नाम ‘धीदो’ था, ‘रांझा’ उसकी जाति थी और वह इसी से प्रसिद्ध हुआ। हीर की जाति ‘सयाल’ कहलाती थी। रांझा का पिता बचपन में ही मर गया था। एक दिन उसकी भावजों ने ताना मारा कि वह काम-काज में विशेष हाथ नहीं बंटाता, छैला बना रहता है, जैसे उसे 'हीर' से विवाह करना हो। रांझा ने हीर के सौंदर्य का बखान पहले ही सुन रखा था। घर छोड़कर वह झंग की ओर चल पड़ा। झनां के तीर पर पहुँचकर अब किश्ती से पार होकर झंग जाने का प्रश्न था| पैसा पास में था नहीं। बिना पैसे के 'लुढ्ढन' नाविक उसे ले जाने को तैयार न था। रांझे ने बंझली बजाई,  लुढ्ढन की पत्नी को उस पर तरस आ गया और उसकी सिफ़ारिश पर लुढ्ढन ने रांझे को नदी-पार पहुँचा दिया। हीर का पिता एक ख़ासा ज़मींदार था; नदी के किनारे उसने एक कुटिया बनवा रखी थी, जिसमें हीर सहेलियों सहित कभी-कभी आया करती थी। रांझा इस कुटिया में जाकर हीर के पलंग पर चादर ओढ़कर सो गया। सहेलियों सहित हीर आई, तो उसने डांट-डपट की। ज्यों ही रांझा चौंककर उठा और उसने अपने मुँह से चादर उतारी, हीर से उसकी आँखें मिलीं; हीर के हृदय में पहली ही दृष्टि में प्रणय का भाव उदय हुआ। और वह उसके चरणों पर गिर गई। उसे वह अपने साथ घर ले गई और पिता से कहकर भैंसें चराने पर उसे रख लिया। कई वर्ष तक रांझे ने यह कार्य किया, हीर भी उसे बहुत प्यार करती, उसके लिए स्वादिष्ट पदार्थ वन में देने जाती। माता-पिता ने हीर की शादी रांझा से कर देनी पक्की कर दी थी, परंतु कुछ समय के बाद उसने रंगपुर के निवासी 'सैदा' से जो खेड़ा जाति का एक युवक था, हीर की शादी कर दी| हीर ने बहुत विरोध किया, परंतु उसकी एक न चली| रंगपुर में जाकर हीर ने प्रण कर लिया कि वह अपने सत को कायम रखेगी| कहते हैं कि रांझा गुरु गोरखनाथ के मठ में पहुँचा, और योगी बनकर रंगपुर की ओर बढ़ा। रंगपुर में उसने घर-घर अलख जमाई, हीर उसे पहचान गई, और अपनी ननद सहती की सहायता से उसने एक दिन रांझे से भेंट भी की। उन्होंने सोचा कि हीर किसी बहाने से सहती के साथ बाहर खेत में जाए, वहाँ वह साँप डस जाने का बहाना करे और फिर ज़हर उतारने के लिए रांझे को बुलवाने की चाल रची जाए| हुआ भी ऐसा ही| हीर को देखकर उसने कहा—'हाँ, ज़हर उतर सकता है, बाहर कुटिया में नियमित रूप से इसे रखना होगा।' सबने यह बात मान ली। पर राँझा हीर को लेकर झंग की ओर चला। खेड़ा-परिवार ने आकर उन्हें रास्ते में ही पकड़ लिया। उस इलाके के राजा के सम्मुख मामला पेश हुआ। दोनों पक्ष हीर को अपनी बतलाते थे; राजा के विचारानुसार हीर सैदे की सिद्ध हुई। और कहते हैं कि ज्यों ही राजा ने फ़ैसला सुनाया, नगर में अग्निकांड रौद्र रूप धारण कर उठा। राजा ने समझा, हीर के संबंध में अन्याय हुआ है। फिर अंतिम फ़ैसला यही रहा कि हीर रांझे के साथ जा सकती है। चाहता तो रांझा तख़्त हज़ारे चला जाता, पर उसने पहले झंग जाना ही तय किया। हीर के पिता ने ऊपर से रांझा का आदर किया; भीतर कपट का साँप फुंकार रहा था। रांझा अपने घर से बारात जुटाकर लाएगा, शादी करके ही हीर को ले जाएगा, पहले नहीं। ज्यों ही रांझा विदा हुआ, हीर को ज़हर दे दिया गया। और फिर ज्यों ही रांझे के कान में हीर के प्रति किए गए इस दुरूह अत्याचार की ख़बर पहुँची, वह ग़श खाकर गिर गया—एक दीपक बुझ चुका था, दूसरा भी बुझ गया।


कहानी से यह पता चलता है कि हीर और रांझा दोनों प्रेम का देवता और हुस्न की देवी क्या किसी चारदीवारों में बंद रहते? उन पर क्या किसी एक समाज का अधिकार था? इसका उत्तर भक्त गुरुदास ने मुक्तकंठ से अपने तराना दिया—

‘रांझा हीर बखानिये,ओह पिरम पिराती।‘

—'आओ हीर और रांझा का बखान करें,वे महान् प्रेमी थे!'

सूफ़ी कवि बुल्हेशाह की हीर-संबंधी भावना जिसने एक बार सुन ली, वह क्या कभी हीर के निष्पाप प्रेम की आलोचना की कसौटी पर कसने की ज़रूरत समझेगा? रांझे के पास जो बंझली थी, हीर उसके राग पर मुग्ध हो उठी थी, कई लो बंझली की प्रशंसा भी करते दिखाई देते हैं। रांझा जो कुछ भी बोलता था, जैसे वह बंझली में से होकर हीर तक पहुँचता था। बंझली से एक बार जो शब्द गुज़र जाते थे, वे कविता बन उठते थे। जैसे आकाश तक बंझली से प्रभावित हो जाता हो—

‘रांझा बजावे बंझली, सुक्का अम्बर छड्डे नरमाइयां।’ देखो! 'रांझा मुरली बजा रहा है,सूखे आकाश पर नमी आती जा रही है।'

दरअसल हीर और राँझा केवल दो प्रेमी नहीं, बल्कि वे प्रेम, बलिदान और सामाजिक बंधनों के विरुद्ध विद्रोह के प्रतीक हैं। इन दोनों की कहानी सिर्फ रोमांटिक नहीं है—यह उस दौर की सामाजिक बाधाओं, जातिगत भेदभाव, और पारिवारिक दबावों के बीच सच्चे प्रेम की जीत (या हार) का चित्रण करती है।

पर यह हार अक्सर वह प्रेरणा बन जाती है, जो हमें बेहतर, मजबूत, और समझदार बनाती है। हार हमें खुद से सवाल करने पर मजबूर करती है—हम क्या कर सकते थे, क्या नहीं किया, और आगे कैसे सुधारें। बार-बार गिरकर उठने से हमारा जज़्बा और सहनशीलता बढ़ती है। हार सिखाती है कि क्या काम करता है और क्या नहीं। ये पाठ किसी किताब से नहीं मिलते। तो जब हम हीर-राँझा की प्रेम कथा सुनते हैं, तो हार जाने के डर से जीना नहीं छोड़ते, सामाजिक बंधनों पर सवाल करना सीखते हैं, और हम अपने रास्ते या सोच को फिर से परिभाषित करते हैं। यही है हीर-रांझा की कहानी- मेरी जुबानी|


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