Wednesday, 2 July 2025

EPISODE- 2

 

 EPISODE- 2

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन....15/07/26

INTRO MUSIC

नमस्कार दोस्तों! मैं मीता गुप्ताएक आवाज़एक दोस्तएक किस्से-कहानियां सुनाने वालीआपकी मीतलीजिए हाज़िर हैं, नए जज़्बातनए किस्सेऔर कुछ पुरानी यादेंउसी मखमली आवाज़ के साथ...आज हम बात करने जा रहे हैं बचपन की.... आप सोच रहे होंगे....उम्र पचपन की, और बातें बचपन की....सच कहूँ दोस्तों! यही तो वह समय है जब बचपन की वीथियों में फिर से विचरण करके जीवन-पीयूष का रसपान किया जा सकता है......बात यह हुई कि पिछले दिनों मैं लंदन गई थी, पिक्काडली सरकस की रंगीन सडकों पर घूमते हुए ऐसा लगा कि....अचानक ठंडी हवा का कोई झोंका आया| झोंका था, खुशबू थी या खुशी का ज्वार था...हुआ यह.... कि अचानक अलका जो दिख गई| अलका, मेरे बचपन की सबसे प्रिय दोस्त.... फिर क्या था....शुरु हो गया बातों का सिलसिला, यह हिसाब लगाने में घंटों लगे कि कितने सालों बाद मिल रहे हैं, तू कितनी मोटी-पतली हो गई, बच्चे, पति, और फिर शुरू हुई लंदन की कड़कड़ाती, जमा देने वाली सर्दी में आइसक्रीम डेट..... फोटो शेयर करते हुए उसने कैप्शन में लिखा , 'लाइफ के हर फेज़  में हर किसी के दोस्त होते हैं, लेकिन बचपन के कुछ दोस्त जीवन के सभी फेज़ में आइसक्रीम शेयर करने के लिए साथ रहते हैं। उसने आगे जो लिखा, वह तो और भी मज़ेदार था, 'एक साल के लिए आइसक्रीम का कोटा पूरा हो गया.. जब तक हम दोबारा नहीं मिलते।' ऐसी होती है बचपन की दोस्ती....ऐसी ही अनेक इंद्रधनुषी यादों की संदूकची को आज खोलेंगे..... हम बीते दिनों की यादों में खो जाएँगे .....कभी डूबेंगे ...कभी उबरेंगे......कभी अडूब डूबे रहेंगे.....|

MUSIC

तो दोस्तों! चलिए आज बात करते हैं, बीते हुए दिनों की....ऐसे दिन जब न दौलत, न शोहरत की चिंता थी, मुझे बस याद है झुर्रियों से भरे चेहरे वाली वह नानी, जो परियों की कहानियां सुनाया करती, रेत में घरोंदे बनाना, बना-बना कर मिटाना, अपने खिलौनों को अपनी जागीर समझना, अपनी टूटी-फूटी गुड़िया को भी सबसे सुंदर मानना, न दुनिया का ग़म था, न रिश्तों के बंधन, बस बचपन का वह सावन था, वो कागज़ की कश्ती और वो बारिश का पानी था। कभी लहरों के करीब जाकर उन्हें छूने की बेताबी, कभी उनके पास आने पर चिल्लाकर दूर भाग जाना, कभी घोष दादा की बंहगी से ‘रोशोगुल्ला’ निकालकर खाने ज़िद करना, कभी खोमचेवाले से गुब्बारे, कभी फेरीवाले से बुलबुले खरीदने थे, फिर बुलबुलों और गुब्बारों के साथ पूरे घर में धमाचौकड़ी मचाना, माँ  की डांट से बचने के लिए साईकिल ले गलियों में घुमाना, और गिर पड़े तो रोकर उसी के आँचल में छुप जाना, दोस्त से लड़कर मुंह फुलाकर बैठ जाना, पर अगले ही दिन उसी के साथ खेलना, बड़े-बड़े आँसू टपका कर कुल्फी के लिए शोर मचाना, और फिर एक मासूम मुस्कान के साथ छुपकर मज़े से उसे खाना, देर रात तक डैडी के साथ पिक्चरों के मज़े उठाना, और जब नींद आ जाए, तो उन्हीं की गोद में सिर रखकर, सपनों की दुनिया में कहीं गुम हो जाना, एक बुरा सपना देखकर, पलंग के नीचे छुप जाना, कोई जब फुसलाने आए, तो उसी की आगोश में खो जाना, हर घड़ी, हर पल, आज़ाद पंछी की तरह, ज़िंदगी को जीते जाना और ठोकर लग जाए, तो ज़ख्म पोंछकर आगे बढ़ जाना।

