EPISODE-1 ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी 15/01/26
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नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ता, एक आवाज़, एक दोस्त, एक किस्से-कहानियां सुनाने वाली आपकी मीत | लीजिए हाज़िर हैं, नए जज़्बात, नए किस्से, और कुछ पुरानी यादें, उसी मखमली आवाज़ के साथ...आज
हम बात करने जा रहे हैं प्रेम की..जी हां! ऐसा प्रेम जो अलौकिक है, दैविक है, अमर है, अजर है और
शाश्वत है| जब भी हम प्रेम की बात करते हैं न, तो एक ओर हमें श्री कृष्ण की याद आती है, तो दूसरी
ओर कृष्ण के साथ-साथ राधा का नाम बरबस ही याद आ जाता है, लेकिन
आज मैं राधा की नहीं, मीरा की बात करूंगी| जी हाँ, प्रेम दीवानी मीरा, जिसका
दरद कोई नहीं समझ सका, ऐसी मीरा को हम सभी जानते हैं,
परिचित हैं, हम सभी ने वह कहानी सुन भी रखी
होगी, ऐसी कहानी, जो हम सब को प्रिय है| आज प्रसंगवश इस कहानी से बात शुरू करती हूँ|
चित्तौड़, राजस्थान की मीरा जब छोटी थीं,
तो उनके घर एक साधु आए, जो कृष्ण भक्त थे|
साधु अपने साथ श्री कृष्ण की मूर्ति भी लेकर आए, जिसे वे बरसों से पूज रहे थे| बालिका मीरा उस मूर्ति
को देखकर मचल उठी और साधु से मूर्ति की माँ ग कर बैठी| साधु
ने साफ़ मना कर दिया कि वे बरसों से इस
मूर्ति को पूज रहे हैं| कहने लगे, यह
कोई साधारण मूर्ति नहीं, इसमें साक्षात श्री कृष्ण विराजते
हैं| यह कोई खेलने की वस्तु नहीं, जो
मैं तुम्हें दे दूँ| मीरा रोती रही और साधु चले गए|
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दोस्तों! संभवतः रोदन के साथ मीरा का रिश्ता यहीं से बन गया था| किवदंती के अनुसार रात को साधु के सपने में श्री कृष्ण आए और कहने लगे कि
तुम मेरी मूर्ति मीरा को दे दो| साधु ने कहा, हे कान्हा!
मैंने जन्म भर आपकी पूजा की है, परंतु आपने दर्शन नहीं दिए
और आज आप आए हैं, तो उस नादान लड़की को मूर्ति देने के लिए
कह रहे हैं? क्या लीला है प्रभु? श्री
कृष्ण ने कहा, हे साधु! मेरी मूर्ति बस उसी की होगी, जो मेरे के लिए दिन-रात रोती है|
चलिए, अब मैं अपनी बात को इसी छोर से शुरू करती हूँ|
क्या सचमुच हे कृष्ण, तुम आए थे साधु के सपने में या यह भी तुम्हारा
कोई छल था, बोलो न छलिया?
आज तुमसे कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ कान्हा, जब से इस धरती से गए हो , क्या एक बार भी इस धरती की
सुध ली है तुमने? क्या तुम्हें इस धरती की याद भी आती है? क्या यह याद कभी सताती भी है? तुम तो वचन देकर
गए थे कि मैं लौटूंगा, फिर भी लौट कर नहीं आए? तुमने अपनी मोहक मुस्कान से सबको खूब छला| गोपियों
को अपनी बंसी की मधुर लहरी सुनाकर बेसुध कर दिया| राधा को अपने
प्रेम का दीवाना बना दिया| राधा के प्रेम में तो तुम भी
बावरे हो गए थे ना? बोलो ना कान्हा?
तुमने राधा संग, गोपियों संग, खूब होली खेली,
खूब रास रचाया| तुम्हारे और राधा के प्रेम-गीत
आज भी ब्रज की गलियों में गूंजते हैं| मधुबन के महारास में
तुमने हर गोपी के साथ तुमने रास रचाया| हर गोपी यही समझती
रही कि तुम सिर्फ़ उसके साथ हो, लेकिन कृष्ण तुम वहां थे ही
नहीं, तुम सिर्फ़ राधा के पास थे, राधा
के प्रेम में आसक्त हो कर तुमने जो छल किया, कभी चूड़ी वाले
बने, कभी स्त्री स्वांग रचाया, और न
जाने क्या-क्या? हे कान्हा!
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एक बात बताओ ना कान्हा, ब्रज की गलियों में
राधा संग, महलों में रुक्मणी संग, सत्यभामा
संग अनगिनत रानियों, पटरानियों के बीच क्या कभी तुम्हें उस
विरहिणी की याद आती थी, जो तुम्हारे नाम की वीणा लिए
रेगिस्तान की तपती धूप में खुद को जलाती रही, जिसने सिर्फ़ तुम्हारे
कारण अपने महलों के सुख-सुविधाएँ त्याग दीं, और तपती रेत पर
अपने आँसुओं के प्रेम की इबारत लिख दी, प्रेम को इबादत मान
बैठी, उसके दिन तुम्हारे वियोग में झुलस गए और उसकी रातें
तुम्हारी याद में बंजर हो गईं, उसके जीवन में कभी मिलन के
फूल नहीं खिला पाए तुम कृष्ण?
