22 आप मुझे अच्छे लगने लगे
आप मुझे अच्छे लगने लगे,
सपने सच्चे लगने लगे|
जी हां , दोस्तों! बहुत
ही प्यारा गीत है, फिल्म शायद जीने की राह है और नायिका बड़ी ही प्यार से नायक से
इस बात का मनुहार करती है कि नायक उसे अच्छा लगने लगा है, अच्छा ही नहीं बहुत
अच्छा लगने लगा है| जब नायक अच्छा लगने लगा है, तो और क्या-क्या अच्छा लगने लगा है?
सबसे पहले उसने जो सपने देखे थे,
जीवनसंगी को लेकर, वे
सब सच्चे लगने लगे| और
उसे अच्छे लगाने लगे, शायद
यह धरती, यह नदिया, ये रातें, ये दिन, यह सुबह, यह शाम, सब अच्छे लगने लगे हैं| अक्सर सोचती
हूं कि क्या ये नदियां, धरती, पहाड़, आसमान, हमेशा से ही सबको अच्छे लगते हैं, पर उनके
साथ आप कौन है? मुझे लगता है कि जीवन का सारा अच्छापन और सारा सच्चापन इसी आपकी वजह
से है| सोचिए, ये नदियां, पहाड़, पंछी, फूल, तारे, सितारे, ये तो शाश्वत हैं, फिर इस दुनिया के सभी लोगों को ये
बड़े अच्छे क्यों नहीं लगते, या यू कहूं कि सबसे अच्छे क्यों नहीं लगते? मुझे तो लगता है यह दुनिया, इसकी सारी
चीज़ें, तभी खूबसूरत
लगती हैं, जब कोई आप
हमारे जीवन में आता है| मेरे-आपके, हम सबके जीवन में उस आप की वजह से ही ज़िंदगी
पूरी होती है|
तभी तो मन झूम-झूमकर गाने लगता है कि जीवन
इस और में गाता है कि आप मुझे अच्छे लगने लगे, आप मुझे बड़े अच्छे लगने लगे| जब जीवन में आप हो, तो फूलों में महक बसती है, खुशबू महकती है, बहता पानी नदियों जैसा लगता है, खुरदुरी, पथरीली, धरती सोंधी महक देने लगती है, पेड़ों पर बैठे पंछियों की भाषा समझ में आने लगती है, मन पंछी की तरह आकाश के, क्षितिज के कोने-कोने को
छूना चाहता है| और
फिर, अपने आसपास पल रहे सभी रिश्ते सच्चे लगने लगते हैं| आखिर ऐसा हुआ क्यों? और अचानक हमने ऐसा सोचा क्यों? हमारे मन की दहलीज़ पर जब कोई आहट होती है, जब कोई अपने कदमों के गहरे निशान बनाने लगता है दिल की ज़मीन पर, तब हमें समझ आता है कि सागर के खारा होते हुए भी नदियों को वह अच्छा क्यों लगता है?
रात के सन्नाटों में लहरें जड़ किनारों के कानों में जा जाकर यही फुसफुसाती होंगी ना...अरे! किनारों,
तुम कितने जड़ हो, बहते क्यों नहीं मेरे साथ? क्यों अभिमान से भरे हो? क्यों नहीं तरल हो जाते मेरी तरह?
क्यों नहीं सरल हो जाते मेरी तरह? क्यों अहंकार में अकड़े से दिखाई देते हो, हरा समय? कभी झुको भी, झूमो भी, लहराओ भी! और फिर किसी दिन कोई किनारा
चुपके से लहरों के साथ बह जाता होगा, यह कहकर कि आप मुझे अच्छे लगने लगे| किसी
बड़े वृक्ष के तने से लिपटी हुई कोमल वल्लरी, कोमल लता भी तो हौले- हौले यही कहती
होगी ना, आप मुझे अच्छे लगने लगे| सुबह-सुबह पेड़ों की पत्तियों पर जो अनगिनत ओस की बंदे दिखती है ना, कभी उन्हें ध्यान से
देखिएगा, किसी ने रात को बड़े प्रेम से लिखा होगा... कि आप मुझे अच्छे लगने लगे|
सुबह सूरज की गर्मी के स्पर्श से ये ओस की बूँदें पिघल जाती होंगी और कहती होंगी
कि आप मुझे अच्छे लगाने लगे|
जैसे जिंदगी की धूप हमारे जीवन में
प्रेम, स्नेह, आत्मीयता को पिघलाकर, हमारे सूखेपन भर देती हैं, यह सूखापन ही हमें
खुरदरा बनाता है, मार ही डालता है और भीतर का गीलापन, भीतर की नमी हमें जिंदा रखती
है| जब तक हमारे मन के अंदर गीलापन नहीं होगा, तरलता नहीं होगी, सरलता नहीं होगी, मुहब्बत
नहीं होगी, परवाह नहीं होगी, हम किसी से जुड़ नहीं सकेंगे,और ना ही हमें कोई अच्छा ही लगेगा|
किसी अहम् को गलाना पड़ता है|