हर किसी को अपना बचपन याद आता है। हम सबने अपने बचपन को जीया है। शायद ही कोई होगा, जिसे अपना बचपन याद न आता हो। बचपन की मधुर यादों में माता-पिता, भाई-बहिन , यार-दोस्त, स्कूल के दिन, आम के पेड़ पर चढ़कर 'चोरी से' आम खाना, खेत से गन्ना उखाड़कर चूसना और ‍खेत के मालिक के आने पर 'नौ दो ग्यारह' हो जाना, हर किसी को याद है। जिसने 'चोरी से' आम नहीं खाए और गन्ना नहीं चूसा, उसने अपने बचपन को क्या खाक 'जीया'! चोरी और ‍चिरौरी तथा पकड़े जाने पर साफ़ झूठ बोलना, फ़र्श पर बिस्कुट की रेल बनाना, बचपन की यादों में शुमार है। बचपन से पचपन तक यादों का अनोखा संसार है। सच में-

रोने की वजह भी ना थी, ना हँसने का बहाना था,

क्यों हो गए हम इतने बड़े, इससे अच्छा तो बचपन का ज़माना था |

छुटपन में धूल-गारे में खेलना, मिट्टी मुंह पर लगाना, मिट्टी खाना किसे नहीं याद है? और किसे यह याद नहीं है कि इसके बाद माँ  की प्यार भरी डांट-फटकार व रुंआसे होने पर माँ  का प्यार भरा स्पर्श! इन शैतानीभरी बातों से लबरेज़ है सारा बचपन।

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सच कहूँ तो दोस्तों! जो न ट ख ट नहीं था, उसने बचपन क्या जीया? जिस किसी ने भी अपने बचपन में शरारत नहीं की, उसने भी अपने बचपन को क्या खाक जीया, क्योंकि 'बचपन का दूसरा नाम' ही न ट ख ट पन है। शोर व ऊधम मचाते, चिल्लाते बच्चे सबको लुभाते हैं और हम सभी को भी अपने बचपन की सहसा याद हो दिला जाती हैं।फिल्म 'दूर की आवाज़' में जानी वॉकर पर फिल्माए गए गीत की पंक्तियां कुछ यूँ ही बयान करती हैं-

हम भी अगर बच्चे होते,

नाम हमारा होता गबलू-बबलू,

इस गीत में नायक की भी यही चाहत है कि काश! हम भी अगर बच्चे होते, तो बचपन को बेफ़िक्री से जीते और मनपसंद चीज़ें खाने को मिलतीं। हम में से अधिकतर का बचपन गिल्ली-डंडा,पोशमंपा,खो-खो, धप्पा,पकड़न-पकड़ाई, छुपन-छुपाई खेलते तथा पतंग उड़ाते बीता है। इन खेलों में जो मानसिक व शारीरिक आनंद आता था, वह कंप्यूटरजनित खेलों में कहां?

वह रेलगाड़ी को 'लेलगाली' व गाड़ी को 'दाड़ी' या 'दाली' कहना......हमारी तोतली व भोली भाषा ने सबको लुभाया है। वह नानी-दादी का हमारे साथ-साथ हमारी तोतली बोली को हँसकर दोहराना....शायद बड़ों को भी इसमें मज़ा आता था और हमारी तोतली बोली सुनकर उनका मन भी चहक उठता था । सच में-

होठों पर मुस्कान थी कंधों पर बस्ता था,

सुकून के मामले में वो ज़माना  सस्ता था |

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अपने बचपन में डैडी द्वारा साइकिल पर घुमाया जाना कभी नहीं भूल सकते। जैसे ही डैडी ऑफ़िस जाने के लिए निकलते थे, वैसे ही हम भी डैडी के साथ जाने को मचल उठते थे, चड्डू खाने के लिए, तब डैडी भी लाड़ में आकर हमें साइकिल पर घुमा ही देते थे। बाइक व कार के ज़माने में वो 'साइकिल वाली' यादों का झरोखा अब कहां?