हे गिरिधर! आज सच्ची-सच्ची बताओ, अब बता भी दो न....कि
मीरा तुम्हें इतना प्रेम क्यों करती थी? क्या चाहती थी वो
तुमसे? तुम तो त्रिकालदर्शी हो न, क्या
बता सकोगे कि मीरा ने ऐसा क्यों कहा, 'आवन
कह गए, अजहूँ ना आए|’ क्या तुमने मीरा से कोई वादा किया था,
बोलो न गिरिधर! क्या दुनिया से छिपाकर, हे छलिया! तुमने अपनी मोहक
मुस्कान से उसे भी दीवानी बनाया था? बोलो ना कान्हा! मीरा तो
राधा की तरह तुमसे प्रेम की माँ ग भी नहीं करती थी, ना रास,
ना मिलन की आस, ना कोई योग, ना ही कोई भोग, फिर वह क्या चाहती थी? और क्यों? क्या तुमने कभी यह जाना? वह मंदिरों में, संतों के डेरों पर, जा-जाकर तुम्हारा पता पूछती थी कान्हा, वह बादलों की
तरह मीलों चलती थी, हे कृष्ण! क्या तुम मीरा के लिए दो कदम
भी साथ चले थे? अच्छा, एक बात बताओ
मोहन! क्या कभी रेत के संग पानी मिल कर चला है? क्या कभी रात
के सन्नाटों में जब सारी दुनिया सो रही होती, क्या उस वीराने
में तुम्हें मीरा की सिसकियां सुनाई देती थीं? मीरा के मन
में तुम्हारे प्रेम की जो लौ जल रही थी कान्हा, क्या कभी
उसकी ऊष्मा को तुमने महसूस किया? क्या मीरा के प्रेम की अगन
से तुम कभी विचलित हुए थे? हे कृष्ण! बताओ ना..क्या तुमने
जानबूझकर उसे वियोग के दावानल में छोड़ दिया था? कहीं ऐसा तो
नहीं....कान्हा! कि तुम उसके तप से घबराते थे? उसकी सच्ची,
निष्पाप, निष्कलंकित भक्ति से घबराते थे? सुनो ना.. मोहन! तुम कभी भी उसके पास नहीं गए| अपने
नियमों में बंधे तुम कभी नियम तोड़ न सके, फिर चाहे मीरा सभी
नियमों, परंपराओं को त्याग कर कभी बावरी और कभी कुलनाशिनी
कहलाती रही| सारे नियम, सारे दर्शन,
सारे आदर्श, सारे सिद्धांत, मीरा के ही हिस्से में क्यों आए? वंशीधर! उत्तर दो
ना..सारे सही-गलत के गणित केवल मीरा के लिए ही क्यों थे?
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किसका प्रेम बड़ा है? बोलो न कान्हा! राधा का या मीरा का? बोलो! आज तो तुम्हें बताना ही होगा? किसका पलड़ा
भारी था? तुमने आने का वचन दिया था न, फिर
भी नहीं लौटे? अब जब कभी भी तुम आओगे न कृष्ण, मीरा की रूह, उसकी आत्मा आज भी तुम्हें विरहिणी बनकर भटकती मिलेगी और गाती
मिलेगी- मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई|
तो क्या मीरा का प्रेम निरर्थक रह गया? जी नहीं, मीरा का प्रेम व्यष्टि से समष्टि बन गया और मीरा का प्रेम, हर एक प्रेम
करने वाले के दिल में समा गया और उसका दरद रेगिस्तान की रेत के कण-कण में व्याप्त हो
गया| मीरा के आँसुओं ने सागर की हर बूंद में समा कर उसे खारा
बना दिया| मेरे मन में अक्सर यह प्रश्न भी कौंधता है कि कैसे
समेट लिया सागर ने इतने विस्तृत विरह को?
कभी यदि कान्हा, तुम हमें भटकते हुए गलियों में मिल गए न, तो मैं पूछूँगी ज़रूर, चलो, बोलो, आज तो सच बोल ही दो, आज मैं तुम्हारी मोहक मुस्कान
में उलझ कर हमेशा की तरह अपने प्रश्न नहीं भूलूंगी| देखो
कान्हा, मैंने आँखें बंद कर ली हैं, अब
बताओ, हे कान्हा! मीरा तुमसे इतना प्रेम क्यों करती थी? आज
भी उसकी रूह भटकती रहती है...तुम्हें तलाशती हुई, तुम्हें
खोजती हुई |
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मेरे ये सवाल ऐसे खत्म नहीं होंगे कान्हा, मीरा की तरह हम सभी को इंतजार रहेगा जवाबों का, सही है
न वंशीधर?
क्यों दोस्तों! आप ही बताइए, आप भी तो कान्हा से
जवाब माँगते हैं न....
सुनिएगा ज़रूर… हो सकता है, मीरा की अमर कहानी
आपकी ही कहानी हो! आपके विरह की कहानी हो, आपके प्रेम की
कहानी हो|
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सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ...
नमस्कार दोस्तों....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ लिए.....आपकी
मीत.... मैं, मीता गुप्ता...
END MUSIC
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