6 बहती हवा-सा था वो...
मैं अक्सर उस सड़क से गुज़रा करती थी। उस सड़क पर न जाने क्या आकर्षण था? जब-जब गुज़रती, तब-तक बाईं ओर ज़रूर देखती। वैसे तो बाईं ओर ऐसा कुछ खास नहीं था, पर फिर भी मुझे आकर्षित करता था। एक बड़ा-सा तंबू सड़क के किनारे लगा था, उस तंबू के बीचोंबीच सिलाई की एक पुरानी मशीन रखी थी और इन सबके बीच अनगिनत झुर्रियां लिए हुए खिचड़ी बालों वाले एक बुजुर्ग....एक वृद्ध बैठकर कुछ सिला करते थे। तंबू के आसपास कहीं फटे हुए बैग, कहीं सिले हुए कपड़ों की गठरी, कहीं कुछ धागे और कहीं और ऐसा सामान, जो देखने में कूड़ा-करकट लगता, पड़ा रहता था। साल के हर मौसम में वे बुज़ुर्ग वहीं बैठा करते सर झुकाए सिलाई मशीन की सुई में अपनी धुंधली आंखों से बड़े ही जतन से धागा डालते हुए, कुछ सिलते हुए दिखाई देते। घर में अक्सर ऐसा हो ही जाता है कि कभी कोई बैग फट गया, कभी-कभी कोई कपड़ा उधड़ गया, और ऐसी फटी हुई चीज़ों और उधड़न को संवारने का काम करते थे, वे बुज़ुर्ग। मैं अक्सर कुछ ना कुछ सिलवाने के लिए उनके पास जाया करती...वे बड़े प्यार से मुझे देखते। अक्सर कहते टूटी हुई बेंच को दिखाकर, बिटिया, यहां बैठ जा, अभी करके देता हूं। मैं सोचती चारों ओर गर्म हवाएं चल रही हैं...मैं यहां बैठ गई तो, तप जाऊंगी....जल जाऊंगी।
मैं बाबा को सामान देकर यह कहकर चली आती, बाबा, शाम को ले लूंगी। कई बार शाम को नहीं पहुंच पाती। दो-चार दिन बाद पहुंचती, तो बड़ी शिकायती स्वर में बाबा कहते, तुम आई नहीं बिटिया, मैं तो राह देख रहा था। मैंने उसे दिन रात को 8:00 बजे तक मशीन नहीं बांधी....मशीन नहीं बढ़ाई, क्योंकि मुझे लगा कि तुम आओगी।
मैं माफी मांगते हुए उनसे कहती, बाबा थोड़ा व्यस्त हो गई थी। यह सिलसिला न जाने कितने वर्षों तक चलता रहा और फिर आया वह समय....समय भी क्या कुसमय, जिसने देश-विदेश के हर बाशिंदे को हिला कर रख दिया....कोरोना का समय। घर से बाहर निकलना, कहीं आना-जाना, सब कुछ रुक गया, थम गया, अब तो सूरज की रोशनी भी खिड़कियों से झांक-झांक कर देखा करते, कब दिन हो गया, कब रात आ गई, कब रात बीत गई और फिर भोर हो गई, ये नज़ारे अब गुम हो चुके थे, तो सड़कों की तो बात ही क्या की जाए? बड़े दिनों बाद, शायद डेढ़ साल बाद, जब जीवन थोड़ा सामान्य हुआ, हमारा बाज़ार आना-जाना शुरू हुआ, तो मैं फिर से उस सड़क से गुज़री......
तंबू वही टंगा था, कहीं कपड़ों के छोटे-मोटे टुकड़े-चिथड़ेड़े वहीं पड़े थे, पर गुम थी सिलाई की मशीन की जर्जर आवाज़...गुम थी मशीन के साथ वह बुज़ुर्ग...जिनकी मद्धम आंखों में मैंने सदा जीवन देखा था....गुम थे वे बैग, जो उन्होंने ग्राहकों के लिए सिलकर तैयार करके रखे थे, गुम थी वह आत्मीयता...वह फिज़ां, वे मनुहार भरे शब्द....बिटिया, तुम आई नहीं? मैं रात को 8:00 बजे तक राह देखता रहा...मैं दुकान नहीं बढाई।
फिर क्या था? आसपास पूछा, सब अनजान से चेहरे वहां थे, जिनकी दुकान आसपास थी, वे वहां नहीं थे...कुछ नए लोग थे, जिन्होंने शायद उन बुज़ुर्ग को कभी देखा भी नहीं था। मुझे बदहवास देख कोई फुसफुसाया...किसी से उड़ते-उड़ते सुना था कि वे अब नहीं रहे...वे नहीं रहे!! मैं निःशब्द हो गई। एक बार उन्होंने मुझे बताया था कि वे जालंधर के पॉलिटेक्निक के पहले बैच के विद्यार्थी थे, वहीं उन्होंने सिलाई का काम सीखा था और फिर लगभग 33 वर्ष जालंधर में ही बिजली विभाग में काम किया था। फिर अपने बेटे के साथ सपत्नीक वे मेरे शहर आ गए थे और मेरे शहर ने उन्हें क्या दिया? वैसे कभी-कभी बेटे और पत्नी के बारे में कुछ कहते-कहते चुप हो जाते। लापता का तमगा? मैंने सोचा कहाँ ढूंढू उन्हें...! पर कहां?, वे तो बहती हवा से गुम हो गए....वे जो बिना कष्ट-श्रम के युगों से गगन को सम्हाले हुए थे, वे जो सभी प्राणियों को प्रेम-आसव पिलाकर जिलाए रहते, वे जो अपनी बाँहें पसारे शीत के कोमल झकोरों से नदी को शीतल कर देते, वे जो अपनी माया के बल पर आकाश नाप लिया करते,जिनकी आंखों में अनगिनत संभावनाओं के दीप जला करते, जिनकी अश्रुपूरित आँखों में ढेर सारी नमी बिखेरती , आशीषें होती... अब वे कहां?