दोस्तों! बचपन में हम पट्टी पर लिख-लिखकर याद करते व मिटाते थे। न जाने कितनी बार मिटा-मिटा कर सुधारा होगा। पर स्लेट की सहजता व सरलता ने पढ़ना-लिखना सिखा दिया, वाह! क्या आनंद था ?

जब बच्चे थे, तब बड़े होने बड़ी जल्दी थी, पर बड़े होकर क्या पाया? हर समय दिन भर कितने ही चेहरे देखती हूँ मैं सड़कों पर, कार्यस्थल पर, हर जगह बहुत से चेहरे होते हैं, परंतु इनमें से कोई भी चेहरा ना हँसता दिखाई देता है, ना ही खुशनुमा| अक्सर लोग हैरान परेशान से दिखते हैं, खुश होते भी हैं, तो ज़रा देर के लिए, मानो हँसने या खुश होने में भी उनके पैसे खर्च हो रहे हों| आज लगता है कि बच्चों का 'बचपन' (भोलापन, मासूमियत, निश्छलता), 'पचपन' के चक्कर में कहीं खो-सा गया है!

इंसान  का बचपन उसकी प्रेरणा होती है। बचपन में की गई गलतियां, नादानियां व शैतानियां बड़े होने पर जब याद आती है, है न दोस्तों! तो हमें हंसी आ जाती है, है न दोस्तों! उसकी सुखद-मधुर यादें हमारे दिल-ओ-ज़हन में मृत्युपर्यंत बनी रहेंगी। नहीं जाने वाली हैं|

MUSIC

दोस्तों! अब उलझनें बहुत बढ़ गई हैं ज़िंदगी में, उन्हें कोई जिगसॉ पज़ल की तरह मिनटों में कैसे सुलझाएँ? चलो चलें! खिलौनों और चॉकलेट्स की उसी दुनिया में वापस चलें। ऐसे जहाँ की ओर चलें, जहां न हो किसी से ईर्ष्या हो, किसी से जलन, जहां छोटी-छोटी चीज़ों में ही हमारे सब सपने सच हो जाएँ। कागज़ के पंखों पर सपने सजाकर, गेंदे के पत्तों से कोई धुन बजाकर, ख़ाली थैलियों की पतंगें उड़ाएँ, रातों को टॉर्च से आसमाँ चमकाएँ, मम्मी से बेमतलब लाड़ जताकर, डैडी से रेत के घर बनवाकर, भैया की साइकिल के पैडल घुमाकर दीदी की गुड़िया को भूत बनाकर, भरी दुपहरी में हर घर की घंटी बजाकर भाग जाएँ, बागों में छुप-छुपकर आम चुराएँ और मधुर-मिष्टी यादों को फिर से सहलाएँ । है न दोस्तों!

बातें बचपन की हैं, यूँ  ही ख़त्म करने का मन नहीं करता, पर.....क्या करें.....? समय की बाध्यता है! मेरी इन सब शैतानियों में आपकी वाली शैतानी कौन सी थी? अपने बचपन के किस्से-कहानियाँ मुझे मैसेज बॉक्स में लिखाकर भेजिएगा ज़रूर, मुझे इंतज़ार रहेगा.....और आप भी तो इंतजार करेंगे न ....अगले एपिसोड का...करेंगे न दोस्तों!

सुनिएगा ज़रूर… हो सकता है,मेरे बचपन की कहानी में आपके भी किस्से छिपे हों.....! मेरे चैनल को सब्सक्राइब कीजिए...मुझे सुनिए....औरों को सुनाइए....मिलती हूँ आपसे अगले एपिसोड के साथ...

नमस्कार दोस्तों!....वही प्रीत...वही किस्से-कहानियाँ  लिए.....आपकी मीत.... मैं, मीता गुप्ता...

END MUSIC

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