अगर अहम् रहेगा तो हम कभी भी सुंदरता को महसूस नहीं कर पाएंगे और ना ही हम कभी कह
पाएंगे कि आप मुझे अच्छे लगने लगे|
इस प्यार को, स्नेह को, गीलेपन को बचा लिया यदि, तो दुनिया
में इतने संदेह, शक, फरेब, अविश्वास और आतंक नहीं होंगे| हर किसी को नदियां, धरती,
आसमान, पर्वत,
फूल पत्ते,
बूटे, सभी बड़े सुहाने, बड़े अच्छे लगने लगेंगे| इस सुंदर दुनिया को देखने के लिए
सुंदर आंखें और सुंदर मन चाहिए| कहा भी गया है कि सुंदरता देखने वाले की दृष्टि
में समाहित होती है| लेकिन सबसे ज़रूरी बात, एक आप भी होना चाहिए| वह आप जो हममें, आपमें, आपके ज़िंदा होने का
एहसास करवाए| आपके
अंदर लहरों की तरंगों को जन्म दे, जिसे आप अपनी जिंदगी के गीत में शामिल कर सकें,
जिसके आने से आपको सूरज की धूप भी ठंडक पहुंचाए और जिसके समीप आने पर बर्फ भी सुलगती
पिघलती सी महसूस हो, जिसे सोचने के बाद आपकी सोच बदल जाए, मन बदल जाए, इस आप का
होना लाज़मी है| उसके होने से आपकी आंखों में चमक और होठों पर मुस्कान खिल जाए| वह
आप हम सबके पास है, आसपास है, लेकिन क्या हमने कभी उस आप से कहा कि दुनिया की सारी
उलझानों, परेशानियों, ज़िम्मेदारियों, मजबूरियों, दुश्वारियों, दूरियों के बावजूद मुझे ज़िंदगी हसीं लगती
है, सिर्फ इसलिए अच्छी लगती हैं क्योंकि मुझे आप अच्छे लगने लगे हो| और हां यह दौलत, यह शोहरत, गाड़ियां,
बंगले, बैंक अकाउंट, सब दरअसल कितने झूठे हैं, सब कितने फेक हैं, सब कितने बड़े
छलावा हैं, मगर सच्ची लगती है वे आंखें, वे बातें, वे शिकायतें, वे झगड़े, और...और जी हां...अगर आप अभी तक नहीं
कह पाए हैं, तो
आज कह भी दीजिए, अच्छा लगता है कहना भी, और सुनना भी... कि आप मुझे अच्छे लगने लगे....!
"जब तू सामने आता है..."
जब तू सामने आता है, दिल
कुछ कहने लगता है,
बेमौसम सावन सा मन भीगने लगता है।
तेरी मुस्कान की गर्मी में कुछ तो खास
है,
वरना ठंडी हवा में भी ऐसा एहसास कहाँ
होता है।
तेरा नाम जुबां पर नहीं, पर
दिल में रच गया है,
जैसे कोई गीत बिना सुर के भी सच्चा लग
गया है।
बातें तेरी यादों में गूँजती हैं हर
रात,
जैसे तन्हाई में मिल जाए कोई मीठी बात।
पता नहीं क्या है ये, इश्क़
नहीं तो क्या है,
पर तेरी मौजूदगी में ये दुनिया हसीं सा
लगने लगा है।
जब कोई अच्छा लगने लगता है, तो
मन में एक अजीब सी हलचल होने लगती है—जैसे कोई मीठा सा राज़ छुपा हो। दिल बार-बार
उसी इंसान की ओर खिंचने लगता है, उसकी बातें, उसकी हँसी,
उसकी
मौजूदगी सब कुछ खास लगने लगता है।
मन में उत्सुकता, उम्मीद
और थोड़ी सी घबराहट की तरंगें उठती हैं। कभी-कभी बिना किसी वजह के चेहरे पर
मुस्कान आ जाती है, और दिल यह सोचकर धड़कने लगता है कि अगली बार उससे कब मुलाकात होगी।
"जब कोई अच्छा लगने लगता
है..."
वो एक अजीब सी बात होती है—ना कोई शोर,
ना
कोई एलान—बस चुपचाप, किसी शाम की तरह उतर आता है दिल में। उसकी हँसी जैसे किसी पुराने
गाने की धुन हो, जो कानों से नहीं, सीधे दिल से सुनाई देती है। उसके आने
से जैसे हवा में कुछ बदल जाता है—हल्की सी ठंडक, मीठा सा सुकून।
मन पूछता है: "क्या उसे भी ऐसा ही
महसूस होता होगा?"
और जवाब में बस एक हल्की सी मुस्कान
होती है, जो खुद-ब-खुद होंठों पर आ जाती है।
कभी उसके नाम से दिल धड़क उठता है,
और
कभी उसकी एक झलक से दिन सँवर जाता है।
ये एहसास... शायद प्यार नहीं, पर
प्यार का पहला खत तो ज़रूर होता है।
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