सच, वो बहुत ही जिंदादिल इंसान थे।
जीवन किसी के लिए भी आसान नहीं है, बहुत कठिन है। अक्सर दिल और दिमाग के द्वंद्व चलते हैं, कहीं नौकरी की समस्या, कहीं विवाह की समस्या, कहीं विवाह नहीं हो रहा ये दुख, कहीं ये की विवाह क्यों कर लिया? कहीं विवाह को बचाया कैसे जाए? कहीं नौकरी नहीं मिलती, तो कभी मिल गई, तो कैसे बचाई जाए, इसका तनाव, कहीं घरों में जगह नहीं, तो कहीं दिलों में प्यार नहीं, कहीं घर नहीं, तो कहीं दिल ही नहीं... हज़ारों दुख, लेकिन इन सब के बीच भी जीवन खोजना है, जब दिल दुख से भर जाए दिल और दिमाग आपस में उलझ जाए तो क्या करें?
ऐसे में अंतर्विरोध बहुत ज्यादा हावी होने लगते हैं, दूर-दूर तक कोई राह नजर नहीं आती, कितनी भी मेहनत कर लें लेकिन कोई हल नहीं निकलता, सारी सक्रियता बेमानी लगने लगती है, ऐसे कठिन समय में परेशान व्यक्ति को केवल दो ही राहें दिखती हैं; या तो वो हालातों के सामने आत्मसमर्पण कर दे या तो परिस्थियां जैसी हैं उसी हाल में चुप-चाप खुद को ढाल ले। जो हो रहा है उसे साक्षी भाव से देखता चले या फिर दूसरी राह ये कि हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाए कि साहब, अब हम तो कुछ नहीं करेगें क्योंकि परिस्थतियां अनुकूल नहीं हैं, बेमन से काम करने से बेहतर है कुछ किया ही ना जाये।
अक्सर लोग, दूसरी राह यानी "कुछ ना करने" को ही चुनते हैं और इसी में मानसिक सुख तलाशने लगते हैं, लेकिन यहीं पर गलती होती है। ये सोच गंभीर नशा पैदा करने वाली सोच है और धीरे-धीरे व्यक्ति इस आदत का शिकार होता चला जाता है, उसकी सक्रियता सीमित होने लगती है। उसका किसी काम में मन नहीं लगता, आसपास के सभी लोग उसे दुश्मन से लगते हैं। सभी लोगों से उसे चिढ़ होने लगती है। ऐसी हालत में परिवार के सदस्य भी उस व्यक्ति से बात करना बंद कर देते हैं, परिवार की उपेक्षा उसे सबसे ज्यादा तोड़ती है। व्यक्ति बाहरी दुनिया का सामना तो साहस के साथ कर लेता है लेकिन घर के भीतर का बेगानापन उसे भीतर से तोड़ता है। दुख पीड़ा बढ़ते जाते हैं, कार्य-क्षेत्र और परिवार के बीच वो संतुलन नहीं बना पाता। खुद को असहाय महसूस करता है, कितना भी प्रसिद्ध व्यक्ति हो, चाहे बहुत बड़ा लेखक, कवि, पत्रकार, चिकित्सक, नेता या अभिनेता क्यों ना हो ऐसी कठिन परिस्तिथियां उसे गहरे तनाव, अवसाद में ले आती है और व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है। परिवार वालों से, दोस्तों से, सभी से बात बंद हो जाती है। एक सफल व्यक्ति, प्रसिद्ध व्यक्ति, सक्रिय व्यक्ति अब निष्क्रिय प्राणी में बदलने लगता है। ऐसी भयावह स्थिति से हम अपने जीवन में कभी ना कभी जरूर गुजरते हैं, लेकिन समाधान खोज नहीं पाते।
अब सवाल ये कि सबसे पहले क्या किया जाए? सबसे पहले हमें वही ऊपर बताई हुई राह यानी "सक्रियता" का दामन थामे रखना है, आप जो भी काम कर रहे हैं, वो कितना भी बोरिंग क्यों ना हो, मशीनी हो, बोझिल हो, जिसे करने से कोई भी हांसिल ना निकले, कोई मतलब ना निकले, आप खुद को कोल्हू का बैल मान रहे हो (जबकी आप जानते हैं कि आप कोल्हू के बैल नहीं, रेस के घोड़े हैं) फिर भी आप उसी काम को करते जाइये, धीरे-धीरे उसी राह पर कदम बढ़ाते रहें।
आप देखेंगे कि उसी काम के बीच, उसी सक्रियता के बीच में से कुछ "मतलब" निकलने लगे हैं; जिसके अभी तक कोई मायने नहीं थे, उसमें से ही मायने निकलने लगे हैं। याद रखिए मनुष्य अपनी सक्रियता से ही अपनी आभा बनाए रखता है और बेहतर हो सकता है। निष्क्रियता से तो इन्हें खोने की राह ही बनेगी।
संघर्ष कीजिये, प्रयत्न कीजिये, प्रयास कीजिये और फिर प्रतीक्षा कीजिए। सब ठीक होता जाएगा, जो भी हालात हमारे सामने हैं, जो भी वस्तुस्थितियां सामने आ रही हैं; उनके अतीत के कारण और हिसाब हमारे पास हैं, परन्तु क्या अब हम अपने अतीत को बदल सकते हैं?... नहीं ना?... तो जो बीत गया उसके बारे में क्यों सोचें, हमारे पास जो अभी बकाया है, जो खर्च नहीं हुआ वो अभी भी शेष है ना? वही हमारा वर्तमान है और आगे संभावनाएं भी हैं।
जब आप मानसिक उद्देलन में हो, चिंताओं से घिरे हों, अनिर्णय की स्थिति में हों, कुछ भी समझ नहीं आ रहा हो, सारे रास्ते बंद होगये हों तब भी हमें ये याद रखना होगा की कोई न कोई रास्ता अब भी बचा है। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं, तब भी हम मानसिक रूप से बहुत कुछ कर रहे होते हैं, हम विचार प्रक्रिया में होते हैं, सोच में होते हैं। कभी-कभी सोच नकारात्मक हो जाती है और हम अपने परिवार, साथी और दोस्तों पर अपना गुस्सा जाहिर करने लगते है, ये बहुत ही बुरी स्थिति होती है। आपकी नकारात्मक सोच कभी भी आपको इस दलदल से नहीं निकलने देती है। कभी कभार यूं भी होता है कि कुछ लोग हालातों के सामने शहीद होने का मन बना लेते हैं। वो अपनी निजता, अपनी व्यक्तिकत्ता का बड़ा-सा त्याग करके अपने अहम को संतुष्ट करते हैं, अपनी आत्मा को झूठा सुख देते है कि हमने अपना सब कुछ त्याग दिया लेकिन ये भी तो ठीक नहीं है ना...
हमें योजना के साथ काम करना होगा, सबसे पहले हमें स्वयं ही अपने बिखरे टुकड़े समेटने होंगे, खुद की विशेषताओं को देखना शुरू करना होगा, अपने गुणों पर गर्व करना होगा, ताकी हम उनसे लाभ उठा सकें। जिन्दगी से और बेहतर तरीके से जूझने की हिम्मत जुटानी होगी, एक-एक कदम जमा कर उठाना होगा। अपने दिमाग में जो भी चल रहा है उसे या तो किसी कागज पर लिख डालिए या फिर किसी करीबी दोस्त से कह दीजिए। आप देखेगें कि दोस्त से बात करते-करते ही आप उस गंभीर समस्या से बाहर निकल रहे हैं। कल ही मैंने कहीं पढ़ा कि मानसिक प्रक्रिया का तारतम्य तोड़ने के लिए उसे “एक झटका देने की जरूरत होती है"। तो तोड़ डालिए वो तारतम्य जो अभी तक था। भूल कर सब कुछ फिर से नए हो जाइए, आपके भीतर ही कहीं आप गुम ना हो जाएँ इसका ध्यान रखना होगा। आप जो है उसे बाहर लाना ही होगा। जब आप खुद को खोज लेते हैं, तो अपने आसपास बहुत से ऐसे लोग आपको नजर आने लगते हैं जिन्हें आपकी जरुरत है, जो अपने सर्वश्रेष्ठ गुणों के बावजूद गुमनाम जिन्दगी जी रहे हैं, उन्हें ढूंढ़ कर रोशनी में लाना होगा। उन्हें जीना सिखाना होगा, मुस्कुराना सिखाना होगा। हम जिनकी परवाह करते हैं, प्रेम करते हैं, उन्हें पल-पल मरते कैसे देख सकते हैं। ना जाने कितने लोग जीते जी मर गए, गुम हो गए अपने तनाव, अवसाद और दुख के नीचे, पीड़ा के पीछे उन्हें ढूंढना होगा, किसी गीत की पंक्तियां है, ‘बहती हवा-सा था वो, उड़ती पतंग-सा था वो ...कहां गया उसे ढूंढो...
No comments:
Post a Comment